डॉ. जॉन चेल्लादुरई
मध्य महाराष्ट्र के एक नवयुवक ने गाँधीजी का आशीर्वाद लेने के लिए उनके सेवाग्राम आश्रम में जाकर उनसे भेंट की। उस नवयुवक ने आईसीएस की प्रारम्भिक परीक्षा पास की थी। गाँधीजी ने उस नवयुवक से पूछा, तुम आईसीएस क्यों बनना चाहते हो? नवयुवक ने उत्तर दिया, भारत की सेवा करने के लिए। गाँधीजी ने उसे सलाह दी, गाँव में जाना और साफ-सफाई करना भारत की सबसे उत्कृष्ट सेवा है। और इसके बाद आईसीएस बनने के इच्छुक अप्पा पटवर्धन ‘सफाई’ की कला में विशेषज्ञता हासिल कर देश के बेहतरीन स्वाधीनता सेनानियों में शुमार हो गए।
स्वाधीनता संग्राम के विद्यालय में ‘सफाई’ ‘स्वच्छता’ आगे बढ़ने की परीक्षा थे। विनोबा भावे, टक्कर बाबा, जे.सी. कुमारप्पा और बेहद प्रतिभाशाली असंख्य नौजवान स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े और उन्होंने सफाई एवं स्वच्छता को स्वाधीनता की बुनियाद मान लिया।
सत्य के अन्वेषक के रूप में, गाँधीजी ने बहुत सतर्क जीवनशैली अपनाई और स्वच्छता को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की। राष्ट्रपिता होने के नाते, उन्होंने महसूस किया कि सफाई का राष्ट्र निर्माण में अपरिहार्य स्थान है और कहा, ‘स्वच्छता का स्थान ईश्वर के करीब है।’
विकास पहली आवश्यकता
विकास मानव सभ्यता का वफादार साथी रहा है। प्रागैतिहासिक आदिमानव से लेकर अत्याधुनिक शहरी मानव तक, हमने जीवन को काफी हद तक तात्कालिक बनाया है। विकास को उन्नति के रूप में देखा गया है, जो नवाचार जीवन के किसी भी पहलू में लाता है। मानव विकास का दृष्टिकोण वैयक्तिक कल्याण के समस्त पहलुओं को समाहित किए हुए है- खाद्य सुरक्षा, स्वच्छ एवं ताजी हवा, सुरक्षित पेयजल, स्वास्थ्य एवं सफाई, साधन तक पहुँच, इन सभी की निश्चितता के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एवं चयन की आजादी।
इनमें से विकास के अधिकांश घटकों को दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वालों के रूप में श्रेणीबद्ध किया जा सकता है, जैसाकि अब्राहम मैसलॉ ने कहा है। विकासशील समुदाय होने के नाते, हमने ऐसी व्यवस्थाएँ तैयार करने में काफी मशक्कत की है, जिससे हमने शारीरिक आवश्यकता के एक पक्ष, आपूर्ति पक्ष का ध्यान रखा है। दूसरे पक्ष, निपटान को सरासर नजरअंदाज किया है। निपटान विरले ही कभी विकास के एजेंडे की योजना में होता है।
जैसाकि एक कहावत में कहा गया है, ‘अच्छी शुरुआत आधी सफलता है।’ दूसरे हिस्से के बारे में कहावत में आगे कहा गया है ‘यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आप शुरुआत कैसे करते हैं, बल्कि महत्वपूर्ण यह है कि आप समापन कैसे करते हैं।’
