अरुण कुमार त्रिपाठी
तो क्या 2019 तक भारत सिंगापुर की तरह साफ-सुथरा हो जाएगा? प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और उनके सलाहकारों के दावों को मानें तो ऐसा ही लगता है। लेकिन विशेषज्ञों की सुनें तो बात कुछ और ही निकलती है। हाल में हैदराबाद में नगर नियोजकों के एक कार्यक्रम में नेशनल यूनिवर्सिटी आफ सिंगापुर की मनोविज्ञानी एनजी ने भारत और सिंगापुर के समाजों के फर्क को रेखांकित करते हुए दोनों के अन्तर को स्पष्ट किया। उनका कहना था कि सिंगापुर एक व्यवस्थित और अनुशासित समाज है जो सफाई, शिक्षा, कानून और व्यवस्था, प्रौद्योगिकी और नवोन्मेष पर जोर देता है। उन्होंने आगाह किया कि भारतीय समाज और उसका मनोविज्ञान अलग है। वहाँ कानून का कठोर पालन न होने के कारण एक तरह की जीवन्तता और लचीलापन है जो कि सिंगापुर का समाज खो चुका है। हालांकि सिंगापुर का समाज अब बदल रहा है और उसमें लचीलापन लाने का प्रयास किया जा रहा है। इसके बावजूद उनकी यह चेतावनी हैदराबाद और दूसरे उभरते भारतीय शहरों के लिए ज्यादा मौजूं है कि अगर कम प्रौद्योगिकी का प्रयोग करने वाले समाज में अचानक आधुनिक प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया जाएगा तो उसके दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। वे जीवन पद्धति में एक प्रकार का तनाव, हादसे और अफरातफरी पैदा करेंगे।
हालांकि सफाई के जिस सिंगापुरी मॉडल को मोदी और उनके सलाहकार अपनाने की बात कर रहे हैं वह सिंगापुर में भी पिछले तीस सालों के दौरान ही तैयार हुआ है। वर्ष 1965 से पहले वहाँ की आधी आबादी के पास सफाई की व्यवस्था थी। लेकिन 1997 तक वहाँ की सौ प्रतिशत आबादी सफाई की आधुनिक सुविधाओं से लैस थी। पर जो चीज 53 लाख की आबादी वाले और 55 लाख डालर की प्रति व्यक्ति जीडीपी वाले संप्रभु शहर रूपी देश के सम्भव है क्या वह सवा अरब की आबादी वाले और लगभग अराजक व्यवहार में जीने वाले भारत देश के लिए सम्भव है? शायद ना, शायद हाँ।
भारत के नगर नियोजकों को मानना है कि चंडीगढ़ जैसा आधुनिक शहर अभी भी व्यवस्थित होने की प्रक्रिया में है और गुड़गांव जैसे शहर में दस साल में एक हिस्सा अचानक बड़ी शहरी आबादी (बीस लाख) के साथ खड़ा हो गया है जबकि बाकी हिस्सा अभी भी गंवई है। लगभग इसी स्थिति में भारत के मुंबई, दिल्ली और कोलकाता जैसे शहर जीते हैं।
सवाल यह है कि अगर प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी और उनके अधिकारी वर्ष 2019 तक देश में 11 करोड़ शौचालय बनवा भी देंगे तो क्या भारत के सभी लोग उसका प्रयोग करने ही लगेंगे? दरअसल भारतीय समाज अजीब तरह के पाखण्ड में जीता है वह कभी अपने साधु-संतों की आड़ लेकर मन की सफाई की बात करने लगता है तो कभी नरेन्द्र मोदी के हिन्दुत्व की अच्छाई देखते हुए उनके सफाई अभियान पर मुग्ध हो जाता है, लेकिन वह न तो साधु-संतों की तरह मन की सफाई में यकीन करता है न ही मोदी की बाहरी सफाई में। वह समाज की गैर-बराबरी में जीते हुए प्रसन्न रहता है और आज मोदी के भाजपाई शासन में वैसे ही गाड़ी का दरवाजा खोलकर सड़क पर पान या गुटखे की पीक थूकने में यकीन करता है जैसे कांग्रेसी शासन में थूकता था।
भारतीय समाज की मुश्किल यह है कि आन्तरिक सफाई पर जोर देने वाले उसके नेता उस पर इतना जोर दे देते हैं कि बाह्य सफाई को भूल जाते हैं और बाह्य सफाई पर जोर देने वाले उसमें इस कदर मगन हो जाते हैं कि अन्दर तमाम तरह की कटुता और वैमनस्यता को पालते रहते हैं।
