स्वच्छता से सामाजिक परिवर्तन : विकास के रास्ते

अखिलेश आर्येन्द्रु

 

विश्व के विकसित देशों में विकास और आधुनिकता के जो मानक तय किये गए है, उनमें स्वच्छता का महत्त्वपूर्ण स्थान है। हम उन विकसित देशों के मॉडल को अपना कर आगे बढ़ने की बात तो करते हैं, लेकिन क्या उन मानकों को भी विकास और आधुनिकता में सम्मिलित करने के लिए तैयार हैं, विचार करने की आवश्यकता है। स्वच्छता का दायरा इतना विस्ततृ है कि इसे अमल में लाने के लिए कई स्तरों पर विचार करने की आवश्यकता है। मन, वाणी, कमर, शरीर, हृदय, चित्त, समाज, परिवार, संस्कृति और व्यवहार से लेकर धर्म और विज्ञान तक में स्वच्छता का विशेष महत्त्व है। या कहें, बिना स्वच्छता के जीवन, परिवार, समाज, संस्कृति, राष्ट्र, विश्व और चेतना के उच्च आदर्श को प्राप्त करने के लिए स्वच्छता प्रथम सोपान है। केन्द्र में नई सरकार बनने के बाद ऐसी अनेक योजनाएँ मिशन के रूप में कार्यान्वित करने का बीड़ा उठाया गया है जो सीधे-सीधे देश के प्रत्येक व्यक्ति से जुड़ी हुई हैं। ये योजनाएँ व्यक्ति से होती हुईं परिवार, समाज और देश के प्रत्येक क्षेत्र तक जुड़ती हैं। इसमें स्वच्छता मिशन भी एक है। स्वच्छता को लेकर केन्द्र सरकार कितनी गम्भीर है इसे हम अपने चारों ओर सरकारी, अर्द्ध-सरकारी और गैर-सरकारी कार्यों में देख सकते हैं।

 

केन्द्र सरकार के स्वच्छ भारत अभियान ने देश के प्रत्येक व्यक्ति को स्वच्छता की ओर उन्मुख किया है और स्वच्छता को जिन्दगी का हिस्सा बनाने के लिए प्रेरित भी किया है। केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के नवीन आँकड़ों पर दृष्टिपात करें तो हम पाएँगे देश के छोटे शहरों के बनिस्पत बड़े शहरों में अस्वच्छता या गन्दगी का फैलाव बहुत बड़े पैमाने पर है।

 

हमारे देश में 6 करोड़ टन कचरा हर वर्ष पैदा होता है और यह दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। इस 6 करोड़ टन कचरे में एक करोड़ टन कचरा केवल दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई, बंगलुरु और चेन्नई जैसे बड़े शहरों में पैदा हो रहा है। दिल्ली में अकेले 9000 मीट्रिक टन कचरा प्रतिदिन पैदा होता है। इसी प्रकार चेन्नई में 16 लाख टन, मुम्बई में 6.600 मिट्रिक टन, कोलकाता में 11 और हैदराबाद में 14 लाख टन कचरा हर साल पैदा होता है। इसी क्रम में पश्चिम बंगाल में 45 लाख टन और उत्तर प्रदेश में 42 लाख टन कचरा या कूड़ा पैदा होता है। हम इससे अनुमान लगा सकते हैं कि हमारे देश में विशेष कर बड़े शहरों में कचरे का साम्राज्य स्थापित हो चुका है।

 