मानवजाति जो पाक कला, विकास के उपकरण बनाने में माहिर है, उसे उसके गौण उत्पादों को निपटाने में भी महारत हासिल होनी चाहिए। दुखद बात यह है कि चाहे मानव मल हो, औद्योगिक कचरा, उपभोक्ता वस्तुओं सम्बन्धी कूड़ा-करकट हो या विकास सम्बन्धी कबाड़, मानवजाति ने अनिच्छापूर्वक ध्यान के अलावा सब कुछ देना जारी रखा है।
निष्क्रियता
इसके परिणामस्वरूप हमारे रेलवे स्टेशन, बस अड्डे, बाजार और तो और मन्दिरों के परिसर तक मक्खियों, मच्छरों और चूहों से भरपूर जंक यार्ड जैसे दिखते हैं। गाँधीजी ने इन्हें ‘बदबूदार माँद’ करार दिया था। हमने तो पवित्र गंगा को भी विशाल सीवर में परिवर्तित कर डाला है।
सार्वजनिक स्वच्छता के प्रति शहर के लोगों के बेरुखी भरे रवैये पर टिप्पणी करते हुए गाँधीजी ने कहा था, “यह सोच सुविधाजनक नहीं है कि लोग भारतीय बम्बई की सड़को पर निरन्तर इस खौफ के साये में चलते हैं कि बहुमंजिली इमारतों के बाशिन्दे उन पर थूक सकते हैं।” वे खुले में शौच करने को ‘असभ्यता’ के समान मानते थे, जिसके कारण अगर कोई ऐसे समय में गुजर रहा होता है, तो हम नजर फेर लेते हैं।
सत्य की अनुभूति
गाँधीजी के लिए, स्वच्छता सिर्फ एक जैविक आवश्यकता भर नहीं, बल्कि जीवनशैली, सत्य की अनुभूति का अभिन्न अंग थी। साफ-सफाई की उनकी समझ सत्य की सार्वभौमिक एकात्मकता के अहसास से उपजी थी। गाँधीजी जिन्होंने सत्य की ईश्वर के समान स्तुति की, उन्होंने पूर्ण, सर्वव्यापी सत्य को ऐसा शुद्ध पाया और इसलिए ‘स्वच्छता की बराबरी ईश्वर’ से कर डाली। उन्होंने ‘स्वच्छता’ को रचनात्मक कार्यक्रम की सूची में शामिल करते हुए उसे स्वाधीनता के अनिवार्य कदम का दर्जा दिया।
सत्य के इस अन्वेषक ने जीवन को सत्य की करीबी अभिव्यक्ति के रूप में देखा, इसलिए उन्होंने जीवन की सत्य अथवा ईश्वर के साथ बराबरी की। वे सभी प्रक्रियाएँ जो जीवन और उसके आचरण का अंग हैं, वे सत्य की अनुभूति का अंग भी हैं। इस अर्थ में, गाँधीजी का मानना था कि आंतरिक और बाहरी साफ-सफाई, स्वच्छता ईश्वर की अनुभूति के साधन हैं। “मैले शरीर और उस पर अशुद्ध मस्तिष्क के साथ हम ईश्वर का आशीर्वाद नहीं पा सकते। स्वच्छ शरीर किसी गन्दे शहर में वास नहीं कर सकता।”
गाँधीजी का मानना था कि आन्तरिक और बाहरी साफ-सफाई, स्वच्छता ईश्वर की अनुभूति के साधन हैं। “मैले शरीर और उस पर अशुद्ध मस्तिष्क के साथ हम ईश्वर का आशीर्वाद नहीं पा सकते। स्वच्छ शरीर किसी गन्दे शहर में वास नहीं कर सकता।”
स्वराज
भारत की आजादी के बारे में गाँधीजी के समग्र दृष्टिकोण ने उन्हें स्वराज प्राप्ति की भारत की कोशिशों में स्वच्छता के अनोखे स्थान का बोध कराया। इंडियन होम रूल के अधिकार की माँग करते हुए बाल गंगाधर तिलक ने हुंकार भरी, “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।” गाँधीजी के लिए स्वराज शब्द का निहितार्थ काफी गूढ़ था। उन्होंने यंग इंडिया में लिखा, “स्वराज एक पवित्र शब्द है, वैदिक शब्द है, जिसका आशय स्वशासन, आत्मसंयम है और समस्त प्रकार के नियंत्रण से मुक्ति नहीं है, जो अक्सर स्वतन्त्रता का आशय होता है।” ‘मेरे सपनों का स्वराज गरीब आदमी का स्वराज है।’
