ऋषभ कृष्ण सक्सेना
प्रधानमन्त्री ने जबसे स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की है, तब से देश भर में इस पर सक्रियता बढ़ती दिख रही है। विभिन्न सरकारी विभाग स्वच्छता पर जोर दे रहे हैं, गैरसरकारी संगठन भी इसमें हाथ बंटा रहे हैं और स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ आम जनता का सहयोग भी इसे मिल रहा है। वास्तव में स्वच्छता केवल स्वास्थ्य से जुड़ा मसला नहीं है, इसके वित्तीय प्रभाव भी बहुत अधिक हैं। श्रमिकों की उत्पादकता अक्सर स्वच्छता और उसके अभाव में होने वाले रोगों से जुड़ी रहती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) समेत विभिन्न संस्थाएँ इस मोर्चे पर अधिक से अधिक मानव एवं वित्तीय संसाधन लगाए जाने की वकालत करती रही हैं। विकास के जिस एजेंडा पर हम चल रहे हैं, उसमें गरीबी उन्मूलन पर ही ज्यादा जोर दिया जा रहा है, लेकिन हकीकत यही है कि स्वच्छता के लिए बेहतर बुनियादी ढाँचा खड़ा करने से आय में भी इजाफा होगा और उत्पादकता में भी।
स्वच्छता के यूँ तो कई आयाम और माध्यम हो सकते हैं, लेकिन इनमें सबसे अहम हैं जल शोधन और शौचालय। भारत सरकार का ध्यान इन पर ही सबसे ज्यादा होना चाहिए क्योंकि विश्व बैंक की 2012 में पेश रिपोर्ट के अनुसार स्वच्छता के अभाव के कारण भारत हर साल तकरीबन 53.8 अरब डाॅलर गंवा देता है, जो 2006 के उसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 6.4 प्रतिशत के बराबर हैं। हैरत की बात है कि इस पैमाने पर भारत इंडोनेशिया और फिलीपींस जैसे देशों से बहुत पीछे है, जहाँ जीडीपी का क्रमशः 2.3 प्रतिशत और 1.5 प्रतिशत इसकी भेंट चढ़ता है। माॅनिटर डेलाॅयट नाम की संस्था ने भारत में स्वच्छता पर इसी वर्ष जारी अपने श्वेत-पत्र में बताया कि यहाँ के गांवों में ही स्वच्छता का तकरीबन 2,500 करोड़ डाॅलर सालाना का बाजार है। इनमें 600 से 900 करोड़ डाॅलर का तो शौचालयों का ही बाजार है। ऐसा भी नहीं है कि भारतीय ग्रामीण शौचालयों की इच्छा नहीं रखते। इस संस्था ने पिछले वर्ष बिहार में सर्वेक्षण किया तो गाँवों में 84 प्रतिशत परिवारों ने शौचालय बनवाने की इच्छा जताई, लेकिन वे बुनियादी ढाँचे और सुविधाओं के मोहताज थे। कई परिवारों में शौचालय बनवाने की आर्थिक क्षमता तक नहीं थी। ऐसे में विश्व बैंक की यह बात सही लगती है कि शौचालय से ही छोटे उद्यमियों के लिए बड़ा बाजार खड़ा हो रहा है। वास्तव में स्वच्छता का बाजार छोटा नहीं है और निजी क्षेत्र को साथ लेने पर इस बाजार का पूरा फायदा उठाया जा सकता है।
स्वच्छता अभियानः रोजगार व कारोबार
यदि निजी क्षेत्र के साथ हाथ मिलाया जाता है तो सरकार माँग की ओर ध्यान दे सकती है, बाजार तैयार कर सकती है और निजी क्षेत्र को आपूर्ति के लिए उपयुक्त माहौल दे सकती है। यहाँ निजी क्षेत्र से आशय केवल संगठित क्षेत्र की बड़ी कम्पनियों से नहीं है बल्कि असंगठित क्षेत्र में शौचालय के लिए टाइल्स बनाने वाले उद्यमी से लेकर उपकरण फिट करने वाले प्लम्बर और दीवार खड़ी करने वाले राज-मिस्त्री तक सभी इसी में आते हैं, जिन पर हमारा ध्यान नहीं जाता। वर्तमान सरकार की स्वच्छ भारत अभियान की पहल से पूर्व सम्भवतः किसी का ध्यान इस ओर गया ही नहीं होगा कि प्रत्येक घर में एक शौचालय बनाने भर से रोजगार के कितने प्रचुर अवसर उपलब्ध हो जाएंगे।
