शुचिता- अन्तः और बाह्य

प्रो. रामजी सिंह

 

वेद से वेदान्त, श्रुति से स्मृति, शास्त्र से महाकाव्य तक भारतीय संस्कृति में शुचिता को धर्म का आधार ही नहीं, धर्म ही माना गया है। सांख्य आदि दर्शनों में “दुखत्रयभिधाता” या तीन प्रकार के दुखों में आधिभौतिक, आधिदैविक एवं आध्यात्मिक तीनों का समावेश है। शुचिता केवल भौतिक जीवन के लिए ही नहीं आध्यात्मिक और मानसिक जीवन के लिए भी अपरिहार्य है। इसलिए मनु ने अपने धर्म के 10 लक्षणों में शौच को स्थान दिया है। उस प्रकार सब-स्मृति पुराणों को धर्म माना है। इसी प्रकार दर्शन के क्षेत्र में महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में अष्टांगिक योग के निरूपण में दूसरे चरण यानि नियम में शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान में शौच को महत्वपूर्ण स्थान इसलिए दिया है कि शुचिता एक समग्र-साधना है जिसे हम “अन्तःशुद्धि” और “बहिर्शुद्धि” दोनों को समेट लेती है। शरीर एवं मन का परस्पर संयोग आवश्यक है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का आवास होता है। उसी प्रकार आध्यात्मिक साधना के लिए हमें शारीरिक, मानसिक क्रियाओं की संगति बैठानी होगी। सनातन धर्म ही नहीं प्रायः सभी धर्मों में ध्यान साधना के पूर्व यम-नियम या नैतिक और बाह्य (भौतिक) क्रियाओं जैसे प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान की साधना प्राप्त करनी होती है तभी समृद्धि या आध्यात्मिक साधना का अवसर आता है।

शुचिता के लिए केवल बाहरी शुचिता यानी स्नान, स्वच्छ घर, स्वच्छ वायु, स्वच्छ जल, स्वच्छ धूप, स्वच्छ आकाश ही नहीं बल्कि स्वच्छ मन भी आवाश्यक है। जहाँ रोग नहीं है। वहाँ मन भी एकाग्र करना कठिन हो जाता है।

शुचिता एक समग्र-साधना है जिसे हम “अन्तःशुद्धि” और “बहिर्शुद्धि” दोनों को समेट लेती है। शरीर एवं मन का परस्पर संयोग आवश्यक है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का आवास होता है। उसी प्रकार आध्यात्मिक साधना के लिए हमें शारीरिक, मानसिक क्रियाओं की संगति बैठानी होगी।

मनुष्य शरीर की रचना पंच-तत्व से हुई है। साथ-साथ इसका परिपालन भी होता है। अतः इन पर ध्यान रखना आवश्यक है जो व्यक्ति प्रकृतिक वातावरण में ज्यादा रहेगा, उसे प्रकृति का आशीर्वाद या प्राण तत्व भी अधिक प्राप्त होगा। जब शरीर सम्पोषित एवं स्वस्थ रहेगा, उसकी मानसिक साधना भी अच्छी रहेगी। जिस तरह मानसिक स्वास्थ्य के लिए शारीरिक स्वास्थ्य आवश्यक है, उसी प्रकार मन की एकाग्रता आदि के लिए सुन्दर स्वास्थ्य भी जरूरी है। जो व्यक्ति मन में रोग, द्वेष, क्रोध, अहंकार आदि को पालेगा तो वह मानसिक रूप से अस्थिर रहेगा। अतः शारीरिक स्वास्थ्य के साथ अन्तःकरण की शुद्धि आवश्यक है। आज विश्व में हैजे, मलेरिया आदि संक्रामक रोगों पर विजय भले ही पा ली गयी है। किन्तु मानसिक स्नावयिक बीमारियाँ जैसे कैंसर, मानसिक दुर्बलता आदि अनेकानेक बीमारियाँ बढ़ रही हैं। हम शारीरिक शुचिता और मानसिक शुचिता को अलग नहीं कर सकते।

शुचिता के समबन्ध में आधुनिक युग में जनसंख्या का जो विस्फोट हो रहा है वह अत्यन्त घातक है। धरती माता उतने को ही पाल सकती है जितनी उनकी शक्ति है। अतः आत्मनियन्त्रण सर्वोत्तम है। आज तो आत्मसंयम के बदले हम कृत्रिम उपाय से जन्म नियन्त्रण कर रहे हैं। इससे कई प्रकार की बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं और आत्मसंयम की शक्ति तो बहुत कमजोर हो जाती है। अतः वीर्य रक्षा या आत्मसंयम का रास्ता ही सर्वोपरि है। बचपन से ही यौन संयम की शिक्षा लड़के और लड़कियों के लिए अनिवार्य होनी चाहिए क्योंकि माता पिता सन्तान को यह नहीं बता पाते। विवाह की आयु को शिक्षा एवं कानून से नियन्त्रित किया जा सकता है। भारत में यह जनसंख्या का विस्फोट किसी भी योजना को चलने नहीं देगा। अतः साथ-साथ आत्म नियोजन और आत्म संयम जन-शिक्षण पर जोर दिया जाए। इससे भी भयानक वैश्विक खतरा पर्यावरण के बढ़ते प्रदूषण से है। प्रकृति अपनी सीमाओं में मानव जाति का पोषण करती है इसलिए उसका असीमित भोग या शमन नहीं कर सकते। आसमान की ओजोन छतरियों में छेद, पृथ्वी समुद्र के ताप में वृद्धि, जलवायु परिवर्तन आदि ढेरों समस्याएँ खड़ी हो गयी है इसके लिए जब तक आम आदमी के जीवन में सादगी नहीं आएगी पर्यावरण की रक्षा नहीं हो पाएगी।

