रूपेश पाण्डेय
विचारधारा के स्तर पर दो विरोधी समूह कार्यक्रम के स्तर पर कहीं एक हो सकते हैंं, उसका सूत्र मिल गया है। जब 2 अक्टूबर को प्रधानमन्त्री नरेन्द्र महात्मा गाँधी का नाम लेकर ‘सफाई अभियान’ की शुरुआत कर रहे थे, उन्हीं दिनों गाँधीवादी संस्था, सर्व सेवा संघ का प्रकाशन विभाग विभाग लम्बे समय से उपेक्षित पड़ी अपनी पुस्तक, ‘सफाई-विज्ञान और कला’ पुनर्प्रकाशन की तैयारी कर रहा था। दोनों बातों का आपस में कोई संयोग नहीं है। लेकिन, मानने वाले इसे संयोग और नियति भी मान सकते हैं। लेकिन, क्या इसे केवल संयोग और नियति कहा जा सकता है कि महात्मा गाँधी, नरेन्द्र मोदी और पुस्तक के लेखक वल्लभ स्वामी तीनों गुजरात से ही आते हैं। और क्या इसे भी केवल संयोग ही कहेंगे कि तीनों ही सफाई को समाज जीवन का एक महत्वपूर्ण सामाजिक, आर्थिक और रचनात्मक पहलू मानते हुए उसके लिए राष्ट्रीय अभियान चलाने की बात करते हैं। अगर नहीं तो इसका अर्थ क्या है? क्या, गुजरात के सामाजिक जीवन में कोई ऐसा गुणसूत्र है जो ‘सफाई’ को जीवन का एक मजबूत और महत्वपूर्ण पक्ष मानता है। यह शोध का विषय है।
वल्लभ स्वामी महात्मा गाँधी के साबरमती आश्रम की “राष्ट्रीय शाला” के अध्यवसायी थे। उनके बारे में गाँधी जी के पुत्र प्रभुदास गाँधी, ‘विशुद्धात्मा वल्लभ स्वामी’ अपने पुस्तक में लिखते हैं, “सात्विक तपोमूर्ति का जो आदर्श गीता में बताया गया है, वह केवल कल्पनामय चीज नहीं है, वास्तविक है।” अपने राग-द्वेषों से व्यथित मानव समाज के समूह में- अर्थात सर्व साधारण में- ऐसी एक चलती-फिरती साक्षात मानवमूर्ति हम लोगों ने अपनी आँखों के सामने देखी। जिसका नाम बचपन में वल्लभ, युवावस्था में वल्लभ भाई और प्रौढ़ावस्था में था, वल्लभ स्वामी। प्रभुदास गाँधी उसी राष्ट्रीय शाला में वल्लभ स्वामी के सहपाठी थे।
“कलाकार वह है, जो अपनी आँखों के सामने किसी किस्म की भद्दी और गन्दी चीज को बर्दाश्त नहीं करता और उसे साफ किये बिना चैन नहीं पाता। इसलिए अगर कला को सार्वजनिक बनाना है, उसे महामानव की सम्पत्ति के रूप में देखना है और वास्तविक बनाना है, तो उसकी शुरुआत सफाई से ही करनी चाहिए।”
प्रयोगधर्मी वल्लभ स्वामी का जीवन गुरु विनोबा के चरणों में समर्पित था। वे विनोबा के श्रेष्ठतम शिष्य थे। उनकी निष्ठा राष्ट्र में और धर्म, समाज और जीवन था। वल्लभ स्वामी की यह पुस्तक अद्भुत और अद्वितीय है। प्रधानमन्त्री के सफाई अभियान से जुड़े लोगों सहित शिक्षकों और विद्यार्थियों के सामाजिक जीवन के लिए ‘सफाई-विज्ञान और कला’ प्रेरणादायी हो सकती है।
पुस्तक में वल्लभ स्वामी ने सफाई की उपयोगिता, उसके वैज्ञानिक पहलू और सौन्दर्य दृष्टि पर बेबाकी से लिखते हुए, सफाई को सभ्यता मूलक प्राकृतिक गुण और मानवीय जरूरत बताया है। पुस्तक में सबसे पहले सफाई पर महात्मा गाँधी का, ‘स्वच्छता क्यों और कैसे’ विषय पर लम्बा आख्यान है। जिसके मूल में व्यक्ति के दैनन्दिन एवं समाज जीवन में सफाई का ‘स्वबोध’ है।
पुस्तक के प्रथम अध्याय में ही सफाई का महत्व स्पष्ट करते हुए वल्लभ स्वामी लिखते हैं, “सफाई प्रकृति का मौलिक गुण है। समाज के सर्वांगीण जीवन का यह एक मुख्य अंग है अर्थात यह पूर्ण विज्ञान, सम्पूर्ण उद्योग और बुनियादी कला है तथा शरीर, मन और नैतिक विकास का मौलिक साधन है।” सफाई को वे सामाजिक जीवन का मूल उद्योग मानते हैं और लिखते हैं, ‘जिस प्रकार व्यक्तिगत जिन्दगी के लिए कृषि और कताई को मूल उद्योग माना गया है, उसी प्रकार सफाई को सामाजिक जिन्दगी का मूल उद्योग मानना पड़ेगा।’