स्वच्छता अब महज विचार नहीं रही। न ही अब यह वैयक्तिक या परिवार, कार्यालय जैसी छोटी इकाइयों का विषय रह गयी है। वास्तव में स्वच्छता ने उद्योग का रूप ले लिया है। यहाँ न सिर्फ उत्पाद का कारोबार है बल्कि बाई-प्रोडक्ट भी लाजबाव है। यह उन गिने-चुने उद्योगों में शुमार है जो केवल आदत बनाने से मुनाफा बढ़ाने का रास्ता बनाती है। अगर साफ-सफाई की आदतें ठीक से डाल ली जाएँ तो अरबों रुपये बर्बाद होने से बचाये जा सकते हैं
प्रधानमन्त्री की अपील के जवाब में अब उद्योग जगत से कई बड़े नाम स्वच्छता के अभियान में हिस्सा ले रहे हैं। सरकारी क्षेत्र की कम्पनी कोल इंडिया ने हाल ही में कहा है कि वह स्कूलों और वंचित तबके के घरों में शौचालय बनाने एवं सफाई की स्थिति बेहतर करने पर 235 करोड़ रुपये खर्च करेगी। इसके तहत वह स्कूलों में अगले साल मार्च तक 6,000 शौचालय बनाएगी और सफाई अभियान से करीब 100,000 घरों को फायदा पहुँचाएगी। इससे पहले बुनियादी ढाँंचा क्षेत्र की बड़ी कम्पनी लार्सन एंड टुब्रो ने भी 5000 शौचालय बनवाने का ऐलान किया है। भारती एंटरप्राइजेज की भारती फाउंडेशन भी 100 करोड़ रुपये के खर्च से पंजाब के लुधियाना में शौचालय बनवाने जा रही है। दूरसंचार क्षेत्र की नामी कम्पनी टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज ने भी स्वच्छ भारत अभियान में हिस्सा लेते हुए शौचालय बनवाने पर 100 करोड़ रुपये खर्च करने की बात कही है। वेदांता समूह राजस्थान सरकार के सहयोग से पहले ही 30000 शौचालय बना चुकी है। कम्पनी ने 10000 शौचालय और बनाने की बात कही है। जाहिर सी बात है कि एक बड़ा बाजार तैयार होने जा रहा है।
स्वच्छता जगत में रोजगार व अध्ययन के नये आयाम
व्यावसायिक रोजगार ही नहीं पेशेवर लिहाज से भी स्वच्छता का उद्योग युवाओं के लिए अपार सम्भावनाएँ रखता है। शहरी विकास मन्त्रालय ने 2008 में राष्ट्रीय शहरी स्वच्छता नीति की रिपोर्ट देते समय एक सर्वेक्षण का हवाला दिया था, जिसके मुताबिक देश के 45 प्रतिशत से अधिक शहरों में स्वच्छता की हालत इतनी खराब थी कि वहाँ युद्ध स्तर पर कार्रवाई की जरूरत महसूस हो रही थी। इस स्थिति में अभी तक सुधार के संकेत नहीं दिखे हैं। स्वाभाविक है कि ऐसी स्थिति में स्वच्छता और जनस्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी और निजी निकाय रोजगार देने वाले रहे हैं, लेकिन स्वच्छता अभियान को नया जोर मिलने के बाद इनमें और भी बढ़ोतरी होने की उम्मीद है।
भारत में करीब 13 करोड़ घरों में शौचालय ही नहीं हैं। यहाँ करीब 72 प्रतिशत ग्रामीण अभी तक खुले में शौच करते हैं और 63 करोड़ लोगों के पास शौचालय की समुचित सुविधा नहीं है। यदि इन लोगों के लिए शौचालय उपलब्ध कराने का अभियान चला दिया जाए तो राज मिस्त्री से लेकर, निर्माण क्षेत्र के मजदूरों, रंग रोगन करने वालों, टाइल्स बनाने वालों और उपकरण लगाने वालों को असीमित रोजगार मिल सकता है।