विश्व में जिन 2.5 अरब लोगों के पास साफ-सफाई एवं स्वच्छता की सुविधा उपलब्ध नहीं है उनमें से एक-तिहाई भारत में रहते हैं। इतना ही नहीं दुनिया में जिन अरबों लोगों के पास शौच के लिए शौचालय नहीं है और मजबूरन उन्हें खुले में शौच जाना पड़ता है, उसमें से 60 करोड़ लोग भारत के ही हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत में स्वच्छता के प्रति कितनी लापरवाही और अरुचि है। यूँ तो, भारत में स्वच्छता और साफ-सफाई के प्रति लगभग तीन दशक पहले केन्द्र सरकार ने गाँवों में स्वच्छता को प्राथमिकता देते हुए 1986 में ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम का आरम्भ किया था लेकिन इसके लिए आवण्टित राशि उतनी नहीं थी कि यह कार्यक्रम प्रभावी ढँग से आगे बढ़ता। इस कमी को देखते हुए इसे 1999 में सम्पूर्ण स्वच्छता अभियान (टोटल सेनिटेशन कैम्पेन यानी टीएससी) में बदल दिया गया। इस अभियान के तहत घरों, पंचायत घरों, आँगनबाड़ी केन्द्रों एवं स्कूलों में शौचालयों का निर्माण कराने की प्राथमिकता दी गई। सरकारी योजनाओं की जो त्रासदी अमूमन देखने में आती है कुछ वैसा ही हश्र इस योजना का भी हुआ। इस योजना के तहत जो लक्ष्य हासिल करना था, वह नहीं किया जा सका। इसका कारण मुख्य रूप से भ्रष्टाचार, शासन-प्रशासन में इसके प्रति इच्छाशक्ति की कमी, आलस्य और अरुचि थी।

 

साफ-सफाई की आदतें और स्वच्छता के प्रति कर्तव्य भाव की दृष्टि से देखें तो समाज के विभिन्न वर्गों के बीच इस स्तर पर कोई अन्तर नहीं जान पड़ता है लेकिन वहीं स्वच्छता के पैमानों (जैसे कि कूड़े का फैलाव, पार्कों-सड़कों की सफाई) की बात करें तो निम्न आय वर्ग के लोगों के मोहल्ले ज्यादा बदनुमा दिखाई पड़ते हैं। तो वास्तव में सामाजिक स्थिति का रहन-सहन व साफ-सफाई की आदतों से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध है या नहीं? तर्क-वितर्क कई हैं लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि सामाजिक विषमता समग्र स्वच्छता के रास्ते में रोड़ा जरूर अटकाती है।

 

यही कारण है आजादी के 66 वर्षों के बाद भी स्वच्छता भारत की एक बहुत बड़ी सामाजिक ही नहीं, वैयक्तिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्या के रूप में आज भी माजैूद है। इसलिए इसे वृहद स्तर पर देखने और समझने की आवश्यकता है। जातिगत, वर्गगत, सम्प्रदायगत और समूहगत जो जटिलताएँ गाँवों या कमोबेश शहरों में भी मौजूद हैं, उसके तह में कहीं न कहीं विचारों और मान्यताओं का भी इसमें बहुत बड़ी भूमिका है। जाति, वर्ग और सम्प्रदाय से जहाँ लोगों की पहचान जोड़ी जाती हो वहाँ पर स्वच्छता और साफ-सफाई को भला कैसे सामूहिकता एवं सामाजिकता से जोड़ कर देखने की कोशिश होगी। जो नई पहल स्वच्छता को लेकर केन्द्र सरकार ने की है, इसकी सफलता को भी इससे जोड़कर देखा जाए तो कोई गलत नहीं होगा। उदाहरण के रूप में किसी विशेष जाति या सम्प्रदाय के घर या द्वार के सामने यदि कूड़ा, गन्दगी या मैला पड़ा है तो कोई भी अनजान व्यक्ति झट से यह कह देगा कि अरे, ‘ये लोग’ यानी इस जाति के लोग गन्दे रहते ही है। या यह ‘फलाँ जाति’ का है इसलिए गन्दगी करता है। वह इसके पीछे की समस्या या अन्य पक्षों पर वह ध्यान नहीं देगा, कि मानव होने के कारण इसके प्रति उसका क्या कर्तव्य बनता है कि वह उसे बताये और समझाये कि घर या द्वार अथवा पार्क के सामने गन्दगी और कूड़े से उसे किस-किस प्रकार की समस्या या जटिलताओं का सामना करना पड़ सकता है।

 

