43 वर्ष पूर्व जब सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन का उद्भव हुआ, उस समय लोग शौचालय की चर्चा करना भी उचित नहीं मानते थे। आज वही शौचालय डाइनिंग टेबल पर चर्चा का विषय बन जाता है। आज विश्व में 2.6 अरब व्यक्ति खुले में शौच के लिए जाते हैं। इसके साथ ही एक दुःखद सत्य यह भी है कि इस संख्या का 60 प्रतिशत भाग भारतीय हैं- यह इसलिए कि यहाँ शौचालयों का अभाव है। मानव-मल से न केवल हमारा पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, बल्कि इससे पूरे विश्व में, विशेषकर विकासशील देशों में, उदर-सम्बन्धी अनेक बीमारियाँ होती हैं।
आज शौचालय-समस्या एक गम्भीर विषय के रूप में उभरकर उन देशों की सरकारों को भयभीत कर रही है, जहाँ स्वच्छता-सुविधाओं का अभाव है । भारत सरकार के माननीय ग्रामीण विकास, पेयजल एवं स्वच्छता मन्त्री श्री जयराम रमेश ने शौचालयों के महत्त्व को पहचानते हुए यहाँ तक कह दिया कि शौचालय उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं, जितने मन्दिर। 2013-14 में होने वाले विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार श्री नरेन्द्र मोदी ने भी अभी हाल ही में अपने एक भाषण में भारतवर्ष में शौचालयों के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा कि देवालय से पहले शौचालय चाहिए।
यह सत्य है कि केवल राजनेता ही नहीं, अन्य लोग भी स्वच्छता के महत्त्व के प्रति जागरूक हैं। आजादी प्राप्ति के पश्चात् भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री माननीय पंडित जवाहर लाल नेहरू ने बेहिचक कहा था कि भारत तथी विकास कर सकेगा, जब देश में रहनेवाले प्रत्येक परिवार के पास एक शौचालय उपलब्ध होगा। इसी कड़ी में स्वच्छता के पक्ष में जनता को जागरूकक करने के प्रयास में शामिल हैं सिने तारिका श्रीमती विद्या बालन, जो स्वच्छता की ब्रैंड ऐम्बसडर के रूप में प्रतिदिन टेलीविजन पर यह कहती दिखाई पड़ती हैं- ‘अपने घर में शौचालय बनवाएँ एवं हमेशा के लिए घर से बीमारियों को दूर भगाएँ।’
शौचालय के महत्त्व को समझाते हुए संयुक्त राष्ट्र-द्वारा भी अपने सहस्राब्दी विकास लक्ष्य के छह एजेंडों में से एक ‘सबके लिए स्वच्छ शौचालय’ को शामिल किया गया। संयुक्त राष्ट्र को उपलब्ध हुए नूतन आँकड़ों के अनुसार, विश्व जल-सम्बन्धी सहस्राब्दी विकास लक्ष्य को प्राप्त करने की राह पर है, किन्तु बात जब स्वच्छता की आती है तो यह काफी पीछे रह गया है। आज भी ढाई अरब लोगों तक स्वच्छता-संसाधनों की पहुँच नहीं हो पाई है- इन्हें शौचालय के अभाव में खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है।
जलापूर्ति एवं स्वच्छता पर बने संयुक्त निरीक्षण-कार्यक्रम की रिपोर्ट के अनुसार, भारतवर्ष के 17 राज्यों द्वारा, जिनमें केरल, हरियाणा, मेघालय, हिमाचल-प्रदेश एवं पंजाब आदि के साथ कुछ केंद्र-शासित प्रदेश भी शामिल हैं- स्वच्छता के सहस्राब्दी, विकास-लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है, जबकि असम, आन्ध्र-प्रदेश एवं अरूणाचल-प्रदेश को इस लक्ष्य को प्राप्त करने में अभी 10 वर्ष और लगेंगे। कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु एवं छत्तीसगढ़ आदि कुछ राज्य ऐसे हैं, जो अगले 25 वर्षों में इस लक्ष्य को पूरा करेंगे, जबकि मध्य प्रदेश और ओडिशा के विषय में अन्देशा है कि यदि उचित कदम नहीं उठाए गए तो वह निर्धारित लक्ष्य को 2015 में और उड़ीसा 2106 से पूर्व प्राप्त नही कर पाएंगे।
विश्व के लगभग सभी देशों की सरकारों ने यह निश्चय किया है कि स्वच्छता के क्षेत्र में उचित विकास कर 2015 तक उन लोगों की संख्या घटाकर आधी कर दी जाएगी,जिन्हें पर्याप्त स्वच्छ पेय जल एवं स्वच्छता की आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि भारत में पेय जल से संबद्ध काफी कार्य हुआ है, फिर भी दिल्ली, मुम्बई-जैसे महानगरों में लोग पेय जल के लिए इधर-उधर भटकते नजर आते हैं।
1990 के बाद विश्व में जिन लोगों को स्वच्छता के संसाधन उपलब्ध हुए हैं, उनमें प्रति 10 में से 4 व्यक्ति चीन अथवा भारत में निवास करते हैं, किन्तु दूसरी ओर यह भी यथार्थ है कि इन्हीं दो देशों में वे 2.5 अरब लोग भी निवास करते हैं जो स्वच्छता के संसाधनों से वंचित हैं। 1990 से लेकर 2010 तक भारत में लगभग 25 करोड़ लोगों की स्वच्छता-संसाधनों तक पहुँच बढ़ी है, किन्तु इसे यदि प्रतिशत में देखा जाए तो यह अधिक आबादी के कारण कम रहा है। इसका एक कारण जनसंख्या की वार्षिक वृद्धि-दर काफी अधिक होना भी है। 2010 में पाँच वर्ष से कम आयु में मरनेवाले बच्चों की संख्या लगभग एक करोड़ सत्तर लाख थी, जो विश्व में इस उम्र में मरनेवाले बच्चों की कुल संख्या का 22 प्रतिशत है। अतः यदि हम देश को विकसित राष्ट्र का स्वरूप प्रदान करना चाहते हैं तो हमें स्वच्छता के मानकों पर खरा उतरना पड़ेगा।
साभार : सुलभ इण्डिया अक्टूबर 2013