मोटे अनुमान के मुताबिक विभिन्न सरकारी संस्थानों, निजी कम्पनियों, गैर सरकारी संगठनों में स्वच्छता में आरम्भिक तौर पर हर साल एक लाख के करीब रोजगार के मौके सृजित होने वाले हैं। इनमें बहुत बड़ी हिस्सेदारी तो रेल विभाग और नगर निकायों की ही होगी। रासायनिक, भू-वैज्ञानिक, पेट्रोलियम, खनन में लगी कम्पनियों में इनके लिए बहुत सम्भावनाएँ हैं। उनके अलावा सरकारी स्वास्थ्य विभाग, हवाई अड्डे, पंचायतों और उद्योगों में बड़ी संख्या में रोजगार मिलने जा रहे हैं। इनमें स्वास्थ्य निरीक्षक, स्वच्छता निरीक्षक, सार्वजनिक स्वास्थ्य कर्मचारी जैसे रोजगार के साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य इंजीनियर जैसे काम शामिल हैं, जिनके लिए नियमित पाठ्यक्रम विभिन्न सरकारी और निजी संस्थानों में चलाए जाते हैं।
राष्ट्रीय पर्यावरण अभियान्त्रिकी अनुसंधान संस्थान, विभिन्न पाॅलिटेक्निक संस्थान, राज्यों के तकनीकी शिक्षा बोर्ड, देश भर के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान आॅल इंडिया इंस्टीट्यूट आॅफ हाइजीन एंड पब्लिक हेल्थ - कोलकाता, इंडियन स्कूल आॅफ माइंस - धनबाद, आॅल इंडिया इंस्टीट्यूट आॅफ लोकल सेल्फ गवर्नमेंट, मदुरै कामराज यूनिवर्सिटी के साथ ही विभिन्न गैर सरकारी संगठन भी यूनिसेफ जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सहयोग से इस दिशा में पाठ्यक्रम चलाते हैं। अधिकतर पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए कक्षा 12 तक पढ़ाई की ही जरूरत है। ये पाठ्यक्रम 6 महीने से लेकर 4 वर्ष तक की अवधि के होते हैं और अक्सर पाठ्यक्रम पूरा करने से पहले ही नौकरी भी मिल जाती है।
विस्तृत सम्भावनाएँ
वित्त मन्त्रालय ने भी बजट में इसके लिए अच्छा खासा प्रावधान किया है। खुले में शौच की व्यवस्था को 2019 तक खत्म कर देने का बीड़ा उठाया गया है। यह बेहतरीन कारोबारी अवसर है। भारत में करीब 13 करोड़ घरों में शौचालय ही नहीं हैं। यहाँ करीब 72 प्रतिशत ग्रामीण अभी तक खुले में शौच करते हैं और 63 करोड़ लोगों के पास शौचालय की समुचित सुविधा नहीं है। यदि इन लोगों के लिए शौचालय उपलब्ध कराने का अभियान चला दिया जाए तो राज मिस्त्री से लेकर, निर्माण क्षेत्र के मजदूरों, रंग रोगन करने वालों, टाइल्स बनाने वालों और उपकरण लगाने वालों को असीमित रोजगार मिल सकता है। रोजगार के मौके शौचालय बनाने पर ही खत्म नहीं हो जाते। हमारे देश में कई सदियों से मल-मूत्र से बनने वाली कम्पोस्ट का इस्तेमाल खाद के रूप में किया जाता है। यदि इसी को व्यावसायिक स्तर पर किया जाए तो बायोगैस जैसे प्रत्येक संयंत्र में रोजगार की सम्भावना बनती है और ईंधन की किल्लत भी कम हो सकती है।
शौचालयों के मामले में नीतिगत स्तर पर भी और व्यक्तिगत स्तर पर भी हम भूल कर जाते हैं। हम त्रुटिपूर्ण योजना के साथ शौचालय बनाते हैं और मान लेते हैं कि स्वच्छता सुविधाओं के लिए गरीब खर्च करना नहीं चाहते। इस क्षेत्र में काम करने वाले भी कहते हैं कि सरकार गरीबों के लिए ऐसे शौचालय बनाती है, जिसमें पानी की बहुत जरूरत होती है और अक्सर उनके पास इतना पानी उपलब्ध नहीं होता। पानी की किल्लत वाले क्षेत्रों में भी ऐसे शौचालय बनाने की कोई तुक नहीं दिखती। उसके बजाय शुष्क शौचालयों पर जोर दिया जा सकता है। इसके लिए कैरेबियाई देश हैती का उदाहरण हमारे सामने है। राजनीतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय मुश्किलों से जूझ रहे हैती में 80 प्रतिशत से भी अधिक लोग गरीबी में डूबे हैं, जिनके पास पीने के लिए भी पानी नहीं है। एक समय वहाँ शौचालय के लिए पानी नहीं होता था लेकिन आज लगभग पूरी आबादी शुष्क शौचालय प्रयोग करती है।