गाँवों की स्वच्छता और साफ-सफाई न होने की समस्या और शहरों में गन्दगी और कचरे की जो समस्या है, उसे उनके अनुसार ही देखने की आवश्यकता है। भारत के कुछ प्रान्तों केरल, मिजोरम, लक्षद्वीप और सिक्किम में स्वच्छता अब कोई मुद्दा नहीं है, क्योंकि वहाँ स्वच्छता के मामले में शत प्रतिशत सफलता प्राप्त की जा चुकी है, लेकिन बाकी जगहों पर यह एक बहुत विकट समस्या है। भारत के बड़े शहरों में स्वच्छता एवं साफ-सफाई करना और शहरों को स्मार्ट सिटी या पूर्ण स्वच्छ शहर बनाने की पहल सरकारी स्तर पर और स्वयंसेवी संस्थाओं के द्वारा वर्षों से की जा रही है। लेकिन यह एक ‘सरकारी काम’ या सरकारी कार्यक्रम से अधिक आगे नहीं बढ़ पाया है। इसका कारण यह है कि लोगों को स्वच्छता के प्रति सोचने की नजरिया, धारणा और रुचि अलग-अलग तरह की है।

 

उदाहरण के लिए पार्क में कूड़ा, गन्दगी या कचरे का ढेर लगाने वाले लोग उन्हें माना जाता है जो अत्यन्त गरीब तबके से ताल्लुक रखते हैं। मतलब, गन्दगी धनी वर्ग नहीं फैलाता बल्कि घटिया जीवन-शैली में रहने वाले इसके जिम्मेदार हैं। यदि यह मान भी लिया जाए तो पार्कों, गलियों और सड़कों पर कुत्तों द्वारा की गई गन्दगी कराने वाला वर्ग कौन-सा है? सीधी सी बात है, कुत्तों की गन्दगी उस वर्ग द्वारा फैलाई जाती है जो वर्ग पार्कों में कूड़े और कचरे फैलाने का दोष गरीब वर्ग के लोगों को देता है। मतलब, शहरों में गन्दगी केवल स्लम बस्तियों तक सीमित नहीं है या झुग्गियों में रहने वाले केवल गन्दगी फैलाने के दोषी नहीं है बल्कि समाज का हर वर्ग अपने स्तर पर गन्दगी फैलाने का दोषी है। मतलब, हर व्यक्ति अपनी सहुलियत के अनुसार स्वयं को दूसरों से बेहतर या स्मार्ट होने का दावा करता है। स्वच्छता न होने की समस्या यहाँ है।

 

शहरों में गन्दगी केवल स्लम बस्तियों तक सीमित नहीं है या झुग्गियों में रहने वाले केवल गन्दगी फैलाने के दोषी नहीं है बल्कि समाज का हर वर्ग अपने स्तर पर गन्दगी फैलाने का दोषी है। मतलब, हर व्यक्ति अपनी सहूलियत के अनसुार स्वयं को दूसरों से बेहतर या स्मार्ट होने का दावा करता है। स्वच्छता न होने की समस्या यहाँ है।

 

भारत में स्वच्छता के प्रति लोगों की घटिया मानसिकता का उदाहरण एक नहीं अनेक हैं। यही कारण है ‘ब्रिक्स’ देशों में स्वच्छता के मामले में भारत सबसे फिसड्डी है। शहरों में आमतौर पर स्वच्छता का मापदण्ड केवल और केवल घर की चहारदीवारी से बाहर नहीं है। घर का गन्दा पानी हो, कूड़ा हो, कचरा हो या कुत्ते की गन्दगी हो उसे घर से निकाल कर सड़क, गली या पार्क में फेंक दिया जाता है, जैसे सड़क, गली या पार्क गन्दगी डालने के लिए ही बनाए गए है। लोग यह मानते हैं कि घर से गन्दगी या कूड़ा निकालकर सड़क, गली या पार्क के अन्दर फेंकने तक ही उनकी जिम्मेदारी है, बाकी का कार्य शासन और प्रशासन द्वारा लगाए गए कर्मचारियों का है। मतलब, वातावरण को, सड़क, पार्क और गली को स्वच्छ रखने की न तो उनकी जिम्मेदारी है और न तो जवाबदेही ही और घर से उनके द्वारा बाहर फेंके गये कूड़े, कचरे या गन्दगी से होने वाली बीमारी की जवाबदेही भी उनकी नहीं बनती बल्कि यह भी शासन-प्रशासन की है। मतलब, गन्दगी या कूड़ा फैलाकर वातावरण को प्रदूषित करने या बीमारी फैलने के प्रति कभी न तो सोचने की जहमत उठाई और न तो इसके प्रति कभी अपनी जिम्मेदारी को ही समझा।

