वागेश्वर झा
यदि आप सोचते हैं कि यातायात के उच्चतम साधनों में से एक रेल में शौचालय की व्यवस्था तभी से है, जब इसकी शुरूआत हुई तो आपकी जानकारी अधूरी है। भारतीय रेल की शुरूआत सन् 1853 में उपनिवेशी शासकों द्वारा हुई। उनमें शौचालय की कोई सुविधा नहीं थी, विशेषकर लम्बी दूरी के रेल-यात्रियों को अत्यधिक परेशानी होती थी। सन् 1893 में रेल-यात्रियों की शिकायतों के बाद प्रथम श्रेणी के डिब्बे में शौचालय की सुविधा उपलब्ध कराई गई। साधारण व्यक्तियों की सुविधा के लिए द्वितीय एवं तृतीय श्रेणी के डिब्बे में इसके आरम्भ में लगभग दस साल और लग गए।
इन बेढ़ब शौचालयों के कारण रेल पटरियाँ और प्लेटफार्म गन्दे एवं बदबूदार हो रहे थे। इसमें सुधार हेतु कई प्रयत्न किए गए, लेकिन थोड़ा ही लाभ हुआ। नियमित रेल-यात्रियों के लिए यह अत्यन्त प्रसन्नता की बात थी कि इसके आरम्भ के लगभग 160 वर्षों बाद रेलवे-अधिकारियों ने अत्यन्त स्वास्थ्यवर्धक एवं वैज्ञानिक बायो-ट्वॉयलेटस उपलब्ध कराने की महत्त्वाकांक्षी परियोजना का सूत्रपात किया। सुलभ इंटरनेशनल म्यूजियम ऑफ ट्वॉयलेटस में आने वाले आगंतुक प्रायः हवाई-जहाजों तथा रेलों में शौचालय-व्यवस्था के लिए पूछताछ करते हैं। यहाँ संक्षेप में जैव-शौचालय (बायो-ट्वॉयलेट) के कार्य को समझाया गया है।
रेलवे एवं डी.आर.डी.ओ. के दीर्घ-कालीन संयुक्त अनुसंधान के बाद एक फॉर्मूला (सिद्धांत) विकसित किया गया। वैज्ञानिकों ने दक्षिणी ध्रुव (अंटार्कटिका) प्रदेशों का भ्रमण कर, वहाँ पाए जानेवाले एनेरॉबिक जीवाणुओं को एकत्र किया। वे इन्हें सियाचीन के ठंडे और राजस्थान-जैसे गर्म स्थलों में ले गए और पाया कि ये जीवाणु असामान्य प्रचंड जलवायु में भी जीतिव रह गए। इस प्रकार यह शोध एवं प्रयोग सफलतापूर्वक पूरा हुआ।
ये जैव-शौचालय शौचालय के नजदीक वाले डिब्बे की जमीन के नीचे लगाये जाते हैं।मानव-अपशिष्ट का निस्तारण उसमें होता है, जहाँ जीवाणुओं का ढेर क्रियाशील हो जाता है। परिणामस्वरूप मानव-अपशिष्ट जल एवं गैसों (मिथेन और कॉर्बनडाइऑक्साइड) की कुछ मात्रा में परिवर्तित हो जाता है।
इस प्रकार के शौचालयों में क्लोरीनेशन के पश्चात् गैस वातावरण में घुल जाती है और पानी का निस्ताारण नीचे पटरियों पर होता है। निस्संदेह यह पानी पटरियों पर नहीं ठहरता, अतः यह पटरी एवं प्लेटफार्म के साथ ही रेलवे-सफाई-कर्मचारियों के लिए भी अच्छा है।
जैव-शौचालय के साथ आरम्भ हुई प्रथम ट्रेन थी-ग्वालियर-वाराणसी-बुंदेलखण्ड-एक्सप्रेस, जो जनवरी 2011 में बन्द हो गई। अभी तक 3,748 डब्बों में जैव-शौचालयों की व्यवस्था की जा चुकी है। उम्मीद है कि शत-प्रतिशत सफलता अब दूर नहीं है और बदबूदार प्लेटफॉर्म और पटरियाँ बीते जमाने के अनुभव होंगे।
साभार : सुलभ इण्डिया अक्टूबर 2013