शौचालय बनाने या स्वच्छता की बेहतर सुविधाएँ देने से स्वास्थ्य ही ठीक नहीं होता बल्कि सामाजिक स्तर भी बेहतर होता है। झुग्गी बस्तियों के निकट सुलभ के सार्वजनिक शौचालय इसके अच्छे उदाहरण हैं और हैती में शुष्क शौचालयों से किसानों के सामाजिक तथा आर्थिक स्तर में विकास भी देखा गया है। इसके कई उदाहरण भारत में भी हैं। एक अनुकरणीय उदाहरण पुणे में दिखता है, जहाँ कचरा बीनने वाली महिलाओं का जीवन एक छोटी सी सहकारी पहल से बिल्कुल बदल चुका है।
अन्तरराष्ट्रीय परिदृश्य
2008-09 में अमेरिकी मन्दी के कारण हैती को बाहर से आर्थिक मदद मिलनी भी बन्द हो गई थी और स्वास्थ्य तथा शिक्षा के कई कार्यक्रम बन्द करने पड़े। ऐसे में दो अमेरिकी नागरिकों ने वहाँ साॅयल नाम की परियोजना शुरू की, जिसका उद्देश्य बंजर जमीन को उपजाऊ बनाना और पानी से प्रदूषण खत्म करना था। इसके लिए
हैती में शुष्क शौचालय बनाए गए, जिनमें अपशिष्ट आसानी से इकट्ठा किया जाता है और उसी से खाद बना ली जाती है। स्थानीय सामग्री से ही बने इन शौचालयों से वहाँ जल की गुणवत्ता में इजाफा हुआ है और किसानों को खाद भी आसानी से मिलने लगी है। इस माॅडल को भारत में भी आसानी से अपनाया जा सकता है।
उन्होंने कम्पोस्टिंग शौचालय या शुष्क शौचालय को हथियार बनाया। हैती में सीवेज प्रणाली न के बराबर है, वहाँ की जमीन बंजर है और किसानों के पास रासायनिक उर्वरक खरीदने के लिए रकम नहीं है। साॅयल के तहत हैती में शुष्क शौचालय बनाए गए, जिनमें अपशिष्ट आसानी से इकट्ठा किया जाता है और उसी से खाद बना ली जाती है। स्थानीय सामग्री से ही बने इन शौचालयों से वहाँ जल की गुणवत्ता में इजाफा हुआ है और किसानों को खाद भी आसानी से मिलने लगी है। इस माॅडल को भारत में भी आसानी से अपनाया जा सकता है। राजस्थान जैसे पानी की किल्लत वाले इलाकों में और प्राकृतिक आपदाओं के बाद राहत कार्यों के दौरान ऐसे शौचालयों का प्रयोग किया जा सकता है।
कम खर्च में शौचालय बनाने और उनसे रोजगार कमाने का उदाहरण बांग्लादेश में भी नजर आया है। यूनिसेफ और बांग्लादेश सरकार की मदद से वहाँ के ग्रामीण इलाकों में शौचालय बनाए जा रहे हैं और इसमें निजी क्षेत्र की अच्छी भागीदारी है। वहाँ अभी 6000 से भी ज्यादा छोटे उद्यमी हर साल लगभग 12 लाख शौचालय इकाइयाँ तैयार कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर कारखाने 3-4 डाॅलर से भी कम की लागत में एक इकाई तैयार करते हैं। हालांकि इसमें दीवारों आदि का खर्च शामिल नहीं है। यूनिसेफ के आँकड़ों के मुताबिक इनमें से ज्यादातर को किसी तरह का ऋण नहीं लेना पड़ता। इन कारखानों से इतने लोग जुड़े हैं कि बांग्लादेश में यह ग्रामीण कुटीर उद्योग जैसे बन चुके हैं। भारत के लिहाज से भी यह अच्छा माॅडल हो सकता है, जहाँ कुटीर उद्योग पहले ही काफी व्यापक हैं और जहाँ की आधी से ज्यादा ग्रामीण आबादी आज भी शौचालयों से वंचित है।
सार्वजनिक निजी भागीदारी (पीपीपी)