युद्ध समाप्ति के साथ-साथ विश्व स्तर पर हमें अपनी आवश्यकताओं को कम करना होगा। आवश्यकताएँ यदि बढ़ेंगी तो हम प्रकृति का असिमित दोहन करेंगे और तब पर्यावरण का संकट अनिवार्य है।

गाँव की स्थिति तो शुचिता के मामले में इसलिए ज्यादा खराब है कि वहाँ घर के साथ शौचालय का प्रबन्ध नहीं के बराबर है। पुरुष एवं स्त्री दोनों बाहर झाड़ी-झुरमुट या खेत की आड़ या सड़क के किनारे शौच करते हैं और कोई व्यक्ति उधर से आता है तो उन्हें उठना पड़ता है। अतः राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान का ज्यादा जोर गाँवों पर होना चाहिए।

यह विश्व शान्ति की राजनीति और शान्ति का अर्थशास्त्र तथा शान्ति की रक्षा को अपनाकर होगा। इसके लिए अन्दर की शुचिता आवश्यक है। अन्तःकरण की शुचिता के बिना बाहरी शुचिता प्रभावकारी नहीं हो सकती। सफाई के सम्बन्ध में विचार में समग्रता की दृष्टि से इसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य की अवधारणा से जुड़ना जरूरी है। आज देश का शहरीकरण हो रहा है। नगरपालिका और महानगरपालिकाओं की संख्या बढ़ रही है। जहाँ व्यक्तिगत सफाई से कहीं अधिक सार्वजनिक स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाता है। आज भारत में नगरों की आबादी समूची आबादी का 40 प्रतिशत है। इन नगरों में रोशनी, सफाई, सड़कें आदि प्रबन्ध पालिकाओं द्वारा होता है फिर भी आबादी बढ़ने के कारण नगर वस्तुतः नरक जैसे हो रहे हैं। सफाई कर्मचारियों पर कड़ाई अवश्य हो लेकिन नगर निवासियों का भी कर्तव्य है कि घर के आस-पास गन्दगी न फैलाएँ और न फैलाने दें। सिंगापुर आदि शहरों की तरह गन्दगी फैलाने वाले के लिए दण्डनीय अपराध की व्यवस्था हो।

गाँव की स्थिति तो शुचिता के मामले में इसलिए ज्यादा खराब है कि वहाँ घर के साथ शौचालय का प्रबन्ध नहीं के बराबर है। पुरुष एवं स्त्री दोनों बाहर झाड़ी-झुरमुट या खेत की आड़ या सड़क के किनारे शौच करते हैं और कोई व्यक्ति उधर से आता है तो उन्हें उठना पड़ता है। अतः राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान का ज्यादा जोर गाँवों पर होना चाहिए। वहाँ यदि जन-शिक्षण और स्कूलों के द्वारा गन्दगी मुक्ति का अभियान चलाया जाए तो गाँव के लोग इस दिशा में काफी बढ़ सकते हैं।

उपसंहार

गाँधीजी की 150वीं वर्षगाँठ पर सफाई अभियान को अधिक सफल एवं सार्थक बनाना है तो निम्नलिखित कार्यक्रमों पर ध्यान देना होगा :-

1. हर घर में शौचालय

कोई आवश्यक नहीं कि कीमती पत्थर या संगमरमर पत्थर के शौचालय का स्थान हो। ट्रैंच शौचालय बनाकर दिखाया जाए जो आसान है। गाँव पंचायत पर विकास के लिए अनुदान देने की शर्त हो कि पंचायत में सभी घर में शौचालय हो।

 

2. स्वच्छ जल

हर गाँव में पीने का साफ पानी हो। अभी तो लगभग 64 प्रतिशत लोग स्वच्छ पानी नहीं पीते हैं। इसका इलाज हर जगह पानी का टॉवर या पाइपलाइन से सम्भव नहीं है। अतः ग्रामोद्योगी फिल्टर दिया जाए। इसके लिए गाँव पंचायत के स्तर पर फिल्टर को बनाकर दिखाया जाए। अस्वच्छ और गन्दा पानी पीने से कितनी बीमारियाँ होती हैं यह बताया जाए।

 

