जब आप किसी पाँच सितारा होटल में गण्मान्य लोगों के बीच उषा चौमड़ को अग्रेंजी में अपनी बात कहते सुनते हैं तो आप अन्दाजा भी नहीं लगा सकते कि वही महिला हैं, जो कुछ साल पहले तक सर पर मैला ढोती थीं।
महिला उद्यमियों केे बारे में यहाँ उनके महासंघ (फीवे)- द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में भाग लेने आई ऐसी ही कुछ महिलाओं ने अपने जीवन के सफर की दास्ताँ सुनाई, जो रोंगटे खड़े करनेवाली लगती है। सम्मेलन में राजस्थान के अलवर से आई चौमड़ ने कहा कि जबसे होश सम्भाला तभी से सर पर मैला ढोने का काम करती थी। जिन्दगी किसी और तरीके से जी जा सकती है, कभी ख्याल ही नहीं आया।
सर पर मैला ढोने की प्रथा समाप्त करने में लगे स्वयंसेवी संगठन सुलभ इंटरनेशनल की इस प्रतिनिधि ने कहा कि जब बहुत गुस्सा आता था तो माँ से कहती थी यह काम नहीं करना, और जवाब मिलता था कि ससुराल जाकर भी यही काम करना है। यह रोजी का एकमात्र जरिया था, जो हमें पता था। पेट की भूख भी तो मिटानी होती है।
अलवर से ही आई 27 साल की पुष्पा चौहान बताती है कि पता नहीं समाज में किसी से ऐसा काम क्यों करवाया जाता है। आज भी याद करती हूँ तो सिहर जाती हूँ। उन्होंने कहा कि मैं आज-तक दाल नहीं खा पाती। बदन पर गिर जाता था, उल्टियाँ आती थीं।
एक अन्य महिला शान्ति चांवरिया ने कहा कि इस घिनौने कार्य के हमें आठ-दस साल पहले 20 से 40 रूपए प्रतिमाह मिलते थे। पैसे भी हमें फेंक कर दिए जाते थे कि छू न जाएँ। करीब 30 से 35 साल तक सर पर मैला ढोने का काम करनेवाली चांवरिया ने कहा कि किसी ने सुध ली हमारी और अब हालात बदले। शिक्षा और काम सीखने की वजह से अब हम उन्हीं घरों में उनके साथ बैठकर खाते हैं। यह पूछने पर कि क्या उन्हें पता है कि संसद में इस प्रथा का पूरी तरह से खत्म करने के लिए एक विधेयक पेश किया गया है, चांवरिया ने कहा प्रथा तो खत्म हो ही, साथ में उन्हें हमारी तरह रोजगार भी मिले नहीं तो भूखों मर जाएँगे। हम एक संस्था की मदद से काम भी करते हैं, पढ़ाई भी करते हैं और बदले में पैसे भी मिलते हैं।
उल्लेखनीय है कि हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने जम्मू-कश्मीर, मध्य-प्रदेश, उत्तर-प्रदेश और बिहार के स्वास्थ्य व सामाजिक कल्याण-मन्त्रालय के सचिवों को तलब किया है। साथ ही इस मामले में कोताही बरतने के लिए 10,000-10,000 रूपए का दण्ड भी लगाया है। उत्तराखण्ड के मुख्य सचिव को भी तलब किया गया है। सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक बिन्देश्वर पाठक ने दावा किया कि प्रधानमन्त्री मुझे तीन साल का वक्त दें तो मैं सर पर मैला ढोने की प्रथा समाप्त कर दूँगा और न कर सका तो मुझे जेल भेज दें।
डॉ. पाठक से आरक्षण से इस स्थिति में बदलाव के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि आरक्षण राजनीतिक मामला है, लेकिन शिक्षा और उद्यमिता सशक्तीकरण और सामाजिक स्वीकार्यता का अचूक माध्यम है। उन्होंने कहा कि शिक्षा और उद्यमिता ने सर पर मैला ढोने वाली महिलाओं को न सिर्फ स्थानीय समाज में स्वीकार्यता दिलाई, बल्कि उन्हें अपना काम क्षमता दिखाने का एक अन्तरराष्ट्रीय फलक भी मिला। राजस्थान के अलवर और टोंक जिले में सामाजिक समरसता की अपनी कोशिश की सफल कहानी का उल्लेख करते हुए पाठक ने कहा ‘मुझे फख्र है कि मैं कह सकता हूँ कि इन दो जिलों में गाँधी का सपना साकार हुआ है जहाँ छुआ-छूत जैसी चीज नहीं रही।’
साभार : सुलभ इण्डिया, सितम्बर 2012
नेशनल दुनिया 10 सितम्बर, 2012