एक धारणा यह भी है कि स्वच्छता की सुविधाओं पर गरीब खर्च करना नहीं चाहते लेकिन हमारे ही देश में सुलभ इंटरनेशनल इसे गलत साबित कर चुका है। यह गैरसरकारी संगठन 1970 से अभी तक 12-13 लाख से अधिक शौचालय बना चुका है और 6500 से अभी अधिक सामुदायिक शौचालय यह चला रहा है। आपको कमोबेश हर बड़े शहर में सुलभ के सार्वजनिक शौचालय मिल सकते हैं। भारती एंटरप्राइजेज ने भी हाल में शौचालय बनाने का ठेका इसी को दिया है। सुलभ के शौचालयों की खासियत यही है कि इसे चलाने के लिए लगभग 70,000 लोगों की सहभागिता है। उनके वेतन की चिन्ता भी सुलभ को नहीं करनी पड़ती क्योंकि उसके शौचालयों का प्रयोग प्रतिदिन लगभग 14-15 लाख लोग करते हैं, जिनसे एक अथवा दो रुपये का मामूली शुल्क वसूला जाता है। इससे शौचालयों के रखरखाव का खर्च भी पूरा हो जाता है और गरीब तबके के लोगों को स्वच्छता की बेहतर सुविधा भी मिल जाती है। इनमें से ज्यादातर शौचालय ऐसे स्थानों पर बने हैं, जहाँ झुग्गी बस्तियाँ हैं, लेकिन उनका समुचित उपयोग होता है क्योंकि खुले में शौच की शर्मिंदगी से बचने के लिए वहाँ के निवासी शुल्क देकर भी इनका ही उपयोग करते हैं। सुलभ की सफलता दो बातें हमारे सामने प्रमाणित करती है - पहली, सामुदायिक स्वच्छता सेवा का प्रयोग सफल हो सकता है और दूसरी, यदि स्वच्छ और बेहतर सुविधाएँ मिलें तो गरीब तबके के लोग उनके लिए शुल्क देने को भी तैयार रहते हैं। भारत सरकार इसे ध्यान में रखते हुए शौचालय बनाने का काम तेज कर सकती है और इनका वित्तीय लाभ भी उठा सकती है।
पुणे देश के बाकी प्रमुख शहरों की तरह यह कचरा निस्तारण के लिए नगर पालिका अथवा निजी क्षेत्र पर निर्भर नहीं है। पुणे में यह काम एक ही समुदाय को दे दिया गया। पुणे में कचरा बीनने वालों में 90 प्रतिशत महिलाएं हैं। कचरा बीनने वालों का नया संगठन ‘कागद कच पत्र कघटाकारी पंचायत’ 1993 में गठित हुआ, संगठन ने स्वच्छ (साॅलिड वेस्ट कलेक्शन ऐंड हैंडलिंग) नाम से परियोजना शुरू की, जिससे आज 9000 कचरा बीनने वाले जुड़े हैं।
बांग्लादेश के प्रयोग को ध्यान में रखते हुए सरकार सीमेंट कम्पनियों से इस काम में मदद करने के लिए कह सकती है। देखा गया है कि छोटे से छोटा शुष्क शौचालय बनाने में भी कम से कम एक कट्टा सीमेंट का प्रयोग होता है। बांग्लादेश में यूनिसेफ के प्रयोग के दौरान प्रतिवर्ष लगभग 50000 टन सीमेंट का प्रयोग शौचालय बनाने में ही हो रहा था। भारत की विशाल जनसंख्या को देखते हुए यहाँ स्वाभाविक तौर पर अधिक सीमेंट की खपत होगी। ऐसे में सीमेंट उद्योग इस अभियान में सहायता कर सकता है और शौचालय बनाने के लिए बेहतर प्रौद्योगिकी, विपणन और ब्रांड विकास की सुविधाएँ उपलब्ध करा सकता है। सरकार कुछ ऐसा ही सहयोग सिरेमिक, सैनिटरीवेयर आदि बनाने वाले उद्योगों से भी ले सकती है।
देश में अभिनव प्रयोग
भारत में कचरे की समस्या तो बहुत गम्भीर है और शहरों में रोजाना करीब 1.88 लाख टन कचरा तैयार होता है। नई दिल्ली के दि एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) का अनुमान है कि भारत के शहरों में कचरा उत्पादन की समस्या बेहद तेजी से बढ़ रही है। उसने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि 2047 तक इन शहरों में आज के मुकाबले पाँच गुना अधिक कचरा तैयार होगा, जिसकी मात्रा 26 करोड़ टन सालाना तक पहुँच जाएगी।