3. अच्छी जीविका

शुचिता का प्रश्न केवल अशिक्षा या अन्धविश्वास पूर्ण संस्कार से ही नहीं इसका प्रश्न अच्छी जीविका या उच्चजीवन से जुड़ा है। लोगों में यह चेतना तो जग रही है कि प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी घर की महिलाओं को बाहर सड़क के बगल में शौच नहीं करना चाहिए। लेकिन समस्या यह भी है कि जब उनके पास आवास ही नहीं है तो वे शौचालय कैसे बनवा सकते हैं। आँकड़ों के अनुसार लगभग 21 प्रतिशत लोगों को भारत में एक कोठरी का भी आवास नहीं है। उनका छत आसमान है। ऐसी स्थिति में शौचालय के लिए स्थान ही नहीं है अतः उसे बनवा पाना मुश्किल ही है। मुख्य समस्या रोजी-रोजगार तथा गरीबी है।

स्वच्छता अभियान अनिवार्य है। लेकिन इसका सम्बन्ध आर्थिक एवं शैक्षिक कारणों से जुड़ा हुआ है। जिस प्रकार से 60 वर्षों के बाद निरक्षरता समाप्त करने के लिए सरकार को आखिरकार शिक्षा-विधेयक बनाना पड़ा, अस्पृश्यता निवारण आदि के लिए स्वतन्त्र कानून बनाकर आर्थिक एवं दण्डनीय कानून संविधान में बनाना पड़ा, उसी प्रकार सर्वांगीण और समग्र स्वच्छता अभियान को लागू करना होगा। हमें यह सोचना होगा कि एक व्यक्ति को जहाँ तीन-चार से ज्यादा मकान हैं जबकि 21 प्रतिशत लोग आसमान के नीचे रहते हैं। ऐसे में यह सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय का सीधा प्रश्न है।

स्वच्छता का प्रश्न या अभियान अवश्य अभिनन्दनीय है लेकिन इसको समग्रता की आवश्यकता है।

4. ग्राम सफाई

बापू ने अपने अट्ठारह रचनात्मक कार्यक्रमों में ग्राम सफाई को स्थान दिया था। किन्तु वे भी केवल सफाई लेकर नहीं खड़े हुए। उसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक मुद्दे भी जुड़े थे। मानव जीवन एकांगी है। कुछ समय के लिए किसी समस्या को उठाया जा सकता है लेकिन इस प्रश्न पर कहा जा सकता है कि इस प्रकार का एक प्रतीक नमक सत्याग्रह खोजकर गाँधी ने न केवल भारत की जनता को जागृत किया था अपितु ब्रिटिश सरकार को भी हिला दिया था। मोतीलाल नेहरू जैसे विख्यात राष्ट्रीय नेता ने नमक तो़ड़ने के आन्दोलन पर शंका उपस्थित की थी तो गाँधी ने उनके पत्र के उत्तर में कहा था ” बना कर देखिए।” मोतीलाल जी शानगुमान में नमक बनाने आए और जो कल तक उनके साथ क्लब महफिल में साथ बैठते थे उन्होंने ही गिरफ्तार कर लिया।

 

शुचिता का प्रश्न केवल अशिक्षा या अन्धविश्वास पूर्ण संस्कार से ही नहीं इसका प्रश्न अच्छी जीविका या उच्चजीवन से जुड़ा है। लोगों में यह चेतना तो जग रही है कि प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी घर की महिलाओं को बाहर सड़क के बगल में शौच नहीं करना चाहिए। लेकिन समस्या यह भी है कि जब उनके पास आवास ही नहीं है तो वे शौचालय कैसे बनवा सकते हैं।

 

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने दिल्ली के लाल किले की प्राचीर से 15 अगस्त को स्वतन्त्रता दिवस के शुभ दिन राष्ट्रीय ध्वज फहरा कर देशवासियों को गाँधीजी की 150वीं वर्षगाँठ की याद दिलाते हुए जब सफाई अभियान का आह्वान किया तो मैं यह सोचने पर बाध्य हुआ कि स्वच्छता की कमी के साथ-साथ राष्ट्र की कितनी और समस्याएँ हैं, जिनपर ध्यान देना अनिवार्य है। मुझे उम्मीद है कि 15 अगस्त जैसे महत्वपूर्ण दिन पर इस ऐतिहासिक स्थल से भूख, दारिद्रय, विषमता, महँगाई, नौजवान की रोजी-रोटी, शिक्षा, आदि प्रश्नों पर भी प्रधानमन्त्री का आह्वान भविष्य में सुनाई देगा।

 

पण्डित दीनदयालजी के “अन्त्योदय” का सन्देश भी काफी प्रासंगिक था, जिसे गाँधीजी ने भी अपने सर्वोत्तम के प्रारम्भ में रखा था? गाँधीजी ने अपने प्यारे शिष्य नेहरू को क्या अन्त्योदय का ताबीज दिया था। टालस्टाय, रस्किन और गीता माता की “दरिद्राण भर कौन्तय की ध्वनि” में था।

साभार : राजघाट समाधि पत्रिका

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