अनुभा ढल
घरों में शौचालयों के अभाव ने स्त्रियों के सामने दैहिक और स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियां पेश की है। आम के पेड़ को आमतौर पर धूप और गर्मी में खेलते बच्चों के लिए गंगा-जमुना के मैदानी क्षेत्र में छाया देनेवाला माना गया है। ऐसा ही एक पेड़ उत्तर प्रदेश के एक गांव कटरा सदातगंज में है, जो 28 मई को दो किशोरियों की हत्या के बाद एक अपराध के दृश्य में बदल गया। वे अपने घर के पास खेत में शौच करने गई थीं। उन्हें मर्दों ने वहीं दबोच लिया और बलात्कार किया। हत्या की और आत्महत्या का मामला बने और साथ ही गांव की अन्य औरतें दहशतगर्दी के आलम में डुब जाएं इसलिए उन लड़कियों की लाश को पेड़ से लटका दिया।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की सन् 2013 की वार्षिक रपट के अनुसार, सन् 2012 में भारत में बलात्कार की 24,000 से अधिक घटनाएं घटीं और भारत में औरतों के विरुद्ध यह चैथा सबसे आम अपराध रहा। 98 प्रतिशत मामलों में अपराध करनेवाले या तो पड़ोसी थे या रिश्तेदार। इन आंकड़ों के ब्यौरे इस बात के लिए आगाह करते हैं कि महिलाएं अपने परिवारों और आसपास के माहौल में सुरक्षित नहीं हैं।
डेड़ करोड़ घरों में अभी भी शौचालय नहीं हैं
कटरा सदातगंज का सामूहिक बलात्कार तथा हत्या इस बड़ी समस्या को भी उजागर करता है, जिसका मुकाबला भारत कर रहा है- बहुत सारे घरों में शौचालय का न होना। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, देश के शहरों में रहनेवाले लगभग डेढ़ करोड़ घरों में शौचालय नहीं है। ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति तो उससे भी खराब है।
स्त्रियां दैहिक और मानसिक ताप झेलती हैं
घरों में शौचालय का न होना औरतों के लिए दैहिक से लेकर स्वास्थ्य एवं संभार-संबंधी चुनौतियां प्रस्तुत करता हे।
कटरा सदातगंज में सुलभ ने एक संक्षिप्त सर्वेक्षण किया जिससे पता चला कि गांव में 650 परिवारों में से 400 से अधिक घरों में शौचालय नहीं है। इस गैर सरकारी संगठन का दावा है कि उसने गांव में शौचालयों का निर्माण उन लोगों के लिए किया है, जो उससे वंचित हैं। उसका अनुमान है कि प्रति शौचालय-निर्माण की लागत रु.10,000 से लेकर 15,000 आती है।
शौच के लिए बाहर जाने में उन्हें काफी दूरी तय करनी पड़ती है। इससे वे गंदी स्थितियों और दैहिक खतरों की गिरफ्त में आ जाती हैं। अस्वास्थ्यकर स्थितियां और खुले में शौच, डायरिया, कृमि-रोग तथा वाइरल इनसेफलाइटिस-जैसी बीमारियों को पैदा करनेवाले स्थल हो जाते हैं।
समय की आवश्यकता है, एक समयबद्ध कार्यक्रम बनाना, जिसके अंतर्गत प्रत्येक घर में एक शौचालय हो। उसके लिए सब्सिडी की व्यवस्था हो, पंचायतें और राज्य-सरकार की स्थानीय एजेंसियां उसकी निगरानी करें। शौचालयों का निर्माण, उदाहरण के लिए ग्रामीण-रोजगार-गारंटी-योजना के साथ जोड़ने पर विचार किया जा सकता है।
सुलभ इंटनेशनल ने एक दिलचस्प उदाहरण प्रस्तुत किया है, कटरा सदातगंज में सुलभ ने एक संक्षिप्त सर्वेक्षण किया जिससे पता चला कि गांव में 650 परिवारों में से 400 से अधिक घरों में शौचालय नहीं है। इस गैर सरकारी संगठन का दावा है कि उसने गांव में शौचालयों का निर्माण उन लोगों के लिए किया है, जो उससे वंचित हैं। उसका अनुमान है कि प्रति शौचालय-निर्माण की लागत रु.10,000 से लेकर 15,000 आती है। बहरहाल, सरकार उससे सस्ते और उपयोगी शौचालों का निर्माण करा सकती है।