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के उद्घाटन के अवसर पर विशाल जनसमूह को सम्बोधित करते हुए उन्होंने उस गन्दगी का उल्लेख किया जिसने इस पवित्र शहर को ढक रखा है। “कोई भी भाषण हमें स्वशासन (स्वतन्त्रता) के लिए उपयुक्त नहीं बना सकता। सिर्फ हमारा आचरण है, जो हमें इसके उपयुक्त बनाता है।” स्वच्छता उनके लिए ‘स्वराज्य योजना’ थी।
यह ‘आत्मसंयम’ उन्होंने निजी और सार्वजनिक जीवन के व्यक्तिगत आचरण, जीवन के दैहिक और चिन्तन दोनों पहलुओं में उत्पन्न किया। निपटान की व्यवस्था का जिक्र करते हुए गाँधीजी ने कहा, स्वराज तब तक पूर्ण स्वराज नहीं होगा, जब तक प्रत्येक मनुष्य को जीवन की समस्त साधारण सुख-सुविधाओं की गारण्टी नहीं मिलती।
सफाई राष्ट्र निर्माण का कार्य
स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व करते हुए उन्होंने स्वाधीनता के पहलुओं की व्याख्या की और ‘स्वच्छ आचरण’ के महत्व पर प्रकाश डाला। इस सन्दर्भ में उन्होंने कहा, इससे पहले कि हम स्वशासन के बारे में सोचे, हमें कुछ आवश्यक परिश्रम करना होगा।
स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से गाँधीजी ने गाँवों की हालत को शोचनीय करार दिया। “हमारी गरीबी का एक प्रमुख कारण स्वच्छता की अनिवार्य जानकारी उपलब्ध न होना है। यदि गाँवों की साफ-सफाई में सुधार लाया जाए, तो लाखों रुपए आसानी से बचाए जा सकेंगे और लोगों की दशा में कुछ हद तक सुधार लाया जा सकेगा। बीमार किसान, स्वस्थ किसान जितनी मेहनत नहीं कर सकता।” इस आशय में उन्होंने कहा कि “स्वराज सिर्फ अंग्रेजी दासता से मुक्ति नहीं… बल्कि समस्त प्रकार की दासता से मुक्ति है।”
एक अन्य अवसर पर उन्होंने कहा, “स्वराज अनवरत श्रम और पर्यावरण की बुद्धिमानी से परिपूर्ण सराहना का फल होगा।”
सफाई महान आनन्द का कार्य
गाँधीजी ने अहिंसात्मक जीवन को ईश्वर की अराधना, सत्य के सबसे बेहतर साधन के रूप में देखा। उन्होंने जीवन की सेवा के प्रत्येक कार्य को ईश्वर के मार्ग के रूप में देखा। उन्होंने स्वच्छता को शुद्धता के कार्य के रूप में देखा और अपार आनन्द प्राप्त किया।
गाँधीजी के सचिव प्यारेलाल इस बारे में नोआखली का एक रोचक किस्सा सुनाते हैं, जहाँ गाँधीजी हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच सद्भाव कायम करने के लिए उसके कोने-कोने में जा रहे थे। वे लिखते हैं, यहाँ तक कि नोआखली के लिए भी वह ओस से बेहद गीली रात थी और जिस संकरे फुटपाथ पर गाँधीजी को चलना था उस पर बहुत फिसलन थी जब वे 19 जनवरी, 1947 को बादलकोट से अटाकरा रवाना हुए। मुश्किल कूच करने के आदि कर्नल जीवन सिंह दो बार सन्तुलन खो बैठे और लड़खड़ा गए। गाँधीजी ने हँसते हुए उनकी ओर अपनी लाठी का दूसरा सिरा बढ़ाया, ताकि वे फिसलन भरी ढलान से उठ सकें।
