सवाल दर सवाल

सदाशिव श्रोत्रिय

 

किसी मुहल्ले को साफ-सुथरा रखने का सवाल दरअसल इतना सीधा और आसान नहीं है, जितना हम उसे अक्सर मान लेते हैं। उसे साफ रख पाना उसमें रहने वालों की बहुत सी उन आदतों पर भी निर्भर करता है जिनका कि उनकी तार्किकता और समझदारी से कोई सम्बन्ध नहीं होता।


उदाहरण के लिए आप ऐसे किसी मुहल्ले को पूरी तरह साफ रखने की कल्पना नहीं कर सकते हैं जिसमें लोग हर सुबह कुत्ते को रोटी देने में या हर एकादशी को गाय को घास डलवाने में पुण्य का अनुभव करते हों या जिसमें फल-तरकारियों के डण्ठलों और छिलकों वगैरह का सही उपयोग उन्हें मुहल्ले में घूमते हुए पशुओं को खिलाना ही माना जाता हो। इस तरह के अभ्यास के चलते यह कैसे सम्भव है कि आपके मुहल्ले में कुत्ते, सुअर वगैरह न बने रहें और उनके वहाँ बने रहने पर यह कैसे सम्भव है कि आपके मुहल्ले उनके मल-मूत्र से गन्दे न किए जाते रहें?


अस्वच्छता, अव्यवस्था और दुर्गंध वगैरह के सम्बन्ध में लोगों के मापदण्ड, सहनशीलता और संवेदनशीलता में भी काफी अन्तर रहता है। यह पूरी तरह सम्भव है कि जिस वातावरण में किसी व्यक्ति ने अपनी पूरी जिन्दगी काट दी हो उसे कोई दूसरा एक सप्ताह के लिए भी बर्दाश्त नहीं कर पाए। जो लोग खुली हवा में रहने के आदी होते हैं उन्हें तंग जगहों में घुटन महसूस होती है जबकि भीड़ भरी जगहों में रहने के अभ्यस्त लोगों को खुली जगहें सूनी और असुरक्षित लगती हैं। जहाँ गन्दगी के निष्कासन का पूरा इन्तजाम नहीं होता वहाँ लोग गन्दगी और बदबू को जीने की एक आवश्यक शर्त के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। सौन्दर्यबोध का वह विकास जो व्यक्ति को सुन्दर और असुन्दर, व्यवस्थित और अव्यवस्थित और उत्कृष्ट या निकृष्ट में भेद कर पाने में समर्थ बनाता है बहुत-सी चीजों पर निर्भर करता है जिनमें प्रमुख तत्व को उपलब्ध सुविधाएँ और उसका स्वयं का सांस्कृतिक परिष्कार होते हैं।


मानव व्यवहार बड़ा विचित्र है और कई बार हमारा मुकाबला ऐसे व्यक्तियों से हो सकता है जो सफाई और व्यवस्था को जानबूझकर खत्म करने में मजा लेते हों या जो उसकी रक्षा के लिए जरा भी कष्ट उठाने या सावधानी बरतने के लिए तैयार न हों। हम आए दिन अपने यहाँ लोगों को कहीं भी थूकते, पीक उगलते या पेशाब करते देखते हैं। हम उन बहुत सी माताओं को जानते हैं जो अपने बच्चों को शौच के लिए खुले में कहीं भी बिठा देने में कोई संकोच नहीं करतीं। मुझे एक बार एक ऐसे महाविद्यालय में नौकरी का मौका मिला जिसमें कई विद्यार्थी कॉलेज भवन की दीवारों को पान की पीक से रंगते थे और कक्षा-कक्षों की छतों से लटके पंखों की पंखुड़ियों को मोड़ कर बेकार कर देने में विशिष्ट आनन्द का अनुभव करते थे। वहाँ मुझे एक ऐसे विद्यार्थी के बारे में बताया गया जिसे प्रतिदिन विद्यालय की एक कुर्सी या मेज तोड़कर नष्ट करने में मजा आता था। अपने मुहल्ले की कुछ निवासिनियों को मैं प्रतिदिन सुबह गलियों की सफाई के बाद नियमपूर्वक अपने घर की ऊपरी मंजिल से नीचे कचरा फेंकते देखता हूँ। नगरपालिका के कर्मचारी भी इस बात को जानते हैं पर उसके पार्षदों को मुहल्ले की सफाई से अधिक फिक्र शायद उनकी उस लोकप्रियता की रहती है जिस पर अगले चुनाव में उनकी जीत निर्भर रहती है।


जो सार्वजनिक है उसके प्रति भी वैसा ही लगाव और वैसी फिक्र विकसित कर पाना जैसी कि आप अपने घरों के भीतरी भाग के लिए रखते हैं। एक अत्यन्त विकसित नागरिकता-बोध की अपेक्षा रखता है जो कि निश्चय ही हमारे यहाँ अब तक अपनी शैशवावस्था में है। मैं आए दिन उन लोगों को देखता हूँ जो अपने घर में मर गए चूहे को खिड़की से बाहर गली में फेंक देने में कोई अपराध अनुभव नहीं करते। इस नागरिकता-बोध का विकास कानून को कड़ा बनाकर किया जा सकता है, लेकिन कानून का पालन भी तो लोग तभी कर सकते हैं जबकि आपने उन्हें वैसा करने के लिए सुविधा मुहैया करवाई हो। बगैर पर्याप्त मूत्रालय, शौचालय और गन्दगी के निष्कासन की एक भरोसेमन्द प्रणाली विकसित किए, किसी गाँव या नगर को साफ-सुथरा रखने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? हमारे देश की बढ़ती हुई आबादी को देखते हुए यह काम किसी बहुत बड़े बजट की अपेक्षा रखता है जिसे उपलब्ध करवाना किसी सफाई से बहुत ज्यादा प्रेम करने वाली या उसे अपनी प्राथमिकताओं में बहुत ऊपर रखने वाली सरकार के लिए ही सम्भव है। इस नजर से हमें ब्रिटिश शासन-काल में बसाए गए हमारे कुछ शहरों को गौर से देखने की आवश्यकता है जिनमें एक भूमिगत सीवरेज प्रणाली को शहरों की बसावट के लिए एक आवश्यक अंग के रूप में देखा गया था।


