भारत में पिछले कुछ हफ्तों में स्वच्छता पर अनेक लेख प्रकाशित हुए हैं। इसी कड़ी में लंदन के ‘द इकोनोमिस्ट’ में दो लेख 21 अप्रैल, 2014 को ‘वाइ सैनिटेशन शुड बी सैकरेड’ और 19 जुलाई, 2014 को ‘द फाइनल फ्रन्टियर’ प्रकाशित हुए। इन्होंने स्वच्छता को वैश्विक चर्चा का विषय बनाया। आर्थिक विषयों पर छपने वाली प्रतिष्ठित पत्रिका ‘द इकोनोमिस्ट’ के अनुसार खुले में शौच से होनेवाला नुकसान केवल आर्थिक रूप से ही गंभीर नहीं, बल्कि जन-सुरक्षा की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि कई बार गांव में जब शाम ढले महिलाएं शौच के लिए जाती हैं तो वे न केवल हिंसक पशुओं की शिकार होती हैं, बल्कि कई बार उन्हें मानवीय क्रूरता मसलन छेड़खानी और बलात्कार जैसी घटनाओं से दो-चार होना पड़ता है।
खुले में शौच संक्रामक बीमारी को आमंत्रण देने जैसा है
जन-स्वास्थ्य महत्त्वपूर्ण है। समूहों में खुले में शौच करना स्वास्थ्य के प्रतिकूल है। फिर भी भारत में बहुत ज्यादा गरीबी और शौच-समस्या के निदान नहीं होने के कारण मैदानों, बगीचों, सड़कों तथा रेलवे-लाईन के किनारे शौच करना यहां के लोगों के लिए लाचारी है। उपयुक्त शौचालय के अभाव में प्रत्येक वर्ष लाखों बच्चे मल-मूत्रादि से उत्पन्न रोगों के कारण मर जाते हैं। जून से अक्टूबर तक बरसात के मौसम में भू-जल में शौच के मिलने से विभिन्न रोगों के फैलने का डर अधिक रहता है। इससे ‘इंसेफेलाइटिस’-जैसी बीमारी के फैलने का भी खतरा बढ़ जाता है। यह बीमारी प्रत्येक वर्ष मानसून के मौसम में भारत के उत्तरी भागों, यथा-उत्तर-प्रदेश, बिहार इत्यादि राज्यों में फैलती है। ऐसा तब होता है, जब बरसात के दिनों में लोग नदी या तालाब के किनारे शौच के लिए जाते हैं और गंदे पानी के कारण संक्रमण का शिकार होते हैं। बिहार में इंसेफेलाइटिस का कहर अन्य वर्षों की तरह इस साल भी हुआ है। केवल मुजफ्फरपुर और गया के विभिन्न इलाकों में 100 से अधिक बच्चों की मौत हुई है।
चार दशकों में 20 हजार से ज्यादा लोग मरे हैं
इंसेफेलाइटिस फैलने के अन्य कारणों में एक साफ-सफाई का अभाव भी माना जा रहा है। गंदगी की वजह से यह बीमारी एक-दूसरे से फैलती है। पिछले चार दशकों में इस बीमारी से बीस हजार से अधिक मौत हो चुकी है। सरकारी रिकॉर्ड में हर साल पांच-छह सौ बच्चे मरते हैं, जबकि हकीकत कुछ और है। उल्लेखनीय है कि इस बीमारी से लकवाग्रस्त हुए लोगों का कोई रिकॉर्ड ही नहीं रखा जाता है।
स्वच्छता और शौच की समस्या पर चर्चा हेतु विश्व बैंक एवं संयुक्त-राष्ट्र के आला अधिकारियों और वित्त-मंत्रियों ने पिछले महीने वाशिंगटन डी.सी. में बैठक की।
खुले में शौच करने से ‘इंसेफेलाइटिस’-जैसी बीमारी के फैलने का भी खतरा बढ़ जाता है। यह बीमारी प्रत्येक वर्ष मानसून के मौसम में भारत के उत्तरी भागों, यथा-उत्तर-प्रदेश, बिहार इत्यादि राज्यों में फैलती है। ऐसा तब होता है, जब बरसात के दिनों में लोग नदी या तालाब के किनारे शौच के लिए जाते हैं और गंदे पानी के कारण संक्रमण का शिकार होते हैं। बिहार में इंसेफेलाइटिस का कहर अन्य वर्षों की तरह इस साल भी हुआ है। केवल मुजफ्फरपुर और गया के विभिन्न इलाकों में 100 से अधिक बच्चों की मौत हुई है।
भारत में खुले में शौच की प्रथा की समाप्ति के लिए युनिसेफ ने एक अभियान की शुरुआत की है। एक ज्ञानवर्द्र्धक वीडियो चलाया गया, जिसका शीर्षक था-‘शौच करें शौचालय में’ (टेक द पू टू द लू)। इसमें समस्या को बखूबी दिखाया गया। सुलभ इंटरनेशनल सन् 1970 से यही कहता आ रहा है कि विश्व को स्वच्छ और स्वस्थ रखना है तो शौच के लिए शौचालय का उपयोग करें।
स्वच्छता-संबंधी रोग भी कम खतरनाक नहीं होते हैं। इसके कारण मरनेवालों की संख्या एड्स, कैंसर एवं तंबाकू से मरनेवालों की संख्या से कहीं अधिक है। इससे होनेवाले नुकसान, जैसे-लोगों की मृत्यु, कार्य पर न आ पाना, कम उत्पादकता इत्यादि बताए गए सरकारी आंकड़ों से कहीं अधिक है। भारत के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने भी इस बात पर बल दिया है कि ‘पहले शौचालय, फिर देवालय।’
पृथ्वी हमें ईश्वर-द्वारा एक उपहार के रूप में मिली है। हमें चाहिए कि हम इसका पूर्णतः ख्याल रखें एवं इसके संसाधनों का विवेकपूर्ण ढंग से प्रयोग करें। हमारा संपूर्ण विकास पृथ्वी से मिलनेवाले संसाधनों पर आधारित है, जो अनंत काल तक बचे नहीं रह सकते, यही सतत् विकास का मूल मंत्र है।
साभार : सुलभ इंडिया