फुटपाथ बहुत संकरा था इसलिए उनके दल के लोग एक-एक करके ही आगे बढ़ सकते थे। अचानक इस टुकड़ी को रुकना पड़ा। गाँधीजी कुछ सूखी पत्तियों की सहायता से फुटपाथ से मल हटा रहे थे। कुछ साम्प्रदायिक शरारती तत्वों ने फुटपाथ को फिर से गन्दा कर दिया था। मनु ने पूछा, आपने मुझे क्यों नहीं करने दिया? आपने हम सभी को इस तरह शर्मसार क्यों किया? गाँधीजी ने हँसते हुए कहा, “तुम उस आनन्द के बारे में नहीं जानती, जो ऐसे काम करके मुझे प्राप्त होता है।”
ग्राम राज्य
गाँधीजी का मानना था कि समस्त प्राथमिक उपज, अन्न का केन्द्र गाँव ‘भारत का हृदय है।’ गाँवों के जीवन में भारत का जीवन है। इसलिए उन्होंने हिन्द-स्वराज-इंडियन होम रूल की बराबरी ‘ग्राम राज्य’ से की।
स्वतन्त्र भारत के ग्रामों की कल्पना करते हुए गाँधीजी ने कहा, “उस गाँव को उन्नत माना जाएगा, जहाँ उसकी प्रत्येक जरूरत के उत्पादन के लिए हर प्रकार के ग्राम उद्योग हों, जहाँ कोई निरक्षर नहीं हों, जहाँ की सड़के साफ हों, जहाँ शौच के लिए निर्धारित स्थान हों और जहाँ के कुएँ साफ हों।”
गाँधीजी ने प्रस्ताव किया, “एक आदर्श भारतीय गाँव का निर्माण इस रूप में किया जाएगा, कि वह अपने यहाँ पूरी तरह सफाई रख सके। उसके मकानों में पर्याप्त रोशनी और हवा होगी और उनका निर्माण पाँच मील के दायरे में मिलने वाली सामग्री से किया जाएगा।”
स्वच्छता के मामले का जवाब
सफाई की तकलीफों के जवाब में उन्होंने पेशकश की, प्रत्येक गाँव में एक स्थान पर बेहद सस्ते शौचालय (फ्लश वाले टॉयलेट) बनवाए जाने चाहिए।
इस पूरे विषय (स्वच्छता) का अन्वेषण नहीं किया गया है, यह व्यवसाय, बेहद स्वच्छ है, यह शुद्ध है, जीवनरक्षक है। हम लोगों ने ही इसे तुच्छ बनाया है। हमें इसे इसके वास्तविक दर्जे तक उठाना होगा।
गाँधीजी ने सत्याग्रह और रचनात्मक कार्यक्रम को एक ही सिक्के के दो पहलू करार दिया, एक के बिना दूसरे का कोई मतलब नहीं। गाँधीजी ने रचनात्मक कार्यक्रम के बीच एक अटूट सम्पर्क कायम किया, जैसे स्वच्छता और स्वाधीनता संग्राम देशभर में जाहिर था। शौचालय की सफाई और स्वच्छता का कार्य सत्याग्रही की योग्यता बन गए। हरेक जनसभा में, चाहे ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ सत्याग्रह का आह्वान हो अथवा सामाजिक सुधार की पहल हो, बैठक में ‘गाँव की सफाई’ एक अपरिहार्य शुरुआत होती थी।
असंख्य संस्थानों ने गाँधीजी के आह्वान को स्वीकार किया और ‘सफाई’ अभियान शुरू किया। ऐसा ही एक संस्थान अहमदाबाद का ‘सफाई विद्यालय’ था, जिसने इसे निष्ठापूर्वक अपनाया जो उल्लेखनीय है।
