सफर सफाई मजदूरी से अधिकारिता का

प्रज्ञा पालीवाल गौर

उषा, गुड्डी और सुशीला उन अन्य महिलाओं से भिन्न हैं जो रोज बिना नागा व्यावसायिक केन्द्र पर अपनी दैनिक कमाई के लिये आती हैं। ये महिलाएँ सुबह 9 बजे से 4 बजे शाम तक ‘नयी दिशा’ केन्द्र पर आती हैं जहाँ वे पापड़ बनाती हैं, कपड़े सिलती हैं, ब्यूटीशियन का काम करती हैं और अचार तथा मोमबत्तियाँ बनाती हैं। राजस्थान के अलवर जिले में यह केन्द्र बनाया गया है। इस काम से उन्हें कम से कम हर महीने 2,000 रुपये की कमाई होती है परन्तु अपने घर में अलग से आॅर्डर मिलने के कारण उनकी कमाई इससे भी ज्यादा हो जाती है।

किसी आत्मनिर्भर महिला के लिये यह सामान्य बात लगती है, परन्तु इन महिलाओं के मामले में विशेष यह है कि वे सभी पूर्व सफाई मजदूर हैं जो वर्षों तक मानव मल सिर पर उठाकर बाहर फेंकने का अमानवीय काम करती रही हैं। भरतपुर के डीग में सफाई मजदूरी के पेशे में लगे परिवार में जन्मी उषा अपनी माँ और बहनों के साथ इस काम पर जाती थी। वह झाड़ू और एक कनस्तर के साथ कालोनियों की संकरी गलियों से होकर सिर पर मैला ढोने का काम करती रही। अलवर में अपनी शादी के बाद भी वह यही काम करती रही। वह अछूत थी और किसी भी मन्दिर में उसे घुसने नहीं दिया जाता था।

सिर पर मैला ढोने की प्रथा: कुछ तथ्य

1. देश में सिर पर मैला ढोने वालों की संख्या अनिश्चित है। विश्वसनीय आधार आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लेकिन जुलाई 1989 में योजना आयोग द्वारा गठित कार्य दल के अनुमान के अनुसार देश में मार्च 1991 तक चार लाख से अधिक लोग सिर पर मैला ढोने वाले थे। इनमें से 83 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में और 17 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में थे तथा 35 प्रतिशत सिर पर मैला ढोने वाली महिलाएँ थीं। ये

आँकड़े केवल अनुसूचित जातियों के हैं। मार्च 2003 को सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण मन्त्रालय द्वारा आकलित आँकड़ों के अनुसार सिर पर मैला ढोने वालों की संख्या 6.76 लाख है।

2. सिर पर मैला ढोना मानव अधिकारों का घोर उल्लंघन है और मानव की गरिमा और महत्व पर आक्रमण है। यह इस देश में संविधान द्वारा प्रत्येक मानव को गरिमापूर्ण जीवन जीने की गारंटी का उल्लंघन करता है। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा जीने के अधिकार पर संविधान के अनुच्छेद 21 को गरिमापूर्ण जीने के रूप में परिभाषित किया गया है।

3. 24 जनवरी, 1997 को सिर पर मैला ढोने वालों के रोजगार और शुष्क शौचालय निर्माण (निषेध) अधिनियम, 1993 को अधिसूचित किया गया। दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि कई राज्यों में यह प्रथा अभी भी प्रचलित है।

निम्नलिखित राज्यों ने यह रिपोर्ट दी है कि उनके राज्यों में सिर पर मैला ढोने की प्रथा या तो पूरी तरह से समाप्त की जा चुकी है या शुष्क शौचालयों के न होने के कारण यह प्रथा अब प्रचलित नहीं है: अरुणाचल प्रदेश, दिल्ली, गोवा, हिमाचल प्रदेश, केरल, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा और तमिलनाडु।

हो सकता है कि मेरा पुनर्जन्म न हो, लेकिन यदि ऐसा होता है तो मैं चाहूँगा कि मेरा जन्म सिर पर मैला ढोने वाले परिवार में हो ताकि मैं उन्हें इस अमानवीय, अस्वास्थकर और घृणास्पद प्रथा से छुटकारा दिला सकूँ। - महात्मा गाँधी

ऐसा ही जीवन सुशीला चैहान का था। वह जब 10 साल की हुई तभी से अपने  पिता और माँ के साथ सफाई का काम कर रही थी। अलवर के सुरेश के साथ शादी के बाद भी उसके जीवनचर्या में कोई अन्तर नहीं आया और उसका दैनिक कार्य पूर्ववत चलता रहा। अमानवीय और दयनीय हालात में काम करते हुए ये महिलाएँ मामूली मजदूरी के लिये  अपनी गरिमा न्योछावर करने को विवश थीं। जब इन महिलाओं ने अपने जीवन में बदलाव चाहा तो ‘नयी दिशा’ नामक व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्र उनको सहयोग प्रदान करने के लिये आगे आया। इस संस्था की स्थापना सुलभ सफाई आन्दोलन (सुलभ इंटरनेशनल) के संस्थापक डाॅ. बिन्देश्वर पाठक की पहल पर 2003 में हुई थी।