अपनी पिछली मुम्बई यात्रा के दौरान मुझे ‘खोताची वाड़ी’ नामक वह स्थान देखने की इच्छा हुई जिसके बारे में पर्यटन पुस्तकों में मैं कई बार पढ़ चुका था। चर्नी रोड स्टेशन से सेंट टेरेसा चर्च तक पैदल चलकर मैं एक दिन जब इसे खोजता हुआ वहाँ पहुँचा तो काठ के अधिकांश दुमंजिला घरों और तंग गलियों वाली इस बस्ती को देखकर मैं सचमुच मुग्ध हो गया। इस बस्ती की गलियाँ इतनी तंग हैं कि उनमें कार तो कार कोई ऑटोरिक्शा भी मुश्किल से ही घुस पाता होगा। पर इस बस्ती की ये तंग गलियाँ एकदम साफ सुथरी और दुर्गंधमुक्त थीं। कारण जानने की कोशिश करने पर मुझे पता चला कि इस बस्ती में रहने वाले स्वयं बराबर उसे साफ रखने की कोशिश में लगे रहते हैं।


'खोताची वाड़ी' को देखना मेरे लिए नाथद्वारा में अपने नई हवेली मुहल्ले के बारे में अपने स्वप्न को साकार होते देखने जैसा था। मैं 1998 में जब नाथद्वारा के इस मुहल्ले के अपने पैतृक मकान में रहने के लिए आया तब मैने इस बात की बहुत कोशिश की कि मैं अपने मुहल्ला-वासियों को इसकी गलियाँ साफ-सुथरी रखने के लिए प्रेरित कर सकूँ। पर जब मैंने स्वच्छता की इस समस्या की गहराई में जाने की कोशिश की तो मुझे तुरन्त इस बात का पता चल गया कि मैं अपने मुहल्ले को तब तक इसकी गन्दगी और बदबू से निजात नहीं दिला सकता जब तक कि इसमें रहने वाले अधिकांश लोग अपने घरों के शौचालयों की गन्दगी सीधे खुली नालियों में बहाने को विवश रहेंगे। 'खोताची वाड़ी' में रहने वाले लोगों की तरह उन्हें कोई भूमिगत सीवरेज लाइन उपलब्ध ही नहीं है जो उनके शौचालयों के मल को जमीन के नीचे ही नीचे उनके मुहल्ले के बाहर तक ले जा सके।


नाथद्वारा की नगरपालिका की हमारे मुहल्ले की सफाई के बारे में प्रतिबद्धता का अन्दाज मुझे इस छोटी सी घटना से हो गया कि लोक अदालत के माध्यम से मेरे द्वारा उस पर इसके लिए दबाव बनाने पर कि वह लोगों को फिलहाल उनके घरों में कोई सेप्टिक टैंक बनाने के लिए कहे, उसने जो नोटिस लोगों को दिया, उसमें इस बात का भी उल्लेख किया गया कि यह नोटिस नगरपालिका को उन्हें मेरी इस सम्बन्ध में शिकायत करने के कारण दिया जा रहा था। इसका सीधा मतलब यह था कि नगरपालिका खुद इस सम्बन्ध में कोई सख्ती करके लोगों की नाराजगी का खतरा मोल लेने के बजाय मुझे बलि का बकरा बना देने में अपना ज्यादा फायदा देख रही थी। 1998 में मेरे यहाँ आने से लेकर अब तक नगरपालिका ‘शीघ्र ही’ नाथद्वारा को एक सीवर लाइन से लैस कर देने का जो आश्वासन मुझे अब तक देती रही है उसके निकट भविष्य में पूरा हो जाने के कोई आसार मुझे आज भी नजर नहीं आते, जबकि इस नगर के ‘विकास’ के नाम पर इस बीच न जाने कितने ही करोड़ रुपए खर्च किए जा चुके हैं।


सफाई के मामले का सीधे लोगों की इच्छा से जुड़ा होने की मेरी बात अधूरी रह जाएगी अगर मैं यह न कहूँ कि अपने इसी मुम्बई प्रवास में जब एक बार मैं मुम्बई हाईकोर्ट के पीछे वाले (पूर्वी) हिस्से में स्थित बाहर से बहुत शानदार दिखाई देने वाले एक सुलभ कॉम्पलेक्स में पहुँचा तो मुझे यह देखकर बड़ी हैरानी कि वहाँ नियुक्त कर्मचारियों की उपस्थिति के बावजूद वहाँ के शौचालयों-मूत्रालयों की दशा अन्य सार्वजनिक सुविधाओं से कम शोचनीय नहीं थी। कोई स्थान केवल तभी साफ-सुथरा रह सकता है जबकि उस स्थान पर रहने वाले स्वयं उसे साफ-सुथरा रखने के लिए कृतसंकल्प हों। इस बात को गाँधीजी ने जितनी स्पष्टता से समझा था उतनी शायद उनके बाद कोई दूसरा नहीं समझ पाया।

 

साभार : जनसत्ता 18 जनवरी 2015

 

ईमेल : sadashivshrotriya1941@gmail.com

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