कविता पंत
सही मायने में कहा जाए जो प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी का स्वच्छ भारत अभियान कोई लोक लुभावन परियोजना नहीं है बल्कि देश को कचरा प्रबन्धन के मुद्दे पर दिखाई गई एक दिशा और इस समस्या का प्रयास है। प्रधानमन्त्री के स्वच्छ भारत अभियान को शहरी और ग्रामीण दो भागों में बांटा गया है।
केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड द्वारा कराए गए एक अध्ययन के अनुसार भारत के शहरों से करीब 1.60 लाख मीट्रिक टन ठोस कचरा हर रोज निकलता है। नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के अनुसार देश में हर वर्ष 7.2 मीट्रिक टन खतरनाक औद्योगिक कचरा, 4 लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा, 1.5 मीट्रिक टन प्लास्टिक कचरा, 1.7 मीट्रिक टन मेडिकल कचरा, 48 मीट्रिक टन नगर निगम का कचरा निकलता है। इसके अलावा 75 प्रतिशत से ज्यादा सीवेज का निपटारा नहीं होता है।
राजधानी दिल्ली में 1950 से लेकर अब तक 12 बड़े कचरे के ढेर बनाए जा चुके हैं जो सात मंजिल तक ऊँचे हैं। मुम्बई का सबसे बड़ा कचरे का ढेर 110 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला देवनार कचरा स्थल है। यहाँ 92 लाख टन कचरे का ढेर लग चुका है। इस इलाके के पास बसी झोपड़ पट्टियों में प्रत्येक 1000 बच्चों में से 60 बच्चे जन्म लेते ही मर जाते हैं, जबकि बाकी मुम्बई में यह औसत 30 बच्चे प्रति हजार हैं। यही हाल अन्य महानगरों और शहरों का भी है। यह कचरा लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। कचरे से रिसकर जहरीला रसायन जमीन, हवा और पानी को दूषित कर रहा है और इनके पास रहने वाली आबादी अनेक गम्भीर बीमारियों जैसे मलेरिया,टीबी, दमा और चर्म रोगों से पीड़ित है।
कचरे का अगर सही प्रबन्धन किया जाए तो इससे लाभ भी मिल सकता है। यदि हम कचरे का ठीक से निपटारा करें तो इतने कचरे से 27 हजार करोड़ रुपये की खाद पैदा की जा सकती है। 45 लाख एकड़ बंजर जमीन को उपजाऊ खेतों में बदला जा सकता है, 50 लाख टन अतिरिक्त अनाज पैदा करने की क्षमता हासिल की जा सकती है और दो लाख सिलेण्डरों के लिए अतिरिक्त गैस हासिल की जा सकती है। विकसित देशों में कचरा प्रबन्धन बड़े लाभप्रद व्यवसाय में बदल चुका है। इससे खाद, बायोगैस और बिजली बनाई जा रही है। कुछ कचरे को रिसाइकिल करके उससे वस्तुएँ बनाई जा रही हैं।
घरों से निकलने वाले कचरे में बचा हुआ भोजन, रेत, बजरी, कागज, प्लास्टिक, धातु, शीशा आदि हैं। ठोस कचरे में प्लास्टिक सबसे हानिकारक वस्तु है जो पर्यावरण को नुकसान पहुँचाता है। गलियों, मुहल्ले, रेलवे स्टेशनों, रेल की पटरियों और सड़कों पर बिखरी प्लास्टिक की थैलियां बरसात में पानी के साथ बहकर नालियों को बन्द कर देती हैं। प्लास्टिक हमारे लिए परेशानी पैदा कर रहा है क्योंकि प्रकृति इसे नष्ट नहीं कर सकती और कीड़े इसे खा नहीं सकते। लेकिन कागज, प्लास्टिक, एल्यूमीनियम और शीशे को रिसाइकिल करके इनका दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है।
शहरों से निकलने वाले कचरे को ठिकाने लगाने का काम एक बड़ी समस्या बन चुका है। इस कचरे के निपटान के लिए कई तरीके अपनाए गए। इनमें से एक तरीका, शहरों के कचरे का इस्तेमाल जमीन को भरने अथवा लैण्डफिल के लिए करने का है। लेकिन इसके कारण शहरों के आसपास के कुछ गाँव कूड़ाघर और बीमारियों का घर बन चुके हैं। कचरे से जमीन तो समतल हो गई लेकिन ऐसी जगहों में जमीन का पानी विषैला होने का खतरा पैदा हो गया। साथ ही जमीन में दबे कचरे के कारण इन स्थानों से कई गैसों का रिसाव हो रहा है।