स्त्रियों के लिए निकटस्थ कुएं या जल का स्रोत आवश्यक है। जल अनेक ढंग से उपयोगी हो सकता है, उसमें शौचालय में उसका इस्मेमाल भी शामिल है। आदर्श स्थिति तो यह होगी कि जल सीधे घर तक आए, लेकिन इसके अभाव में अनेक कुएं बनाए जा सकते हैं। गांवों में जाति और वर्ग की चेतना बहुत होती है, अतः इसके चलते होनेवाले संघर्ष या विरोध को बचाया जा सकता है, जो ग्रामीण-जीवन की एक वास्तविकता है। यह सुनिश्चित किया जाए कि स्त्रियां आसानी से जल-स्रोत से अपने आस-पास से जल ले सकें।
स्कूलों में भी शौचालय की स्थिति अच्छी नहीं
स्कूल-स्तर पर भी यह स्थिति बुरी है। प्राइमरी स्कूल के स्तर पर 60.1 मिलियन से अधिक लड़कियों के नाम लिखाए जाते हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की सन् 2013 की वार्षिक रपट के अनुसार, सन् 2012 में भारत में बलात्कार की 24,000 से अधिक घटनाएं घटीं और भारत में औरतों के विरुद्ध यह चैथा सबसे आम अपराध रहा। 98 प्रतिशत मामलों में अपराध करनेवाले या तो पड़ोसी थे या रिश्तेदार।
लेकिन अपर प्राइमरी तक पहुंचते-पहुंचते इस संख्या में तेजी से गिरावट आ जाती है और वह 22.7 मिलियन पर आ जाती है। नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग ऐंड एडमिनिस्ट्रेशन की एक रपट से पता चलता है कि लगभग 30 प्रतिशत लड़कियां कक्षा छठी तक पहुंचने से पहले ही स्कूल छोड़ देती हैं। सर्वेक्षण यह भी बताता है कि स्कूल छोड़ने की सर्वाधिक घटना कक्षा 5वीं में पहुंचने के वक्त होती है यानी 13 प्रतिशत। यह वह समय है, जब लड़की मासिक धर्म की स्थिति में पहुंचने की होती है।
परिस्थिति की गंभीरता को स्वीकार करते हुए भारत-सरकार ने सन् 2008 में एक राष्ट्रीय शहरी स्वच्छता-नीति शुरू की। उद्देश्य था शहरी क्षेत्रों में शत-प्रतिशत स्वच्छता के उद्देश्य की पूर्ति। नीति के अंतर्गत स्कूलों के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया है कि वे उचित स्वच्छता, निजी शुचिता, स्वच्छ शौचालय की आदतें और सबसे महत्वपूर्ण लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय बनाए जाएं। बहरहाल, रिपोर्ट बताती है कि भारत में 10 स्कूलों में से 4 में अभी भी काम लायक शौचालय नहीं हैं। 31 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय नहीं हैं, यदि उपलब्ध भी हैं तो वे संख्या में अत्यंत कम हैं और उनकी देखभाल ठीक तरीके से नहीं की जाती है। इसके परिणामस्वरूप लड़कियां स्कूल से गैरहाजिर रहती हैं। लंबे समय तक के लिए और कुछ मामलों में वे स्कूल छोड़ देती हैं।
इस गंभीर वास्तविकता को देखते हुए यह एक अच्छी बात है कि सरकार की नीति स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था की है। बहरहाल, उस नीति को अमल में लाने में अधिक तेजी की जरूरत है। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनाव-घोषणा-पत्र में खासतौर पर इसका जिक्र किया है और कहा है कि उनकी उच्चतम प्राथमिकता स्त्रियों का कल्याण, स्वास्थ्य की देख-रेख, स्कूलों में स्वास्थ्य तथा स्वच्छता की देखभाल है। लोकसभा के सदस्यों में स्त्रियां केवल 11 प्रतिशत हैं, लेकिन वे प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल में 25 प्रतिशत तक हैं। यह एक जबरदस्त संकेत है कि अब उन पर ध्यान जाएगा, जिनकी वे हकदार हैं।
साभार : मिन्ट व सुलभ इंडिया