कहते हैं कि एक बार कबीर से महान सूफी संत फरीद मिलने आए। कबीर ने अपनी झोपड़ी के बाहर सूअर बाँध दिया। वे सूअर को देखकर बिदक गए और लाहौल बिलाकूबत करते हुए किसी तरह कबीर के पास तक पहुंचे। उन्होंने आपत्ति की पर कबीर ने जब बाहरी गंदगी पर ध्यान न देकर मन की सफाई की बात की तो वे सहमत हो गए। ऐसे ही डोम की अपवित्रता से भागते आदि शंकराचार्य से जब डोम ने उन्हीं की शब्दावली में सवाल किया कि अपवित्र क्या है? अगर शरीर अपवित्र है तो वह तो नश्वर है और आत्मा जो कि अजर और अमर है वह कैसे अपवित्र हो सकती है? इसलिए डोम का सवाल था कि वे किसे अपवित्र समझ कर भाग रहे हैं शरीर को या आत्मा को? इस सवाल ने शंकराचार्य को निरुत्तर कर दिया और उऩ्हें डोम से नए प्रकार के ज्ञान की प्राप्ति हुई।
भारतीय समाज की मुश्किल यह है कि आन्तरिक सफाई पर जोर देने वाले उसके नेता उस पर इतना जोर दे देते हैं कि बाह्य सफाई को भूल जाते हैं और बाह्य सफाई पर जोर देने वाले उसमें इस कदर मगन हो जाते हैं कि अन्दर तमाम तरह की कटुता और वैमनस्यता को पालते रहते हैं।
ऐसा ही एक संस्मरण लखनऊ में हिंदी के चर्चित साहित्य और कला समीक्षक कृष्ण नारायण कक्कड़ का है। कक्कड़ साहब नहाते कम थे और जाड़ों में तो उनका नहाने का अंतराल लंबा हो जाता था। किसी ने उनके हाथ और पैरों की मैल देखकर कहा कि कक्क़ड़ साहब आप भले न नहाएं लेकिन कभी- कभी हाथ पैर तो चमका लिया करें, इस पर उन्होंने अपने माथे की तरफ इशारा करते हुए कहा कि मैं इसे चमकाता हूं और आप हाथ पैर। सफाई के बारे में भारत के दुविधाग्रस्त, लापरवाह और पाखण्डी मनोविज्ञान के बारे में डा लोहिया का वह अवलोकन एकदम सही बैठता है कि- भारत के लोग विचार और व्यवहार में काफी अंतर मान कर चलते हैं। उन्हें लगता है कि आदर्श चिंतन में और पुस्तकों में रहता है उसे जमीन पर नहीं उतारा जाता, जबकि यूरोप के लोग यह मानते हैं कि हर वह चीज जो सोची जाती है उसे जल्दी से जल्दी लागू भी किया जाना चाहिए। दोनों समाजों का यही द्वैध है और यही दिक्कत भी।
भारतीय समाज के दुविधा और पाखण्डपूर्ण मनोविज्ञान का सामना मोदी के सफाई अभियान को भी करना पड़ रहा है। एक तरफ ऐसे लोग हैं जो मानते हैं कि भारतीय समाज की सारी गंदगी जाति व्यवस्था की देन है और जब तक इसे खत्म नहीं किया जाता तब तक सफाई का अभियान महज ढकोसला है। क्योंकि जो समाज अपनी सफाई का जिम्मा समाज के किसी एक तबके पर जबरदस्ती थोप कर निश्चिंत हो जाता है वह वास्तव में एक गंदा समाज है और कभी साफ हो नहीं सकता। उसका यह भी मानना है कि मोदी का सफाई अभियान महात्मा गांधी को हड़पने का ऐसा अभियान है जो गांधी को महज सफाई तक सीमित कर देना चाहता है और उनके सत्य, अहिंसा और सद्भाव को सजावटी सिद्धांत बनाकर छोड़ देना चाहता है। इसके विपरीत मोदी और उनके समर्थक सोच रहे हैं कि एक तरफ संघ परिवार और उसके समर्थक धर्म परिवर्तन, घर वापसी और रामजादा बनाम हरामजादा की भाषा बोलते रहें, मुसलमान और ईसाई को विश्व युद्ध के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए अपना हिंदू राष्ट्र का एजेंडा लागू करते रहें और दूसरी तरफ सफाई के नाम पर मध्य वर्ग और अंतरराष्ट्रीय समुदाय को खुश रखते हुए उदारीकरण का कार्यक्रम लागू करते रहा जाए। लेकिन सफाई का सिद्धांत और व्यवहार इन दोनों अतियों के बीच कहीं स्थित है।
