स्वच्छता मिशन: व्यक्तिगत इच्छाशक्ति के साथ उत्तरदायित्व जरूरी

डॉ. बिन्देश्वर पाठक

 

भारत जैसे विशाल देश जिसकी सामाजिक व्यवस्था पाँच हजार साल से भी पुरानी है परन्तु आज भी छुआछुत की मानसिकता बनी हुई है। अम्बेदकर ने भी स्पष्ट कहा था कि कानून के द्वारा दासता को भले ही अमरीका से मिटाया जा सकता हो परन्तु भारत में अछूतों को तब तक सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं होगी जब तक समाज में अन्य व्यक्तियों के साथ उनका मिलना-जूलना नहीं होगा। वह यहाँ समस्याओं की बात तो की जाती है पर जब समाधान करने की बात आती है तो इसकी जिम्मेवारी हम आज की सरकार के ऊपर छोड़ देते हैं। अगर समस्याओं के समाधान की इच्छा हो और उस ओर काम करने का जोश हो तो कठिन से कठिन समस्याओं का भी समाधान हो सकता है।

 

सुलभ ने इसी बात को ध्यान में रखते हुए एक ऐसी तकनीक का प्रयोग किया है जो अस्पृश्यता को दूर करने में मील का पत्थर साबित हो रही है। इसके तहत बकेट टॉयलेट को, जो जमाने से चलता आ रहा था, सुलभ शौचालय में परिवर्तित कर समाज के अस्पृश्य कहे जाने वाले समुदाय को ऐसे निम्न कार्य से मुक्त कराया।

 

आश्चर्य की बात है कि सरकार में सामाजिक सुरक्षा से जुड़े मन्त्री ज्यादातर अनुसूचित जाति से आए, पर वे शायद ही अस्पृश्य कहे जाने वाले लोगों की स्थिति में सुधार के लिए सक्रिय हुए और तो और ऐसे लोगों को प्रशिक्षण के दौरान 1985 में जहाँ 250 रुपए मिलता था इसे 1991 में और बढ़ाने के बजाए घटाकर 150 रुपए कर दिया। जब मैंने इस विभाग के तत्कालीन मन्त्री सीताराम केशरी को इस सम्बन्ध में बताया तो उन्होंने कहा कि आपको समाजसेवी संस्था चलाते हैं, आप अपना काम करें और सरकार पर यह काम छोड़ दें।

 

वर्ष 2003 में बीबीसी की एक टीम भारत आयी और नई दिल्ली में ऐसे लोगों पर उसने एक शोध कार्य चलाया। भारत से जाने से पहले उस टीम ने मुझसे कहा कि हम एक वर्ष बाद यहाँ आयेंगे और देखना चाहेंगे कि इनकी स्थिति में कितना सुधार हुआ। सुलभ ने इसे चैलेंज के रूप में लेते हुए अलवर टाउन में ही एक संस्था की स्थापना की और अस्पृश्य समाज के बच्चों को इसमें दाखिला लेने के लिए एक कैम्पेन चलाया, आरम्भ में कुछ विरोध के बाद धीरे-धीरे इसमें बच्चे आने लगे और उन्हें अंग्रेजी और हिन्दी पढ़ना-लिखना सिखाया। फिर हमने इनके साथ कुछ बड़े होटलों में प्रेस कॉन्फ्रेंस भी किया तथा दिल्ली में कई जगहों पर इन्हें सम्मानित भी किया गया। ऐसे कार्यों से उनके अन्दर एक आत्मविश्वास जगा। ये बच्चे और इनके माता-पिता इतने खुश थे कि उन्हें कहना पड़ा कि हम सपने में भी नहीं सोचे थे कि इनमें इतना परिवर्तन आ सकता है और ये इतने सम्मान के हकदार हो सकते हैं।

 

समय के साथ समाज के हर वर्ग एवं जाति के लोगों की सोच में परिवर्तन आया एवं पण्डित और उनके परिवार के लोगों ने भी ऐसे समाज के लोगों के साथ उठना-बैठना प्रारम्भ किया। पहली बार सुलभ के प्रयासों से वाराणसी के दो सौ ब्राह्मण और उनके परिवार वालों के साथ ‘अस्पृश्य समाज’ के लोगों ने खान-पान किया।