 

विषमता : अस्वच्छता का बड़ा कारण

 

भारतीय समाज में विषमता इतने अधिक पैमाने पर है कि हम सहज रूप से प्रत्येक विषय पर ध्यान भी नहीं दे पाते हैं। यदि सभी लोग अपने दायित्वों का पालन ठीक ढँग से करें तो इसमें से कई विषमताएँ समाप्त या कम हो सकती हैं। विषमता के कारण ही स्वच्छता एक चुनौती बनी हुई है। यह विषमता जहाँ सामाजिक, साम्पद्रायिक, सांस्कृतिक है वहीं पर इसका बहुत बड़ा कारण आथिर्क भी है। निम्न आय वर्ग के लोगों के सामने ही स्वच्छ जल और घर में शाचैालय न होने की आमतारै पर समस्या देखी जाती है, यह 2011 की जनगणना से भी साबित हो गया है। हालाँकि गाँवों में शौचालयों के प्रति एक अलग ही सोच है। जिन परिवारों में शौचालय है उनमें से एक या दो व्यक्ति खुले में शौच के लिए इसलिए जाते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है बाहर शौच जाने से उन्हें स्वच्छ और खुली हवा में टहलने के लिए मिल जाएगा। ऐसे में शौचालय गन्दगी समाप्त कराने का एक मानक बन सकता है, कहना मुश्किल है। स्वतंत्रता का जो अर्थ भारत के लोगों में बना है वह यह कि अच्छा, बुरा, फायदा-नुकसान या और जो भी करो उसके लिए कोई किसी भी स्तर पर पाबन्दी नहीं है। यही कारण है कि लोग गन्दगी, कूड़ा या कचरा फैलाकर भी स्वयं ‘सभ्य मानव’ के रूप में समझते हुए सीना तानकर चलते हैं। वायुमण्डल, समाज, सड़क, जल, पृथ्वी और संस्कृति के प्रति अपना क्या फर्ज है, इस पर कभी सोचने की जहमत भी नहीं उठाते हैं। यानी हर स्तर पर, हर तरह की जिम्मेदारी शासन, प्रशासन और स्वयंसेवी संस्थाओं को माना जाता है।

 

सरकार की ताजातरीन स्वच्छता की पहल जहाँ विकास की धारा को आगे बढ़ाने में कारगर साबित होगी वहीं पर सामाजिक परिवर्तन के लिए भी मील का पत्थर साबित हो सकता है लेकिन यह केवल केन्द्र सरकार की एक योजना या पहल अथवा महज अभियान ही बन कर न रह जाए।

 