भले ही इस बीच भारत के सफाई अभियान के गांव और शहर की बनावट पर कुछ चर्चांएं हो जाएं लेकिन उस अभियान को हकीकत में उतारने का संकल्प सरकार और समाज में अच्छी तरह नजर नहीं आता। गंदगी के कारण तमाम तरह के नुकसान उठाने वाला और बीमारियां झेलने वाला भारतीय समाज उस पर चर्चा करने से बचता है या उस काम में लगे लोगों की घनघोर उपेक्षा करता है। यह बात जीवन से हर अंतरंग पहलू को दिखाने वाली बालीवुड की फिल्मों से भी साबित होती है। फिर भी खुले में शौच और सीवेज के निस्तारण की समस्या से जुड़े कुछ दृष्य निर्देशकों की नजर में आ ही जाते हैं। श्याम बेनेगल की फिल्म ‘मंथन- में-अनंतनाग’ दुग्ध सहकारिता के काम से गांव जाता है। वह शौच के लिए झाड़ियों के पीछे जाता है तो उधर से गांव की महिलाएं गुजर रही होती हैं। शर्माते हुए वह उठकर किसी और झाड़ी के पीछे जाता है संयोग से महिलाओं का रास्ता उधर से भी होकर गुजरता है। इस दौरान उसकी दुर्गति और महिलाओं की टिप्पणियों को निर्देशक ने अच्छी तरह पकड़ा है। अच्छी बात है कि गांव जाने वाले शहरी पुरुषों की इस समस्या को श्याम बेनेगल ने बारीकी से पकड़ा है। लेकिन असली समस्या स्त्रियों और लड़कियों की है। शौचालय न होने के कारण खुले में शौच जाने को मजबूर महिलाओं और लड़कियों की दिक्कतें स्वास्थ्य, सुरक्षा और अपमान सभी स्तरों पर घटित होती हैं।
हाल में महिलाओं के साथ बढ़ने वाली बलात्कार की घटनाओं के साथ देश के मीडिया, नेता और सामाजिक कार्यकर्ताओं को यह बात समझ में आई कि खुले में शौच महिलाओं के लिए कितना दिक्कत तलब और जोखिम भरा है। उनके नित्यकर्म का समय शाम होने के बाद और सुबह होने से पहले के बीच सीमित है। इस बीच वे जरूरत होने पर भी टालने को मजबूर रहती हैं। दिन में वे जहां भी जाती हैं वहाँ राहगीरों के आने जाने के साथ बार-बार उठकर खड़ी होने को मजबूर रहती हैं। भारत में 30 करोड़ महिलाएं खुले में शौच करने को बाध्य हैं। 23 प्रतिशत लड़कियां मासिक धर्म के कारण स्कूल छोड़ देती हैं और 66 प्रतिशत उस समय स्कूल नहीं जातीं। वजह साफ है कि देश के 40 प्रतिशत स्कूलों में शौचालय नहीं है।
गांवों की इसी समस्या को देखते हुए डा राम मनोहर लोहिया ने पचास के दशक में ही गांवों में महिलाओं के लिए शौचालय बनाने को अपनी पार्टी का एजेंडा बना रखा था। गांवों की यह समस्या अर्द्धग्रामीण तरीके से शहरों में रह रहे समाज में भी है। दिल्ली झुग्गियों की 66 प्रतिशत महिलाओं को शौच जाते समय छेड़खानी की समस्या का सामना करना पड़ता है, 46 प्रतिशत को बाकायदा रोका जाता है और 30 प्रतिशत पर हमला होता है।
सफाई की कमी का दूसरा वितृष्णापूर्ण दृश्य स्लमडाल मिलेनेयर में है। वहाँ बच्चा मलकुंड में कूदकर जब बाहर आता है तो किसी भी मनुष्य क्या जानवर की भी संवेदना को झकझोर देने के लिए पर्याप्त होता है। बच्चों के साथ जुड़े गंदगी के उस दृश्य का वास्तविक विस्तार हम तब देख सकते हैं जब सीवर साफ करने के लिए किसी सफाई कर्मचारी को मेनहोल में उतारते हैं और उसके पहले उसे शराब भी पिला देते हैं। ताकि उसकी चेतना मंद पड़ जाए।
इससे वह कभी अपना काम कर डालता है तो कभी कमजोर चेतना और उपकरणों के अभाव में जहरीली गैस की चपेट में आकर वहीं दम तोड़ देता है।