 

यह कठिन कार्य था इसमें कोई संदेह नहीं है। स्वयं गान्धी जी के कथन से यह स्पष्ट हो जाता कि हम भारतीय (ज्यादातर उच्च समाज के लोग) अंग्रेजों की गोली खाने के लिए तैयार रहते हैं पर अस्पृश्य समाज के लोगों के साथ खान-पान को तैयार नहीं रहते हैं। हमारी यह अवधारणा हैं कि हम गलत हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ एक आन्दोलन कर रहे हैं, पर यह भी सच है कि समाज के समृद्ध उच्च वर्ण से झगड़ा कर आप जंग नहीं जीत सकते हैं। ‘सुलभ शौचालय’ क्रान्ति के मन्त्र से ओतप्रोत है और इसलिए हम कह सकते हैं कि यह शौचालय सामाजिक क्रान्ति का एक शक्तिशाली औजार भी है।

 

सरकार को सुलभ मॉडल पर आगे बढ़ने की आवश्यकता है लेकिन समस्या यह है कि जिस काम को करने में सुलभ को सालों लग गए उसे सरकार दो महीने में अपने निजी तौर-तरीके से करना चाहती है जो कतई संभव नहीं है।

 

वर्ष 1968 के समय तो शायद ही किसी गांव में शौचालय हुआ करता था। शौचालय नहीं होने के कारण लड़कियां स्कूल नहीं जाती थी या बहुत ही कम संख्या में जाती थीं, खुले में शौच के कारण बच्चे डायरिया-डिहाइड्रेशन आदि बीमारियों का शिकार होते थे। मेरी अपनी बहन की बेटे की मौत इसी कारण से हुई थी।

 

मैं जोर देकर कह सकता हूँ कि अगर सुलभ ने शौचालय का जो सुलभ और विकसित तकनीक निकाला है यदि वह नहीं निकालता तो मैला ढ़ोने की प्रथा आजतक समाप्त नहीं होती। बीबीसी ने भी सुलभ तकनीक को दुनिया के पाँच समकालीन महत्वपूर्ण आविष्कारों में से एक माना है।

 

हम प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी की योजना में हाथ बटाने के लिए सदैव तैयार हैं और इसके लिए हमने उन्हें एक पत्र भी लिखा है। कुछ पुराने शौचालयों को सरकार ने तोड़ने का लक्ष्य रखा है। उन्हें तोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं है, ऐसे शौचालयों को आसानी से सुलभ शौचालय में बदला जा सकता है। स्लम क्षेत्रों में कम्यूनिटी टॉयलेट की आवश्यकता है और इन्हें बनाने का जिम्मा सरकार को लेना चाहिए। गाँवों में शौचालय के साथ-साथ स्नानागार की की व्यवस्था भी होनी चाहिए, नहीं तो लोग शौचालय को ही बाथरूम के तौर पर इस्तेमाल करेंगे। शौचालय निर्माण को आर्थिक लाभ से भी जोड़ा जा सकता है। इससे लोग शौचालय बनाने में ज्यादा से ज्यादा उत्साह दिखाएंगे। जैसे यदि रोड साईड ढ़ाबों के समीप शौचालय बने तो लोग उससे आर्थिक उपार्जन भी कर सकते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग में चार से पाँच किलोमीटर के अन्तर पर शौचालय बनना चाहिए। इनसे भी आर्थिक उपार्जन हो सकता है। अन्त में किसी कार्य में फौलोअप एक्शन होना चाहिए और एक वर्ष के अन्दर कुछ खराब होने पर उसे तुरन्त मरम्मत करने का आदेश भी होना चाहिए।

 

आज खुद प्रधानमन्त्री शौचालय की बात कर रहे हैं, यहाँ तक कि आज के नौजवान भी शौचालय निर्माण के क्षेत्र में अपना भविष्य देख रहे हैं। सीएसआर की किसी भी योजना के सफल क्रियान्वयन के लिए सही पार्टनर चुनने की जरूरत है।

 

साभार : हेल्थ एंड एन्वाइरन्मेंट टाइम्स

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