घर में बेहतरीन शौचालय के स्थान पर एक बढ़िया वाहन की प्राथमिकता झोपड़ी वाला भी देता है और शान-शौकत से रहने वाला भी। ऐसे में स्वच्छता के प्रति हम कैसे स्वयं को समपिर्त कर पाएँगे, यह समझने की आवश्यकता है। यह भी विचार करने की जरूरत है कि स्वच्छता के प्रति हमारी सामाजिक भागीदारी भी है और हम स्वच्छता के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं, जितना सरकारी या अर्द्ध-सरकारी कमर्चारी। क्या यह विचार करने की बात नहीं है कि जिस वायु पर हमारा जीवन आधारित है उसे हम गन्दी करने में क्यों संकोच नहीं करते। वेद में वैज्ञानिक व्याख्या में कहा गया है कि हम मल, मूत्र और अन्य चीजों से दिनभर जितनी गन्दगी फैलाते हैं, उसे समाप्त करने के लिए प्रतिदिन सुगँधित जड़ी-बूटियों से हवन करना हमारा दैनिक कर्तव्य है, ऐसा न करना पाप है। यानी प्रकृति को गन्दा करके स्वच्छ न करना भारतीय संस्कृति में पाप माना गया है। विदेशों में चाहे सरकार का बड़ा अफसर हो, मंत्री हो या साधारण व्यक्ति सभी में स्वच्छता के प्रति एक ही दृष्टिकोण पाया जाता है कि गन्दगी को वहाँ फेंके जहाँ फेंकने का इसका स्थान है, या गन्दगी करके भाग खड़े न हों बल्कि उसे सही जगह पर ही विसर्जित करें। हमें भी क्या सरकार या संस्थाओं पर स्वच्छता की जिम्मदेारी न डालकर अपने कर्तव्य को ठीक से निभाने के लिए आगे नहीं आना चाहिए?

 

अस्वच्छता : एक बड़ा मुद्दा

 

विकास का जो दृष्टिकोण भारत में आजादी के बाद से समाज में विकसित हुआ वह अत्यन्त एकांगी और संकुचित है। विकास का मतलब अच्छा भोजन, अच्छा पानी, अच्छा वाहन और अच्छा घर ही माना जाता है। विकास का मतलब स्वच्छता, कर्तव्यों का पालन और सहयोग की भावना नहीं स्वीकार किया गया। अच्छी सड़कें तो सभी चाहते हैं लेकिन उसकी साफ-सफाई का दायित्व कभी स्वयं पर नहीं डालना चाहते। सड़कों पर गन्दगी करना जैसे हमारा पुनीतकर्तव्य बन गया है। इसी तरह छोटे मार्गों, गलियों, पार्कों, सार्वजनिक स्थानों और अन्य उपयोगी स्थानों को हम गन्दा करके उसे साफ करना नहीं सीखा। यही कारण है कि शहरों में नइ-नई बीमारियाँ रोजाना पैदा हो रही हैं। एक आँकड़े के मुताबिक यदि भारत की सड़के, छोटे मार्गों, गलियों, खेल के मैदान, पार्कों और अन्य सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ बना दिया जाए तो होने वाली बीमारियाँ एक चौथाई से भी कम रह जाएँगी। इसी तरह यदि गाँवों और शहरों में पीने का स्वच्छ पानी मुहैया करा दिया जाए तो आधी बीमारियाँ खत्म हो सकती है। इसी तरह सार्वजनिक स्थलों से गन्दगी का साम्राज्य खत्म कर दिया जाए तो करोड़ों लोग टीबी, कैंसर, बुखार, चर्मरोग, श्वास रोग, हडडी रोग और मानसिक रोगों से बचाए जा सकते हैं। सरकार का ताजातरीन स्वच्छता की पहल जहाँ विकास की धारा को आगे बढ़ाने में कारगर साबित होगी वहीं पर सामाजिक परिवर्तन के लिए भी मील का पत्थर साबित हो सकता है लेकिन यह केवल केन्द्र सरकार की एक योजना या पहल अथवा अभियान ही बन कर न रह जाए।

 