विकसित देशों की तुलना में हमारे यहाँ हर वर्ष निकलने वाले कचरे की मात्रा काफी कम है लेकिन यह प्रतिवर्ष 20 प्रतिशत की दर से बढ़ रहा है। शहरी कचरे का 30-55 प्रतिशत जैविक कचरा होता है जिससे खाद बनाई जा सकती है जबकि अजैविक कचरे की रिसाइक्लिंग से कई चीजें बनाई जा सकती है, 40-45 प्रतिशत कचरे को जमीन में गाड़ा जा सकता है जबकि 5-10 प्रतिशत को रीसाइक्लिंग किया जा सकता है।
विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार अफ्रीका में हर वर्ष करीब 70 मिलियन टन कचरा निकलता है लेकिन उसने इस कचरे के निपटान के लिए इस तरह से निवेश किया है कि हजारों अफ्रीकियों को इसमें नौकरियां मिली हैं और ये उनकी आमदनी का जरिया बन चुका है। थाईलैण्ड अपने 22 प्रतिशत और नीदरलैण्ड अपने 64 प्रतिशत कचरे की रिसाइक्लिंग करने में सफल रहा है।
एक अन्य समस्या औद्योगिक कचरे की है। औद्योगिकीकरण के कारण कचरे का स्तर बढ़ा है जो दुनिया की तबाही का सबब बन सकता है। औद्योगिक कचरे का निपटान करने के लिए देश में लोहे और प्लास्टिक के अलावा धातुओं का कबाड़, ल्यूब्रीकेंट के नाम पर रासायनिक द्रव्य जहरीले रसायन, पुरानी बैटरियां और बेकार हो चुकी मशीनों को गलाया जा रहा है जिससे वायु प्रदूषण के अलावा मिट्टी में भी जहरीले रसायन समा रहे हैं। पुराने इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे फ्रिज, वाशिंग मशीन, कम्प्यूटर और प्रिण्टर, टेलीविजन, मोबाइल आई-पॉड आदि में से कुछ में जहरीली सामग्री होती है जिससे कैंसर और नर्वस सिस्टम को प्रभावित करने वाली बीमारियाँ हो सकती हैं।
ई-कचरा काफी खतरनाक है खासतौर से जब इस कचरे से धातुओं को अलग किया जाता है। एसोचैम के अनुसार देश में सालाना 4.4 लाख टन इलेक्ट्रॉनिक कचरा उत्पन्न होता है। दुनिया में हर वर्ष 18 करोड़ कम्प्यूटर बेकार हो रहे हैं और 2030 तक एक अरब कम्प्यूटरों का कचरा हो जाएगा। इनकी रिसाइक्लिंग करना भी आसान नहीं है। भारत में ई-कचरे के निपटान की उचित व्यवस्था होनी चाहिए, साथ ही विदेशों से ई-कचरे का आयात नहीं किया जा सके, इसके लिए कानून बनाया जाना चाहिए।
हमने धरती से तीन गुना अधिक क्षेत्र में फैले समुद्र को भी कचरे से प्रदूषित और विषाक्त करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। हम इस बात को नहीं समझ रहे हैं कि महासागर जलवायु को बनाए रखने में मदद करते हैं। समुद्र में कचरा फेंकने का खामियाजा नाइजीरिया 1998 में भुगत चुका है जब उसके कोको बन्दरगाह में इटली की एक कम्पनी 3800 टन खतरनाक कचरा छोड़ गई थी। कचरे में रेडियोधर्मी पदार्थ होने के कारण लोग मरने लगे। वहां बचे लोगों को कोको से हटाना पड़ा। लेकिन बड़ी संख्या में समुद्री जीव-जन्तु मारे गए। समुद्र में जहाजों से बिखरने वाले तेल के कारण भी इन जीव-जन्तुओं को नुकसान पहुँचता है लेकिन अब अन्तरराष्ट्रीय समझौते के अन्तर्गत समुद्रों में कचरा फेंकने पर प्रतिबन्ध लगाया जा चुका है। मनुष्य समुद्र में इतना कचरा फेंक चुके हैं कि अगर अन्तरिक्ष में टोह लेने वाले कैमरों से देखें तो कचरे का अम्बार अमरीका के नक्शे के आकार का दिखाई देता है। हमें आने वाले समय में महासागरों को भी प्रदूषित होने से बचाना होगा।