पर्यटन के अंतरराष्ट्रीय नक्शे पर स्थित आगरा शहर की गंदगी की गंभीर समस्या की तरफ ध्यान खींचते हुए ब्रज हेरिटेज फाउंडेशन के ब्रज खंडेलवाल कहते हैं कि - यहां आधी आबादी के पास शौचालय नहीं है। वे खुले में बैठते हैं। इसलिए आवारा पशु घूमते रहते हैं। ताजगंज जैसे इलाके इसके उदाहरण हैं। लेकिन उससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि यहां गंदगी के निस्तारण का कोई वैज्ञानिक इंतजाम नहीं है। बोरिंग करके गंदगी जमीन में डाली जा रही है। यह अवैध काम है और इससे धरती प्रदूषित हो रही है। वे बताते हैं कि बाग फरजाना में 6000 लोगों के लिए सीवेज लाइन पड़ी थी पर वहाँ आज बदहाली यानी स्लमडाल मिलेनेयर की स्थिति है।
शहीद नगर से चलकर सीवेज लाइन ट्राइडेंट पर खत्म हो जाती है। जेपी होटल में सीवेज कनेक्शन नहीं है। इसलिए जरूरत विकेंद्रीकृत सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाने, नदी के समांतर नहर बनाने, गंदगी से बिजली बनाने और उसे रिसाइकिल करने के लिए वर्मी पोस्ट बनाया जाने की है।
इन स्थितियों के बीच भारत का सफाई अभियान सिद्धांत और व्यवहार में तालमेल की कमी और संसाधनों के अभाव में उलझा और घिसटता हुआ लगता है। एक तरफ उसे जाति व्यवस्था से जोड़कर अंतिम सांस्कृतिक क्रांति तक मुल्तवी करने की दलील है तो दूसरी तरफ उसे सिर्फ फोटो खिंचवाने वाला कार्यक्रम बनाने की होड़ है। इस दौरान स्त्रियों और बच्चों के अधिकारों से जोड़कर देखे जाने के यूनिसेफ के वाश अभियान का विशेष महत्व बन सकता है अगर वह व्यापक समाज और सरकार को अपने से जोड़ सके।
सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य को ध्यान में रखकर अमेरिका और नीदरलैंड ने गीवा यानी ग्लोबल इंटरफेथ वाश अलायंस के माध्यम से इस काम में धार्मिक नेताओं को भी जोड़ा है। इसमें पुरुष साधुओं के साथ साध्वियां भी जुड़ी हैं। अगर गांधी सफाई को आजादी से ज्यादा जरूरी बताते थे तो वे उसके बहाने अपने समाज की दूसरी कुरीतियों पर भी हमला करते थे। वे भारतीय शौचालयों (शुष्क शौचालय की पद्धति) को हमारी सभ्यता का कलंक बताते थे और इससे निजात पाने को प्रेरित करते थे। डा लोहिया इस बात को दूसरी तरह से रखते थे। उनका मानना था कि भारत गुलाम इसलिए हुआ क्योंकि यहां जाति और यौन के कटघरे बने हुए थे। इसलिए भारत की आजादी को सार्थक बनाने और उसे फिर पिछड़ेपन में ढकेले जाने और गुलाम होने से बचाने के लिए सफाई के सिद्धांत और व्यवहार को विकसित किए जाने की जरूरत है। उससे जाति, मजहब और यौन के कटघरे टूटेंगे और अपने समाज का मन और तन दोनों साफ होगा।
स्वच्छताः मिथक और यथार्थ
आमतौर पर माना जाता है कि ज्यादा गरीब , अशिक्षित और पिछड़ा होने के कारण मुसलमानों में हिन्दुओं के मुकाबले सफाई कम है। लेकिन यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के माइकल जेरुसो और दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स के डीन स्पीयर्स के अध्ययन इसके विपरीत निष्कर्ष निकालते हैं। वे अपने अध्ययन को मुस्लिम मृत्यु दर की पहेली बताते हैं। वे कहते हैं कि भारत में मुस्लिमों में बाल मृत्यु दर हिन्दुओं के मुकाबले कम है। हिन्दुओं में यह दर 18 प्रतिशत ज्यादा है। तमाम आर्थिक कारक इसकी व्याख्या करने में असफल रहते हैं इसलिए ये समाजशास्त्री इसकी व्याख्या खुले में शौच और उससे होने वाले संक्रमण के आधार पर करते हैं और पाते हैं कि यह प्रवृत्ति मुसलमानों में कम और हिन्दुओं में ज्यादा होती है। सन 2005 का सरकारी सर्वे बताता है कि गाँव और शहर में 67 प्रतिशत हिन्दू खुले में शौच करते हैं जबकि उसकी तुलना में महज 42 प्रतिशत मुस्लिमों में ऐसी प्रवृत्ति पाई जाती है।
