वित्तीय राजधानी में अपमान

गीतांजलि मिन्हास

 

स्वतन्त्रता दिवस पर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का लड़कियों के हरेक स्कूल में एक साल के भीतर उनके लिए अलग शौचालय का वादा ऐसा पुराना मुद्दा है जिसपर काफी बहस और चर्चा होती रही है। 'टीसीएस' और 'भारती' ने जरूर 'कॉरपोरेट सामाजिक जिम्मेदारी' के तहत शौचालय निर्माण के लिए 100-100 करोड़ रूपए के फण्ड की घोषणा की है। लेकिन आंशिक रूप से स्वच्छता के अभाव में हर साल 30 प्रतिशत गरीब महिलाओं पर यौन हमलें होते हैं।

 

भारत की वित्तीय राजधानी मुम्बई की सीमाएँ तेजी से फैल रही हैं। अपर्याप्त सार्वजनिक बुनियादी ढाँचा थोपकर शहर को लम्बे समय से शंघाई की नकल बनाने के प्रयास होता रहा है। विडम्बना यह है कि एशिया में सबसे समृद्ध हमारी नगरपालिका और हमारे प्रशासक अपनी आबादी की सहज जरूरत के हिसाब से न्यूनतम शौचालय की सुविधा भी प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं।

 

'पेशाब करने का अधिकार' अभियान के मुताबिक, मुम्बई में महिलाओं के लिए 113 पेशाबघर, 5136 शौचघर और 61 स्नानघर उपलब्ध हैं। जबकि पुरुषों के लिए 3705 पेशाबघर, 8305 शौचघर और 191 स्नानघर उपलब्ध हैं। जहाँ तक विकलांगों की बात है तो शहर भर में उनके लिए 15 शौचघर हैं तथा पेशाबघर और स्नानघर तो हैं ही नहीं। महिलाओं के लिए भी शौचालय खण्ड बहुत कम हैं। मुम्बई की 1.3 करोड़ की आबादी में से 80 लाख लोग स्लम क्षेत्रों में हैं जो हर रोज सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालयों पर निर्भर हैं।

 

'बीएमसी' सर्वेक्षण 2001 के अनुसार, एमएसडीपी के दूसरे खण्ड में 200 स्लम क्षेत्रों में कोई स्वच्छता नहीं है। मलिन बस्तियों में 65,000 टॉयलेट सीटों की कमी है। 2013 में 63 प्रतिशत आबादी मलिन बस्तियों में रहती थी और 20 प्रतिशत 'आधिकारिक' आबादी यानी करीब 1.5 लाख लोग खुले में शौच करते हैं। 'यूनिसेफ' और 'डब्ल्यूएचओ' के मानकों के अनुसार प्रति 35 व्यक्तियों के लिए एक शौचालय की जरूरत है। जबकि, 'विश्व बैंक' और 'बीएमसी' के मुताबिक, प्रति 50 व्यक्तियों पर एक शौचालय होना चाहिए।

 

पब्लिक टॉयलेट्स की कमी एक गम्भीर मुद्दा है। अच्छी बात है की अब इस पर ध्यान देने की बात हो रही है। इसके साथ साफ-सफाई भी एक मुद्दा है। हाइजीन का ख्याल रखना जरूरी है। हम विदेश जाते हैं तो वहाँ इस पर खासा ध्यान दिखता है, लेकिन भारत में हाइजीन कोई मसला ही नहीं है।- प्रियंका चोपड़ा

 

'बीएमसी' सर्वेक्षण के हवाले से 17 अप्रैल, 2013 के 'टाइम्स ऑफ इण्डिया' की रिपोर्ट बताती है की कुल 10,381 सार्वजनिक टॉयलेट में सीटों का प्रावधान है और 1200 व्यक्तियों के लिए एक ही टॉयलेट सीट है। स्वच्छता सुविधाओं और स्वच्छता पर ' द आब्जर्वर रिसर्च फाउण्डेशन' के सर्वेक्षण ने दिसम्बर 2009 से जनवरी 2010 के बीच मुम्बई के सभी 109 उपनगरीय रेलवे स्टेशनों पर शौचालयों व पेशाबघरों की कमी और केन्द्रीय, पश्चिमी और बंदरगाहों वाली लाइनों के अधिकाँश स्टेशनों पर इनकी सोचनीय स्थिति का खुलासा किया था। शौचालयों के दरवाजे-नल नदारद थे, हवा-रोशनी की व्यवस्था नहीं थी, जंग और पान की पीक के निशान थे। तब से लेकर अब तक स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है।

 

मुम्बई रेलवे स्टेशनों पर बहुत काम शौचालय हैं। ज्यादातर शौचालय बन्द पड़े हैं या मलबे वगैरह से पटे पड़े हैं। सिर्फ मुम्बई उपनगरीय रेलवे ही नहीं, बल्कि गलियों और सड़कों पर स्थिति सार्वजनिक शौचालय और पेशाबघर, लम्बी दूरी की ट्रेनों या दूसरें स्थानों का दुर्गन्ध के कारण यह हाल रहता है कि वहाँ खड़े होने की तो छोड़िए, पास से गुजरना भी मुश्किल होता है। लेकिन एक औसत मुम्बईवासी इस मानसिक आघात से छुटकारा नहीं पा सकता। इसके अलावा आपके पास कोई विकल्प भी नहीं होता। उदाहरण के रूप में, प्रायः ठसाठस रहने वाले चर्चगेट स्टेशन पर दुर्गन्ध छोड़ते शौचालय के पास कई स्टॉल खान-पान के हैं।

 

असहनीय बदबू के अलावा ज्यादातर सार्वजनिक शौचालयों और पेशाबघरों में पानी, बाल्टी, हवा-पानी का इन्तजाम, बिजली की हालत उन्हें बहुत अस्वच्छ बना देती है और खासकर महिलाओं की गलियों के गुण्डे व नशेड़ियों से असुरक्षित कर देती है। मासिक धर्म वाली लड़कियों और महिलाओं के सेनिटरी पैड फेंकने के लिए कूड़े के डिब्बे नहीं होते। सामुदायिक शौचालय के बाहर पानी के मग लिए कतार में खड़ी महिलाएँ कामुक नजरों और फब्तियों का शिकार बनती हैं।

 

सार्वजनिक परिवहन से यात्रा करने वाले कामकाजी वर्ग के अधिकाँश लोग अपने कार्यस्थल से निकलने से पहले दफ्तर के शौचालयों का इस्तेमाल करते हैं या फिर बहुत जरूरी हो तो रेस्त्राँ, पाँच सितारा होटल और दूसरी जगहों पर चले जाते हैं। ज्यादातर लोग कहते हैं की गन्दे और दुर्गन्धयुक्त सार्वजनिक शौचालय का कष्ट झेलने से अच्छा खुले में हल्का होना है।

 

geetanjali@governancenow।com

 

साभार : गवर्नेंस नाउ 1-15 सितम्बर 2014

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