कचरा प्रबन्धन के लिए वर्ष 2000 में ठोस कचरा नीति बनाई गई। इस नीति में शहरों में सड़कों पर कचरे के डिब्बों की व्यवस्था करने के बजाय सड़क पर कचरा फेंकने पर रोक लगा दी गई और इसके लिए एक समय सीमा निर्धारित कर दी गई। अनेक दिशा-निर्देश जारी किए गए लेकिन अन्त में इसका पालन सही तरीके से नहीं होने के कारण उच्चतम न्यायालय को विभिन्न उच्च न्यायालयों से इसकी निगरानी करने को कहना पड़ा। शहरों और गाँवों में ठोस कचरा प्रबन्धन के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं :
1. शहर के बाहरी इलाकों में खाली जमीन अथवा सड़क के किनारे खुले में कूड़ा गिराना रोकना होगा क्योंकि इससे गन्दगी और प्रदूषण फैलने के साथ-साथ बीमारियाँ फैलने का खतरा रहता है। निश्चित दूरी पर कूड़ेदान लगाए जाने चाहिए। ऐसे शौचालय और हाथ-मुँह धोने के लिए कमरे की व्यवस्था होनी चाहिए जिनका इस्तेमाल एक निश्चित मूल्य चुकाने के बाद किया जा सकता है।
2. सार्वजनिक स्थानों पर जहाँ-तहाँ कचरा फैलाने वाले व्यक्तियों पर दण्ड लगाने का प्रावधान होना चाहिए और यदि कचरा फैलाने पर उन्हें लगातार पकड़ा जाता है तो उन्हें सामाजिक केंद्र पर अपनी निशुल्क सेवाएँ देने के लिए भेजा जाना चाहिए।
3. नगर निगम की जिम्मेदारी तय की जाए कि वह समय पर कूड़ा उठाए और कचरे की सही तरीके से छँटनी की जाए। जैविक कचरा कूड़ेदानों अथवा खुली जगहों में बहुत दिनों तक छोड़ देने से सड़ने लगता है। जैविक और अजैविक कचरे की छँटनी के लिए जन-जागरुकता पैदा करना जरुरी है।
4. राज्य सरकारों को जैविक, अजैविक दोनों प्रकार के कचरों के लिए अलग-अलग रंग के बन्द कूड़ेदानों के साथ ही कूड़ा उठाने के लिए चारों ओर से बन्द बड़े वाहनों की व्यवस्था करनी चाहिए। अक्सर देखा गया है कि इन गाड़ियों से कूड़ा गिरकर सड़क पर बिखर जाता है और इसकी सड़ान्ध से लोगों के लिए मुश्किल पैदा हो जाती है।
5. अजैविक कचरे के निपटान के लिए इसकी रिसाइक्लिंग के बाद बचे अवशेष को निर्धारित मानकों के अनुसार गहराई में गड़वाया जाए।
6. कचरा बीनने वालों, कबाड़ियों तथा इसको व्यवसाय के रूप में अपनाने वाले लोगों को कचरे से जुड़े व्यवसाय का प्रशिक्षण दिया जा सकता है ताकि वे जैविक कचरे से खाद बना सकें। दूध के पैकेट, पॉलीथिन, प्लास्टिक के थैलों की रिसाइक्लिंग से जुड़े उद्योगों को बेचकर लोग आमदनी भी कर सकते हैं।
7. होटलों और घरों मे काम करने वालों, सफाई कर्मचारियों को जैविक और अजैविक कचरा एकत्र करने और उसे अलग करने के लिए अतिरिक्त राशि देकर प्रोत्साहित किया जा सकता है।
8. ग्रामीण इलाको में अधिकतर कचरे का निपटान किया जा सकता है। इसे खाद बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। खेतों में रासायनिक खाद की जगह बढ़िया जैविक खाद डालकर किसान मुनाफे के साथ उच्च गुणवत्ता वाली फसलें उगा सकते हैं। इसके अलावा रसोई के लिए बायोगैस और रोशनी के लिए बिजली के छोटे संयन्त्र आसानी से लगाए जा सकते हैं। बेरोजगारों को आईटीआई के माध्यम से बायोगैस, बिजली बनाने का प्रशिक्षण दिया जा सकता है।
9. शहर और जिला-स्तर पर अपशिष्ट रिसाइक्लिंग संयन्त्र बनाए जाएँ।
10. कचरे को जलाना इसे ऊर्जा में परिवर्तित करने का अच्छा तरीका है। यह कचरे की मात्रा को कम कर देता है और पर्यावरण को स्वच्छ बनाता है।
11. अस्पताल और होटलों सहित सभी वाणिज्यिक इकाइयों को स्वयं एक विशेष प्रणाली बनाने के लिए कहा जाए ताकि वहाँ का कचरा सीधे ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन इकाइयों में डाला जा सके।
12. ठोस कचरा प्रबन्धन के क्षेत्र में नवीनतम तकनीक विकसित की जाए। जागरुकता अभियान के लिए स्कूली बच्चों और गैर-सरकारी संगठनों को शामिल किया जाए। सफाई के बारे में लोगों को शिक्षित करने और उन्हें अपने आसपास की जगह साफ-सुथरी रखने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए मशहूर हस्तियों और टीवी विज्ञापनों का उपयोग किया जाए।