1. प्रिंसटन के अर्थशास्त्री डायने कैफे के अध्ययन के तहत 23 हजार घरों का सर्वे यह बताता कि जहां शौचालय है वहां भी परिवार के कई सदस्य बाहर जाने का चयन करते हैं।
2. उत्तर भारत और नेपाल के हिन्दू गाँवों के सर्वे बताते हैं कि यहाँ के लोग खुले में शौच को ज्यादा स्वस्थ प्रवृत्ति मानते हैं। ऐसा हरियाणा के गांवों के सर्वे में भी पाया गया है।
3. पुरुष मानते हैं कि घरों में बने हुए शौचालय तो महिलाओँ के लिए होते हैं।
4. भारत के 59.4 करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं।
5. भारत की 44 प्रतिशत माताएं अपने बच्चों को मल बाहर फेंकती हैं और इससे उनमें डायरिया, हैजा, टायफाइड, साँस की बीमारी, त्वचा की बीमारी और आंख का संक्रमण होता है।
6. भारत के गाँवों में महज 21 प्रतिशत आबादी अच्छी सफाई व्यवस्था का प्रयोग करती है।
7. भारत की महज 31 प्रतिशत आबादी बेहतर सफाई व्यवस्था का इस्तेमाल करती है।
8. भारत में पाँच साल से कम उम्र के महज 6 प्रतिशत बच्चे शौचालय का प्रयोग करते है।
9. बांग्लादेश और ब्राजील में सिर्फ 7 प्रतिशत आबादी खुले में शौच करती हैय़
10. चीन में खुले में शौच करने वाली आबादी सिर्फ चार प्रतिशत है।
11. भारत की सतह का 80 प्रतिशत पानी सीवेज के कारण प्रदूषित रहता है।
12. देश के 5161 शहरों में 4861 शहरों में आंशिक सीवेज नहीं है।
13. दुनिया के एक अरब लोग खुले में शौच जाते हैं इनमें 47 प्रतिशत आबादी भारत की है।
14. दुनिया के 2.5 अरब लोगों के पास विधिवत सफाई व्यवस्था नहीं है।
15. अगर शौचालय पर एक डालर खर्च किया जाएगा तो लोगों के स्वास्थ्य को 5.50 डालर का फायदा होगा।
16. केन्द्रीय ग्रामीण विकास मन्त्रालय ने 1999 में सकल सफाई अभियान शुरू किया था।
17. 2012 में यूपीए सरकार ने निर्मल भारत अभियान शुरू किया और 2014 में एनडीए सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान चालू किया।
18. गुजरात के सकल सफाई अभियान की नियन्त्रक और लेखा महापरीक्षक ने खिंचाई की है। सीएजी का कहना है कि जब 2008 से 2013 तक नरेन्द्र मोदी वहाँ के मुख्यमन्त्री थे तब नगरपालिका के ठोस कचरा निस्तारण में कुप्रबन्धन किया गया।
19. मोदी के मुख्यमंत्रित्व कार्यकाल में पांच हजार सरकारी प्राइमरी स्कूलों में शौचालय नहीं बने। उस समय राज्य सरकार ने अहमदाबाद और पोरबन्दर की जिला विकास एजेंसियों की जिम्मेदारी तय नहीं की।
20. केन्द्र सरकार ने 2019 तक 1000 शहरों के सफाई अभियान का संकल्प लिया है। इस दौरान 11 करोड़ शौचालय बनवाए जाएँगे। अभियान के पहले चरण में 3.6 करोड़ लोगों को सफाई की सुविधा(वाटर सैनिटेशन एंड हाइजीन यानी वाश) उपलब्ध कराई जाएगी।
21. सुलभ इंटरनेशनल दिल्ली जयपुर हाईवे पर गुड़गांव के पास एक सफाई विश्वविद्यालय की स्थापना करेगा। अभी तक इस तरह का संस्थान कोलकाता में है। इस संस्थान का नाम है-आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हाइजीन एंड पब्लिक हेल्थ।
22. सफाई न होने के कारण भारत को उसकी जीडीपी का 6 से सात प्रतिशत तक नुकसान उठाना पड़ता है।
ईमेल : tripathiarunk@gmail.com