स्वच्छता के प्रति हमारी लापरवाही, गैर-जिम्मेदारना नजरिया और अपने कर्तव्यों का संकुचित दृष्टिकोण का परिणाम यह देखने को मिल रहा है कि देश की पवित्र नदियाँ, नहरें और झीलें सभी प्रदूषित हो गईं हैं। गंगा, यमुना, कोसी, घाघरा, ब्रह्मपुत्र, गोमती और अन्य नदियाँ इस कदर प्रदूषित हो गईं हैं कि इनका पानी स्नान करने लायक भी नहीं रह गया है। जिन नदियों को हम माँ, जीवनदायिनी और कृषि का आधार मानते रहे हैं आज उनका पानी किसी काबिल नहीं रह गया है। राजधानी दिल्ली का पानी पीने के काबिल नहीं रह गया है। चण्डीगढ़ स्थित लेबरेटरी के परीक्षण के मुताबिक दिल्ली में जमीन के नीचे के पानी में क्लोराइड की मात्रा तय सीमा से बहुत अधिक 1000 गुणा तक पाया गया। इसी तरह कैल्शियम, मैग्नीशियम, कॉपर, सल्फेट, नाइट्रेट, फ्लोराइड, फेरिक (लोहा) और कैडमियम की मात्रा लगातार बढ़ती जा रही है। इन तत्त्वों से युक्त पानी पीने से हृदयघात, किडनी पर बुरा असर, लीवर का संक्रमण, गैस्ट्रिक कैंसर, दाँत सम्बन्धित बीमारियाँ, नर्वस सिस्टम पर बुरा असर, त्वचा सम्बन्धी रोग, तनाव, अस्थमा, थॉयरायड, हृदय सम्बन्धी रोग, डायरिया और आँख सम्बन्धी अनेक समस्याएँ बहुलता से देखी जा रही हैं।

 

स्वच्छता, विकास तथा जनसंख्या

 

अस्वच्छता या गन्दगी की एक बड़ी वजह बढ़ती जनसंख्या और घनी आबादी है। एक शोध के मुताबिक देश की आधे से अधिक आबादी घोर गन्दगी या प्रदूषित स्थानों पर जीवन-बसर करने के लिए मजबूर है। इसलिए इस ओर ध्यान देने की जरूरत है कि जिन मुहल्लों या गाँवों की आबादी अधिक है या घनी बसी हुई है वहाँ पर स्वच्छता की ओर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। देखने में यह भी आया है कि ऐसे स्थानों पर लोग अधिक बीमार होते हैं और विकास की धारा भी यहाँ बहुत मद्धिम होती है।

 

यदि भारत की सड़कें, छोटे मार्ग, गलियाँ, खेल के मैदान, पार्क और अन्य सार्वजनिक स्थानों को स्वच्छ बना दिया जाए तो होने वाली बीमारियाँ एक चैथाई से भी कम रह जाएँगी। इसी तरह यदि गाँवों और शहरों में पीने का स्वच्छ पानी मुहैया करा दिया जाए तो आधी बीमारियाँ खत्म हो सकती हैं।

 

अधिक आबादी वाले स्थानों पर अधिकांशतः ऐसे परिवार रहते है। जिनकी आय कम होती है, जो किसी तरह जीवन-बसर करते है। इसलिए स्वच्छता की ओर इन्हें अधिक जागरूक करने की आवश्यकता है। दूसरी बात स्वच्छता को विकास से सीधे जाड़ने की जरूरत है। इस विकास को सीधे तौर पर सामाजिक परिवर्तन से जोड़कर देखा जाना चाहिए। उदाहरण के तौर पर दिल्ली के कम विकसित इलाकों में रहने वाले परिवारों की, गलियाँ, सड़के और सार्वजनिक स्थलों पर पॉलीथीन और दूसरे गन्दी चीजें अधिक फेंकी हुई दिखाई पड़ती हैं। दिल्ली में गन्दी पॉलीथीन, कूड़ा और कचरा एक बहुत बड़ी समस्या है। जो कूड़ा दिल्ली में निकलता है उसका रिसाइक्लिंग आधा भी नहीं हो पाता है। इस कारण से दिल्ली में कूड़े-कचरे से होने वाला प्रदूषण अन्य शहरों की अपेक्षा बहुत अधिक है। इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है।

 

भारत में जनसंख्या का अनुपात पिछले 10 वर्षों में मध्यम गति से तेजी के साथ बढ़ा है। इसकी वजह से शहरों में अनेक घनी बस्तियाँ बसी हैं जहाँ पर स्वच्छता और विकास दोनों पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। गाँवों से आई यह आबादी शहरों में बिना किसी रहवास प्रशिक्षण के रहती है जिससे वह गन्दगी में जीने के लिए अभिशप्त होती है। इस तरफ ध्यान देने की आवश्यकता है।

 

स्वच्छता : एक जीवन-शैली

 