आर्थिक विकास के साथ कचरा तो बढ़ना ही है, लेकिन यदि इसका निस्तारण सही तरीके से हो सके तो समस्या पर काबू भी पाया जा सकता है और कचरा बीनने वालों के जीवन स्तर को बेहतर भी बनाया जा सकता है। पुणे इस मामले में विलक्षण है क्योंकि देश के बाकी प्रमुख शहरों की तरह यह कचरा निस्तारण के लिए नगर पालिका अथवा निजी क्षेत्र पर निर्भर नहीं है। पुणे में यह काम एक ही समुदाय को दे दिया गया। पुणे में कचरा बीनने वालों में 90 प्रतिशत महिलाएं हैं। कचरा बीनने वालों का नया संगठन ‘कागद कच पत्र कघटाकारी पंचायत’ 1993 में गठित हुआ, जिसने उन्हें पुलिस, नगर निगम के अधिकारियों से और गन्दगी के बीच काम करने से छुटकारा दिलाने की योजना बनाई। संगठन ने स्वच्छ (साॅलिड वेस्ट कलेक्शन ऐंड हैंडलिंग) नाम से परियोजना शुरू की, जिससे आज 9000 कचरा बीनने वाले जुड़े हैं।
कल्याणकारी लाभ के मद में भुगतान नहीं होने के कारण कचरा बीनने वालों को 80 लाख 50 हजार की हानि हुई
झुग्गी-झोपड़ी के मद में मिलने वाले अनुदान का भुगतान नहीं होने के कारण कचरा बीनने वालों को 50 लाख 16 हजार रुपये की हानि हई
न बदले जाने वाले उपकरणों के रखरखाव की लागत बढ़ने के कारण कचरा बीनने वालों को समझौता ज्ञापन के समयावधि के दौरान एक करोड़ 38 लाख रुपये की हानि उठानी पड़ी।
सामूहिक समझौता ज्ञापन के समयावधि के दौरान कचरा बिनने वालों को सामूहिक हानि = 2 करोड़ 68 लाख 66 हजार
देश में कचरा बीनने वालों का यह इकलौता सहकारी संगठन है। पुणे नगर निगम के साथ करार करने के बाद अब यह शहर में तकरीबन 4 लाख घरों से रोजाना कचरा उठाता है और हरेक घर से 10 से 30 रुपये मासिक लेता है। हरी साड़ी में दस्ताने और बूट पहनी महिलाओं में संक्रमण का डर भी नहीं रह गया। अब वे औसतन चार घंटे रोज काम करती हैं और अधिक धन कमाती हैं। इसके अलावा उन्हें गन्दगी में भी नहीं जाना पड़ता। कम देर तक काम करने के कारण इन महिलाओं को परिवार के साथ अधिक समय बिताने को मिल रहा है और वे बाकी समय में दूसरा रोजगार भी अपना पा रही हैं। इसके अलावा स्वच्छ इन्हें बेहतर रोजगार के लिए कम्पोस्ट खाद बनाने और बायो-मीथेन संयंत्र चलाने का प्रशिक्षण भी दे रहा है।
शहरों की सफाई में लगे लोगों की सामाजिक सुरक्षा भी चिन्ता का विषय है। स्वच्छ परियोजना भी इसका उदाहरण है। पुणे में नगरपालिका परिषद के सहयोग से चल रही इस परियोजना के तहत पाँच वर्ष के लिए किए गए समझौता ज्ञापन की अवधि में उपकरण, सुरक्षा उपाय व कल्याणकारी लाभ की कमी के कारण कचरा बीनने वालों को इस दौरान सामूहिक घाटा उठाना पड़ा है।
पूर्वाेत्तर भारत में भी वहाँ के निवासियों ने अपने दम पर ही स्वच्छता के अभाव से निजात पाई है। उदाहरण के लिए मेघालय में 2009 तक असुरक्षित शौचालय की समस्या बहुत ज्यादा थी, जिसकी वजह से वहाँ गन्दगी पसरी रहती थी और वहाँ के निवासी बहुत जल्दी रोगों की चपेट में आ जाते थे लेकिन 2009 के बाद से ही मेघालय सरकार ने वाटर एंड सेनिटेशन प्रोग्राम (डब्ल्यूएसपी) के साथ मिलकर सामुदायिक और माँग आधारित परियोजना चलाई भी, जिसके तहत सामुदायिक सभाओं में स्वच्छता के महत्व को समझाया गया और इसे रोजमर्रा की आदतों में शामिल करने का प्रयास किया गया। इसके चकित करने वाले परिणाम सामने आए। