20 वीं सदी के प्रारम्भ में महात्मा गाँधी ने घोषणा की थी कि ‘भारत की आत्मा गाँव में निवास करती है।’ 2012 ईस्वी में भी देश की तस्वीर करीब-करीब वैसी ही है। यद्यपि गगनचुंबी इमारतें बनी हैं और गाँव के लोगों का शहरों की ओर बेतहाशा पलायन हुआ है। 2011 ईस्वी की जनगणना के अनुसार 68.84 प्रतिशत भारतीय देश के 640,867 गाँवों में ही निवास करते हैं। भारत में 236,004 गाँव ऐसे हैं, जहाँ की आबादी 500 व्यक्तियों से भी कम है, जबकि 3,676 गाँव की आबादी 10,000 व्यक्तियों से भी अधिक है। अन्य मुद्दे फिलहाल छोड़ भी दें, मात्र शौच जैसी बुनियादी जरूरत देखें तो स्थिति शोचनीय ही नहीं, लज्जास्पद भी है। आज भी 62.6 करोड़ भारतीय शौच के लिए रेलवे लाइन, सड़कों के किनारे, खाई तथा अन्य खुली जगहों का इस्तेमाल करते हैं, जिनमें अधिकता गाँव के निवासियों की ही होती है। इसी प्रकार भारत के 1,000 बच्चे प्रत्येक दिन डायरिया से मरते हैं, जिनमें 65 प्रतिशत बच्चे गाँव के होते हैं।
आज से कुछ वर्ष पहले तक भारत के स्वच्छ ग्राम-जीवन की प्रशंसा होती थी। पेड़-पौधों से आच्छादित हरे-भरे गाँवों में फसलों से लहराते खेत, कपड़ा बुनाई, दरी-बुनाई बर्तन निर्माण और अन्य कुटीर उद्योगों से ग्रामवासियों को जीविका के लिए पर्याप्त राशि उपलब्ध थी, अत्यन्त शांत और आनन्दित जीवन था। भारतीय स्वतन्त्रता-आन्दोलन से जुड़े अनेक नेताओं का परिवेश ग्रामीण जीवन ही था। गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने शांतिनिकेतन की स्थापना ग्रामीण परिवेश में ही की थी। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डाॅ. हरगोविन्द खुराना के पिता गाँव के पटवारी थे, उनका जन्म मुलतान जिले में हुआ था, जो अब पाकिस्तान में है।
देश में आज भी अनेक गाँव अच्छे-खासे स्वच्छ हैं। ‘डिस्कवर इंडिया’ नामक पत्रिका ने ‘मौलिनौंग’ नामक एक छोटे-से गाँव को, जो शिलौंग से 90 किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ियों के मध्य में बसा हुआ है, एशिया का सबसे स्वच्छ गाँव बताया है। दस वर्ष पूर्व तक पर्यटकों के लिए ‘मौलिनौंग’ अनजान था, अब यह बस्ती, जो मेघालय के पूर्वी खासी हिल की गोद में स्थित है, पर्यटकों के लिए आकर्षण बन गई है। जब कोई संकीर्ण और टेढ़े-मेढ़े रास्तों से गाँव तक पहुँचता है तो आश्चर्यचकित रह जाता है बाँस से निर्मित घरों को देखकर, जिनकी दीवारें काली-रोड़ी से पुती हुई सुन्दर दिखती है। सर्वत्र यथोचित स्थान पर कूड़ेदान रखे हुए होते हैं, जिनके भिन्न-भिन्न खंडों में कार्बनिक तथा गैरकार्बनिक कूड़ा-निष्पादन का संकेत रहता है। गाँव में धूम्रपान तथा प्लास्टिक थैली के उपयोग का निषेध है। ग्रामवासी स्वयं सार्वजनिक शौचालयों की सफाई करते हैं, गाँव की फुलवारी एवं सड़कों की सफाई एवं देख-भाल भी वे सब मिलकर करते हैं।
दूसरा रमणीय पर्यावरणीय मानकों से विभूषित गाँव, जिसे हरियाली ने अपनी चादर से ढँका हुआ है, कोमल बादल जिसे स्पर्श करते हैं तथा मंद वायु चूमती है, महाराष्ट्र के सांगली जिले में हतनूर नाम से प्रसिद्ध है। इसकी आबादी लगभग 5000 है। आदर्श-ग्राम की धारणा के तहत इसे बसाया और विकसित किया गया है। इसका विकास सांगली जिला-परिषद् सदस्य समाजसेवी इसे श्री सुभाष पाटिल के नेतृत्व में हुआ है। स्वच्छता एवं विकास की स्थायी निरंतरता के सिद्धांत निरन्तरता के सिद्धान्त पर विकसित किया गया है।
भारत के अनेक रमणीय एवं आदर्श गाँव हैं, जो स्वच्छता और विकास के प्रतीक हैं। परन्तु इस विशाल देश में ये गिने-चुने ही हैं और यह बात पर्यावरणविदों के लिए वस्तुतः अत्यन्त चितंनीय है। भारत-सरकार सतत प्रयत्नशील है कि सभी गाँव स्वच्छ एवं आदर्श बनें, यह और भी स्पष्ट हो जाता है केन्द्रीय मन्त्री श्री जयराम रमेश के इस कथन से कि देश में ‘मन्दिरों की अपेक्षा शौचालयों की अहमियत अधिक है।’
हाल में ही भारत-सरकार ने स्वच्छता एवं स्वास्थ्य-जागरूकता-अभियान ‘निर्मल भारत-यात्रा’ के तहत देश के पाँच बड़े राज्यों-महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तर-प्रदेश और बिहार में अनेक कार्यक्रमों का आयोजन किया।
यात्रा के दौरान तीन महत्वपूर्ण संदेशों को प्रचारित करने का संकल्प रहा-खुले में शौच का निषेध, हस्त-प्रक्षालन तथा महिलाओं के मासिक-धर्म के प्रति सामाजिक भ्रांतियों का निवारण। सक्रिय समाजसेवियों के जाग्रत्-दल ने गाँव-गाँव, विद्यालय-विद्यालय, लोगों तथा बच्चों के मध्य इन संदेशों को प्रचारित किया। सुलभ भी इस अभियान में अपनी सार्थक भूमिका निभा रहा है हाल में ही संस्था ने बड़े पैमाने पर पंजाब में शौचालयों का निर्माण-कार्य प्रारम्भ किया है। फिर भी चुनौतियाँ बड़ी हैं, अतएव ग्रामीण स्तर पर सभी को एकजुट होकर प्रयास करना होगा कि हर स्तर पर स्वच्छता और हरियाली देश में कायम रहे।
साभार : सुलभ इण्डिया नवम्बर 2012