स्वच्छता मानव की एक आदर्श जीवन-शैली है, इस विचार और धारणा को भारत में अभी दृढ़ता के साथ स्थापित करने की आवश्यकता है। अभी तक हम सभी की मानसिकता यह रही है कि ‘गन्दगी फैलाने वाला बड़ा और गन्दगी साफ करने वाला नीच या छोटा है।’ गांधीजी अपने हाथों से कच्चा शौचालय स्वयं साफ करते थे क्योंकि वे मानते थे कि मानव, मानव का मल उठाए यह अमानवीयता है। अपनी गन्दगी दूसरों से साफ करवाना और साफ करने वाले को अछूत मानना स्वच्छता के प्रति हमारी विद्रूप मानसिकता नहीं तो क्या है। यह मानवता के प्रति भी एक बड़ा अक्षम्य अपराध है। यह ऐसी सामाजिक समस्या है जिसे गहराई से समझने की आवश्यकता है।

 

देश में 95 करोड़ लोगों के पास मोबाइल फोन है लेकिन शौचालय का उपयोग करने वालों की संख्या महज 40 करोड़ ही है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में लगभग 26 लाख कमर्चारी सूखे शौचालयों को साफ करने वाले हैं, जिनकी समाज में कोई हैसियत नहीं है।

 

गाँवों में आज भी चाहे धनी व्यक्ति हो या निर्धन स्वच्छता को प्राथमिकता के रूप में नहीं देखता है। शहरों में भी स्वच्छता प्राथमिकता नहीं है। उदाहरण के तौर पर देश में 95 करोड़ लोगों के पास मोबाइल फोन है लेकिन शौचालय का उपयोग करने वालों की संख्या महज 40 करोड़ ही है। 2011 की जनगणना के अनुसार देश में लगभग 26 लाख कमर्चारी सूखे शौचालयों को साफ करने वाले हैं, जिनकी समाज में कोई हैसियत नहीं है। कहने का मतलब यह है कि स्वच्छता को जब तक जीवन का अंग नहीं बनाया जाएगा और साफ-सफाई करने वाले या मैला उठाने वालों के प्रति हमारा मानवीय दृष्टिकोण विकसित नहीं होगा, हम विकसित होकर भी पिछड़े रहेंगे। आज जरूरत यह है मैला उठाने की अमानवीय प्रथा का हमेशा के लिए खात्मा हो जाए।

 

स्वयंसेवी संस्थाओं की भूमिका

 

स्वच्छता को चुनौती मानकर स्वयंसेवी संस्थाएँ इस ओर एक बड़ा कार्य कर सकती हैं। प्रधानमन्त्रीजी की पहल पर इस काम में अनेक स्वयंसेवी संस्थाएँ, देश के नामचीन लोग और समूहों ने आगे आकर अपना योगदान देने का संकल्प लिया है। प्रत्येक सांसद, क्षेत्रीय राजप्रतिनिधि और अन्य लोग इस कार्य में अपनी भूमिका निभा सकते हैं। इस समय देश में 32 लाख स्वयंसेवी संस्थाएँ है। इसमें से पाँच सौ से अधिक स्वच्छता और इससे लगे अन्य कार्यों में कार्य कर रही हैं। इसी तरह बीमारियों, पर्यावरण प्रदूषण, शिक्षा, जागरूकता और निर्धन परिवारों में काम करने वाली हजारों स्वयंसेवी संस्थाएँ कार्य करती हैं। ये एनजीओ स्वच्छता अभियान में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। इससे जहाँ देश में स्वच्छता के प्रति जागरूकता आएगी वहीं पर विकास की धारा भी आगे बढ़ेगी। गौरतलब है गरीब परिवारों में जहां स्वच्छता के प्रति जागरूकता कम है या समय नहीं है वहाँ लोगों के स्वास्थ्य में सुधार लाकर उनकी आमदनी बढ़ाई जा सकती है। इससे इन परिवारों में हर स्तर पर परिवर्तन आएगा।

 

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


ईमेल : akhilesh.aryendu@gmail.com


साभार : योजना जनवरी 2015

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