सफाई के वर्तमान पद्धति को वे कूड़ा स्थानान्तरण का तरीका भर मानते हैं और लिखते हैं, ‘जो कागज का टुकड़ा रास्ते में आँखों को खटकता है और गन्दगी का कारण बनता है वही टुकड़ा यदि अपने उपयुक्त स्थान पर बन जाए तो सम्पत्ति का साधन बन सकता है। अनुपयुक्त स्थान पर तो महान पण्डित भी एक प्रकार का कूड़ा ही है और उपयुक्त स्थान पर छोटी से छोटी साधारण वस्तु भी राष्ट्र की सम्पत्ति समझी जाती है।’
“सफाई प्रकृति का मौलिक गुण है। समाज के सर्वांगीण जीवन का यह एक मुख्य अंग है अर्थात यह पूर्ण विज्ञान, सम्पूर्ण उद्योग और बुनियादी कला है तथा शरीर, मन और नैतिक विकास का मौलिक साधन है।”
सफाई को मौलिक कला के रूप में व्याख्यायित करते हुए वल्लभ स्वामी लिखते हैं, “मनुष्य की स्वाभाविक सौन्दर्य-वृत्ति के कारण ही उसमें सफाई की प्रवृत्ति पैदा होती है और कला की उत्पत्ति भी मनुष्य की सौन्दर्योपासना का परिणाम है।” वे कहते हैं गायक, नृत्यकार, शिल्पी या चित्रकार पूर्ण कलाकार नहीं हैं। ये एकांगी कलाकार हैं। सफाई के बगैर कलाकार पूर्ण नहीं हो सकता। उनके शब्दों में “कलाकार वह है, जो अपनी आँखों के सामने किसी किस्म की भद्दी और गन्दी चीज को बर्दाश्त नहीं करता और उसे साफ किये बिना चैन नहीं पाता। इसलिए अगर कला को सार्वजनिक बनाना है, उसे महामानव की सम्पत्ति के रूप में देखना है और वास्तविक बनाना है, तो उसकी शुरुआत सफाई से ही करनी चाहिए।”
सफाई, जीवन का, सभ्यता का, अविभाज्य अंग है। शिक्षा में सफाई का पाठ अनिवार्य हो ऐसा मानने वाले वल्लभ स्वामी रस्किन की शिक्षा की व्याख्या का उदाहरण देते हैं, “हवा, पानी और मिट्टी को ठीक ढंग से बरतना आना ही शिक्षा है यानी बिना बिगाड़े उनका कैसा उपयोग करना और बिगड़े हों तो उन्हें कैसे दुरुस्त करना ही शिक्षा है।” ऐसा करने से हमारे देहात घूरे पर बसाये गए नहीं दिखेंगे।
वल्लभ स्वामी की पुस्तक अपने समय के अनुरूप है। तब, देहात क्षेत्र बड़ा था और कचरे के प्रकार भी सीमित थे। अब, हर तरफ शहर और उसी प्रकार के कस्बे और देहात हैं। कचरों की मात्रा और प्रकार बढ़े हैं। इसीलिए पुस्तक की विधि सिद्धांत रूप में सही होकर भी पर्याप्त नहीं है। अब, हम जिस सभ्यता में है, उसमें रोजगार की बजाय कचरा पैदा करने के कारखाने ज्यादा हैं। बढ़ते, इलेक्ट्रानिक और मेडिको कचरे दिन-प्रतिदिन भयावह रूप ले रहे हैं, जिनके समाधान का हर नया तरीका नए कचरे को जन्म दे रहा है।
सर्वसेवा संघ का प्रकाशन विभाग भी वहीं काम करता है जो नरेन्द्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है, यानी बनारस। यह भी एक संयोग देखिए कि जिस बनारस के सांसद, प्रधानमन्त्री ने सफाई जैसे उपेक्षित मुद्दे को समाज जीवन के केन्द्र में लाकर खड़ा कर दिया है, उसी बनारस में लगभग एक सदी पूर्व 1916 में गाँधी जी ने गन्दगी पर तीखी टिप्पणी की थी। ‘सफाई-विज्ञान और कला’ छपकर तैयार है। उसे स्वयं के लोकार्पण का इंतजार है। क्या प्रधानमन्त्री प्रकाशकों की इच्छा का सम्मान करते हुए पुस्तक का लोकार्पण करेंगे? समय की प्रतीक्षा है। तब तक वल्लभ स्वामी की पुस्तक, ‘सफाई-विज्ञान और कला’ का पाठ ही हमारे लिए उपयोगी होगा।
साभार : यथावत 1-15 मई 2015