क़रीब 50 महिला सफाई मजदूरों का चयन किया गया और ‘नयी दिशा’ में उन्हें पूरी तरह से नयी दिशा मिली। ‘नयी दिशा’ की स्थापना का मकसद महिला सफाई कर्मियों को उनके मौजूदा रोजगार से निकाल कर समाज की मुख्यधारा में शामिल करना था। पुनर्वास और विकास का यह अनोखा माॅडल बनाने की अवधारणा केे पीछे उनके जीवन में स्थायी बदलाव लाने की भावना थी। इस परियोजना का उद्देश्य इस तरह से उन्हें पुनर्वासित करने का था ताकि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन जाएँ और फिर से उन्हें सफाई मजदूरी के काम पर वापस न जाना पड़े।

इन महिलाओं के हितों को ध्यान में रखकर प्रशिक्षण का एक प्रारूप विकसित किया गया, जिसमें खाद्य प्रसंस्करण, कटिंग एवं सिलाई, इम्ब्रायडरी, ब्यूटी केयर तथा व्यावहारिक साक्षरता जैसे पाठ्यक्रम शामिल थे। इन पाठ्यक्रमों को पूरा करने के बाद इन महिलाओं को वेतन के रूप में मासिक 2,000 रुपये भुगतान किया जाता है ताकि वे लौट कर सफाई मजदूरी के काम पर न जाएँ। प्रशिक्षण के दौरान इन महिलाओं को न सिर्फ बैंक कर्मियों से व्यवहार करना एवं चेकों पर दस्तखत करना सिखाया जाता है, बल्कि उन्हें अपने उत्पादों को मुनाफे के साथ बेचने का तरीका भी सिखाया जाता है। पुनर्वास के अलवर माॅडल ने इन महिलाओं के जीवन को सार्थक बना दिया है और उन्हें दुनिया में अपने लिये जगह बनाने की शिक्षा दी है। उनके जीवन में जो सामाजिक बदलाव आया है उसका प्रमाण यह तथ्य है कि जो लोग उनको अछूत मानते थे वही उनके द्वारा तैयार किए गए सामान (यहाँ तक कि खाने एवं पूजा की अगरबत्ती तक) खरीदते हैं। इन महिलाओं ने अपने आपको स्वसहायता समूह के रूप में संगठित किया है और बैंक से ऋण की सुविधा प्राप्त कर रही हैं ताकि वे अपने उत्पादों की सही ढंग से खरीद-बिक्री कर सकें और प्रतिष्ठापूर्ण जीवनयापन कर सकें।

इन महिला सफाई मजदूरों के जीवन में एक महान क्षण तब आया जब वे 2 जुलाई, 2008 को अन्तरराष्ट्रीय सफाई वर्ष के मौके पर आयोजित रैंप शो में हिस्सा लेने के लिये संयुक्त राष्ट्र की यात्रा पर न्यूयाॅर्क गईं। यह कार्यक्रम ‘सफाई और स्थायी विकास’ पर आधारित था। इकोसोक की वार्षिक शासकीय समीक्षा का विषय यही था। प्रमुख माॅडलों के साथ रैंप पर उतरना इन महिलाओं के लिये किसी सपने से कम नहीं था। इस ऐतिहासिक दिवस पर उषा चौमर को ताज पहनाकर पुरस्कृत किया गया। यह इस बात की ताकीद का क्षण था कि यदि मौका मिले तो ये महिलाएँ दर्शकों की भीड़ का भी सामना कर सकती हैं।

इनमें से हर महिला अपने समाज के लिये एक ख्याति प्राप्त व्यक्ति तथा अनुकरणीय माॅडल बन गई है। उनसे प्रेरित होकर अधिक से अधिक महिलाएँ अपने जीवन में बदलाव लाने के लिये आगे आ रही हैं। वे अब अपने बच्चों को भी शिक्षित करना चाहती हैं ताकि वे सिर पर मैला ढोने का अमानवीय काम करने के लिये मजबूर न हों।

इन पूर्व सफाईकर्मियों की अपने जीवन को ऐेसा ही सार्थक बनाने की आकांक्षा है। पुनर्वास के अलवर माॅडल ने महिला अधिकारिता के लिये इन महिलाओं को एक उदाहरण तथा अनुकरणीय बना दिया है। अलवर माॅडल महात्मा गाँधी के जातिविहीन तथा समान स्तर के समाज के सपने को साकार करने की दिशा में एक कदम है। महात्मा गाँधी के विचार में छुआछूत एक ऐसा कलंक है जो पूरी प्रणाली को उसी तरह विषाक्त बना देता है जैसे एक बूँद तेजाब पूरे टैंक के दूध को विषाक्त बना देता है। ‘नयी दिशा’ ने क़रीब 70 महिला सफाई मजदूरों को पहचान की है और वह दिन दूर नहीं जब अलवर में एक भी ऐसी महिला सफाई मजदूर नहीं होगी जो सिर पर मैला ढोती हो। अलवर माॅडल की सफलता ने अन्य संस्थाओं के लिये भी ऐसे मार्ग प्रशस्त किए हैं ताकि देश को सिर पर मैला ढोने के अपमानजनक और अमानवीय काम से मुक्ति मिल सके।

(लेखिका दूरदर्शन केन्द्र, जयपुर में समाचार निदेशक हैं।)

ई-मेल: pragyapaliwalgaur@yahoo.com

साभार : योजना अक्टूबर 2008

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