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 2004-06 के बीच मेघालय में शौचालय नहीं के बराबर थे, लेकिन दिसम्बर 2013 तक इनका आँकड़ा 71 प्रतिशत तक पहुँच गया, जिसमें स्थानीय निवासियों की जागरूकता और समर्पण का खासा योगदान रहा। शौचालयों पर जोर दिया गया। मेघालय के 1231 गाँवों में से 768, 2012-13 में पूरी तरह स्वच्छ या निर्मल घोषित कर दिए गए थे और इस मामले में यह राज्य देश में पहले स्थान पर रहा था।
स्वच्छ के खाते से पुणे नगरपालिका परिषद (पीएमसी) का वार्षिक बचत
पीएमसी प्रत्येक वर्ष 7 करोड़ 22 लाख रुपये कचरे के परिवहन से बचाती है। (90 एमटीपीडी के लिए रिसाइकिलिंग × 365 दिन × 2,200 रुपये प्रति टन)
घर-घर जाकर कचरा संग्रह करने की संविदा के जरिए 30 करोड़ रुपये की बचत की जाती है। (10000 रुपये न्यूतम मजदूरी× 2300 मजदूर × 12 महीना = 27 करोड़+ न्यूनतम 10 फीसद ओवरहेड)
अपशिष्ट निपटान में लगे कर्मियों को दिये जाने वाले लगभग एक करोड़ रुपये की बचत
स्वच्छता के मद में पीएमसी की कुल वार्षिक बचत = 38 करोड़
बात आधी आबादी की
विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संगठनों की रिपोर्ट बताती हैं कि महिलाओं की गरिमा के लिहाज से शौचालय बेहद महत्वपूर्ण हैं। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के साथ अपराधों की आधी से अधिक घटनाएँ उसी समय होती हैं, जब वे नित्यकर्म से निवृत्त होने के लिए घर से दूर निकलती हैं। जनगणना के हालिया आँकड़ों के मुताबिक 63 करोड़ से अधिक भारतीय खुले में शौच जाते हैं क्योंकि उन्हें व्यावहारिक शौचालय नहीं मिलते। रिसर्च इंस्टीट्यूट आॅफ कंपेशनेट इकनाॅमिक्स (राइस) के सर्वेक्षण के मुताबिक जिन भारतीय घरों में शौचालय की सुविधा है, उनमें भी 40 प्रतिशत घरों का कम से कम एक सदस्य खुले में शौच जाता है। इसके पीछे समस्या यह है कि आदतें बदलने का प्रयास नहीं किया गया।
बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की रिपोर्ट भी कहती है कि स्वच्छता की आदत विकसित करना महत्वपूर्ण है, जिसकी ओर सरकार समुचित ध्यान नहीं देती। लेकिन यदि बेहद किफायती स्तर पर स्वच्छता की सभी सुविधाएँ सामुदायिक सहयोग के साथ उपलब्ध कराई जाएंगी तो इस प्रकार की आदतें बदलना और सामाजिक-आर्थिक स्तर बेहतर करना मुश्किल नहीं होगा।
सन्दर्भः
1. विश्व बैंक की वाटर ऐंड सेनिटेशन रिपोर्ट 2012
2. यूनिसेफ की वेबसाइट
3. दि टेलीग्राफ - 8 फरवरी, 2014
4. वाॅश प्लस की वेबसाइट
5. बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की वेबसाइट
6. केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की वेबसाइट
7. स्क्वाट सर्वे - रिसर्च इंस्टीट्यूट फाॅर कंपेशनेट इकनाॅमिक्स
लेखक आर्थिक दैनिक समाचार पत्रा बिजनेस स्टैंडर्ड में डिप्टी न्यूज एडिटर हैं। इससे पूर्व संवाद समिति ‘यूनीवार्ता’ में काम कर चुके हैं। गुरु जांमेश्वर विश्वविद्यालय और कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से सम्बद्ध मीडिया संस्थानों में अध्यापन कर चुके हैं। ईमेलः rishabhakrishna@gmail.com
साभार: योजना जनवरी 2015