13. तरल कचरा प्रबन्धन के लिए गाँवों में नल वाले चबूतरों और तालाबों को नए सिरे से बनवाकर कम लागत की निकासी की व्यवस्था कराई जा सकती है। गाँवों में घरों के बाहर नालियाँ इस तरह बनाई जाएं कि घरों से निकलने वाले गन्दे पानी की निकासी गाँव के पास बनाए गए तालाबों में एकत्र हो, जहाँ से यह पानी छनकर दूसरे तालाब में जाए। इसके बाद यह पानी तालाब में दोबारा फिल्टर होकर तीसरे तालाब में पहुँचे जहाँ से इसका इस्तेमाल गाँवों में खेती और अन्य कार्य के लिए किया जाए। आज अधिकांश शहर अपने तरल कचरे का केवल एक हिस्सा निपटाने नें सक्षम हैं, बाकी तरल कचरा नदियों में ऐसे ही फेंक दिया जाता है। यमुना जैसी कुछ नदियां तो खुले नाले में तब्दील हो चुकी हैं। कई बार शहर की गन्दगी लेकर बहने वाला नाला किसी नदी में खुलता है और दोबारा शहर में इस्तेमाल होने वाले पानी में चला आता है। भारत में घरों के नलों में आने वाले पानी में जीवाणु का मिलना आम बात है जो मल से निकलता है।
14. ट्रेन में जैव-शौचालयों का निर्माण कराया जाए और गाँवों में सामुदायिक शौचालय बनाए जा सकते हैं।
देश में खुले में शौच करना एक बड़ी समस्या है। हालांकि पिछले 22 वर्षों में खुले में शौच करने वालों की संख्या काफी कम हुई है लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में आज भी सबसे अधिक संख्या में लोग खुले में शौच करते हैं और इनकी संख्या 597 मिलियन है। जिन लोगों के पास शौचालय की सुविधा नहीं है वह गटरों में, झाड़ियों के पीछे, सड़क के किनारे अथवा तालाबों या खुले पानी के नजदीक जाते हैं। इससे संक्रमण और बीमारियां फैलती हैं। खुले में शौच करने वाले 10 लोगों में से 9 ग्रामीण इलाकों में रहते हैं। कई ग्रामीण इलाकों में शौचालय हैं लेकिन पानी की उपलब्ध नहीं है। शहरों में झुग्गी में रहने वालों के पास न तो पानी की सप्लाई है और न ही शौचालय की सुविधा।
स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत ग्रामीण विकास मन्त्रालय प्रत्येक गाँव को अगले 5 वर्षों तक हर साल 20 लाख रुपए देगा। इसके अंतर्गत सरकार ने हर परिवार के व्यक्तिगत शौचालय की लागत 12,000 रुपए तय की है ताकि सफाई, नहाने और कपड़े धोने के लिए पर्याप्त पानी की आपूर्ति की जा सके। एक अनुमान के अनुसार पेयजल और स्वच्छता मन्त्रालय इस अभियान पर 1,34,000 करोड़ रुपए खर्च करेगा।
ठोस और तरल कचरा प्रबन्धन की समस्या से हर छोटे-बड़े शहर और महानगर जूझ रहे हैं। कचरे के कारण प्रदूषण बढ़ रहा है और यह जलवायु परिवर्तन के लिए भी खतरा बनता जा रहा है। कचरे का पुनर्चक्रण या रिसाइक्लींग एक वैश्विक समस्या है और भारत के लिए भी यह एक बड़ी चुनौती बन गया है। अगर इस समस्या का समय रहते समाधान नहीं किया गया तो यह एक बड़े संकट का रूप ले लेगी।
शहरी क्षेत्र में हर घर में शौचालय बनाने, सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालय बनाने और ठोस कचरे का उचित प्रबन्धन करने का लक्ष्य रखा गया है। इसमें सार्वजनिक और सामुदायिक शौचालयों के लिए 2-2 लाख से ज्यादा सीटें मुहैया कराना शामिल है। जिन क्षेत्रों में घरेलू शौचालय बनाने में समस्या है वहाँ सामुदायिक शौचालय बनाए जाएंगे। बाजार, बस अड्डे, रेलवे स्टेशन के पास पर्यटन स्थलों पर और सार्वजनिक मनोरंजन स्थलों पर सार्वजनिक शौचालय की सुविधा दी जाएगी। शहरी विकास मंत्रालय ने इस मिशन के लिए 62,000 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं।