मैला ढोने वालों के नाम से जाना जाने वाला एक भारतीय वर्ग पीढ़ियों से पुराने किस्म के बॉस्केट टाइप (पानी रहित) शौचालयों से मल उठाने का काम करता आ रहा था और इसलिए उन्हें नीची निगाह से देखा जाता था। गाँधीजी इन लोगों की पीड़ा से बहुत चिन्तित थे, क्योंकि उन्हें लगता था इन लोगों को समाज में बिल्कुल निम्न समझा जाता है, जबकि वे सामुदायिक सफाई और स्वास्थ्य के सबसे महत्वपूर्ण कार्यों को अंजाम दे रहे हैं।
गाँधीजी की दृष्टि का अनुसरण करते हुए मैला ढोने वालों को इस तरह के कार्य से मुक्ति दिलाने के लिए हरिजन सेवक संघ ने 1963 में गुजरात के अहमदाबाद में साबरमती गाँधीजी आश्रम में सफाई विद्यालय की स्थापना की। सफाई विद्यालय के प्राथमिक उद्देश्यों में : सफाईकर्मियों और मैला ढोने वालों का उत्थान, ग्रामीण एवं शहरी स्वास्थ्य एवं स्वच्छता में सुधार शामिल थे।
निष्कर्ष
गाँधीजी ने सत्य की ईश्वर और अहिंसा की शैली के रूप में उपासना की। यह जीवन जीने की शैली है। शैली और लक्ष्य के बीच गाँधीजी का कहना था, क्योंकि पहले वाला मेरे नियन्त्रण में है, इसलिए मैं व्यावहारिक रूप से ‘शैली’ को ‘अन्त’ से ज्यादा महत्वपूर्ण मानता हूँ। उन्होंने कहा, ‘अगर आप साधनों’ का ध्यान रखेंगे, तो अन्त का ध्यान स्वतः ही रखा जाएगा। इस मायने में, एक राष्ट्र के रूप में वैश्विक मंच पर गौरव की ओर बढ़ने वाले भारत को खुद को शुद्ध एवं स्वच्छ बनाने के तरीके आजमाने होंगे और आखिर में ‘गौरव’ उसका अनुसरण करेगा।
उन्होंने कहा, “बसंत का वैभव प्रत्येक वृक्ष में जाहिर होता है और पूरी पृथ्वी यौवन की ताजगी से भर उठती है। जब स्वराज की भावना समाज में व्याप्त हो गई, तो हरेक वर्ग ऊर्जा से भर उठा।”
सन्दर्भ
1. ‘बियोंड इकोनॉमिक ग्रोथ: मीटिंग द चैलेंजिस ऑफ ग्लोबल डेवलेपमेंट’ बुक ऑन लाइन, अक्टूबर 06, 2004, http://www.worldbank.org/depweb/english/beyond/beyondco/beg_01.pdf, पेज 04
2. सीडब्ल्यूएमजी, खण्ड 13, पेज 213
3. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भाषण, सीडब्ल्यूएमजी खण्ड 13, पेज 213
4. कंस्ट्रक्टिव प्रोग्राम : इट्स मीनिंग एंड प्लेस, नवजीवन, अहमदाबाद, 1941
5. यंग इंडिया 19/11/1925
6. यंग इंडिया, 19-03-1931, पेज 38
7. आईबिड पेज 212
8. यंग इंडिया 26-03-1931, पेज 46
9. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भाषण, सीडब्ल्यूएमजी, खण्ड 13, पेज 213
10. शिक्षण अणे साहित्य, 18-08-1929, 41:295
11. यंग इंडिया, 12-06-1924, पेज 195
12. यंग इंडिया, 05-01-1922 और यंग इंडिया, 27-08-1925, पेज 297, एमओएमजी पेज 319
13. प्यारेलाल- द लॉस्ट फेज
14. लैटर टू मुन्नालाल शाह, 4-4-1941, 73: 421
15. हरिजन 18-08-1940
16. हरिजन 05-12-1936 64: 105
17. http://www.esi.org.in/about_history.htm
18. हरिजन 18-01-1924 पेज 4
लेखक गाँधीवादी विद्वान और गाँधी रिसर्च फाउंडेशन, जलगाँव, महाराष्ट्र में एसोसिएट डीन हैं।
अनुवाद : रीता कपूर
साभार : कुरुक्षेत्र अक्टूबर 2015