सबसे पहले सरकार को मैला ढोने की प्रथा पर पूरी तरह से रोक लगानी चाहिए और इसके लिए बने कानून को कड़ाई से लागू करना चाहिए। सरकार इस सम्बन्ध में सितम्बर 2013 में एक विधेयक पारित कर चुकी है और दिसम्बर 2013 में इसके लिए एक अधिसूचना भी जारी कर चुकी है।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी 1895 में जब ब्रिटिश सरकार ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों और एशियाई व्यापारियों के साथ उनके स्थानों को गन्दा रखने के आधार पर भेदभाव किया था, तब से लेकर अपनी हत्या के एक दिन पहले तक गाँधीजी लगातार सफाई रखने पर जोर देते रहे।
गाँधीजी ने रेलवे के तीसरी श्रेणी के डिब्बों में बैठकर देशभर का दौरा किया था और वह इस श्रेणी के डिब्बों में गन्दगी से स्तब्ध थे। उन्होंने अखबारों को पत्र लिखे और गन्दगी की तरफ सभी का ध्यान आकृष्ट किया था। 25 सितम्बर 1917 को लिखे अपने पत्र में उन्होंने लिखा कि इस तरह की संकट की स्थिति में यात्री परिवहन को बन्द कर देना चाहिए। जिस तरह की स्थिति इन डिब्बों में है उसे जारी नहीं रहने दिया जा सकता क्योंकि इससे हमारे स्वास्थ्य और नैतिकता पर प्रभाव पड़ता है। तीसरी श्रेणी के यात्री को भी जीवन की बुनियादी जरुरतें हासिल करने का अधिकार है। उसकी उपेक्षा कर हम लाखों लोगों को व्यवस्था, शालीन जीवन की शिक्षा देने, सादगी और उनमें स्वच्छता की आदतें विकसित करने का बेहतरीन मौका गंवा रही हैं।
लेकिन रेलवे की गन्दगी आज भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। रेल के डिब्बों और शौचालयों को साफ रखने के लिए कर्मचारियों को तो रखा जाता है लेकिन यात्रियों को उन्हें गन्दा करने में किसी प्रकार की शर्म नहीं महसूस होती। लोग शौचालयों का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं करते। यहाँ तक कि वातानुकूलित डिब्बों में यात्रा करने वाले पढ़े-लिखे लोग भी अपने बच्चों को शौचालय की सीट का इस्तेमाल नहीं करवा कर उन्हें बाहर ही शौच करवाते हैं। डिब्बों में कूड़ा फैलाना तो आम बात है।
प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने स्वच्छता अभियान के लिए नई पहल की है जिसका असर दिखने लगा है। इस बारे में बहस शुरू हुई है और स्वच्छता अभियान में हर रोज समाज के अनेक वर्ग के प्रतिष्ठित लोग जुड़ रहे हैं। स्कूल-कॉलेज में स्वच्छता पर जोर दिया जाने लगा है लेकिन पूरी सफलता तभी मिलेगी जब हम घर से इसकी शुरुआत करें। अभिभावक बच्चों को घर के साथ सार्वजनिक स्थलों की साफ-सफाई के लिए प्रेरित करें और इस काम को आचरण और नैतिकता से जोड़े। बाहर की सफाई के लिए सरकार नगर निगम से लेकर पंचायत तक सीधे संवाद की व्यवस्था करे और हर प्रकार के कचरे के निपटारे के लिए प्रबन्धन व्यवस्था को दुरुस्त करें।
हमें इस बात को भी समझना होगा कि सफाई के लिए यह माहौल इसलिए बनाना पड़ा कि अपनी लापरवाही के कारण हम दिनोंदिन परेशानियों का शिकार बन रहे हैं। इसका अर्थ है समस्या हमने खड़ी की है तो समाधान भी हम सभी को मिलकर निकालना होगा। यानी स्वच्छ भारत होगा गन्दगी और बीमारियाँ दूर होंगी ही, साथी ही साफ-सुथरे माहौल में जिन्दगी जीने का मजा दुगुना हो जाएगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
ई-मेल : kavitapant24@yahoo.co.in
साभार : कुरूक्षेत्र दिसम्बर 2014
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