राष्ट्रपिता के सपनों का स्वच्छ भारत

जागृति राही

महात्मा गाँधी दुनिया भर में भारत की पहचान है दुनिया भर में 2 अक्टूबर गाँधी जयन्ती अहिंसा दिवस के रूप में इसीलिए मनाया जाता रहा है। इस वर्ष हमारे प्रधानमन्त्री ने इसे स्वच्छता अभियान से जोड़ दिया, ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का पूरे देश में स्वागत किया गया। लोगों में स्वयं को इस अभियान से जुड़ा हुआ दिखाने की होड़ लग गयी, बड़ी-बड़ी हस्तियाँ भारत को स्वच्छ बनाने के लिए झाड़ू ले कर सड़कों, चौराहों घाटों पर निकल पड़ीं।

गाँधी स्वच्छता के बारे में क्या सोचते थे यह आज की पीढ़ी को जानना आवश्यक है। साउथ अफ्रीका से लौटने के बाद गाँधी ने पूरा देश घूमकर देखा, गाँधी समझ चुके थे कि इस गरीब जनसंख्या वाले देश में जहाँ बड़े पैमाने पर हैजा जैसी महामारियाँ लाखों लोगों की जान ले लेती थी स्वास्थ्य के लिए स्वच्छता का कितना महत्व है। इसीलिए वह बचपन से ही सफाई की अच्छी आदतों के संस्कार बच्चों में दिये जाने को महत्व देते रहे हैं। उन्होंने गन्दगी करने से स्वयं को रोकने के लिए अपने लेखों द्वारा विस्तारपूर्वक जनता को सन्देश दिया। गाँधी अपने बचपन के दिनों में राजकोट में अपने घर में सफाई के लिए आने वाले मेहतर के साथ अछूत मानकर व्यवहार किये जाने पर अपनी माँ से बहस की और कहा कि हमारे घर को साफ करने वाले के छूने से मैं गन्दा कैसे हो सकता हूँ। गाँधी जी ने अपने तमाम आश्रमों में सादगी और स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा और आश्रम में रहने वाले हर व्यक्ति से दैनिक साफ-सफाई के कामों को स्वयं ही किया जाना अनिवार्य शर्त बनाया। उनका कहना था कि हर व्यक्ति को अपना मेहतर स्वयं बनना चाहिए तभी समाज से छूआ-छूत नाम की गन्दगी मिटेगी और हमारे गाँव शहर स्वच्छ व सुन्दर बनेंगे। स्वच्छता और शारीरिक श्रम को गाँधीजी कितनी प्रतिष्ठा और महत्व देते थे यह उनके साउथ अफ्रीका से लेकर साबरमती, वर्धा, सेवाग्राम हर जगह बनाये गये आश्रमों और उसमें रहने के दौरान उनकी दिनचर्या को देखकर बताया जा सकता है। गाँधीजी की स्वच्छता का सम्बन्ध व्यक्ति की सोच, जीवन शैली में बदलाव लाने और भेद-भाव को मिटाने से था। सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता के महत्व को समझाने के लिए उन्होंने कांग्रेस के सम्मेलनों में स्वयं शौचालय की सफाई करके लोगों को प्रेरित किया, उनके द्वारा आह्वान करने के कारण बाद में कांग्रेस के सम्मेलनों के दौरान स्वयंसेवकों का एक भंगी दस्ता बनाया जाने लगा जिसमें शौचालयों की सफाई का काम ब्राह्मण किया करते थे। अतः हम समझ सकते हैं कि गाँधी की सफाई हमारे देश में छूआ-छूत मिटाकर सामाजिक समरसता लाने और श्रम की प्रतिष्ठा करते हुए अन्तिम व्यक्ति के सम्मान की लड़ाई थी। उन्होंने ‘स्वच्छता’ को हर व्यक्ति की जिम्मेदारी बनाना चाहा और कहा कि  आपकी महानता आपके घर के शौचालय की स्वच्छता दशा से नापी जानी चाहिए। उनके द्वारा महत्व दिए जाने का ही परिणाम था कि आश्रम से रोज सुबह की सैर के वक्त कार्यकर्ता आस-पास के गाँवों की दलित बस्तियों में जा कर सफाई का सन्देश ही नहीं देते थे बल्कि स्वयं झाड़ू लेकर सफाई करते थे।

बापू अपनी मृत्यु के दो वर्ष पूर्व अपने प्रवास के दौरान दिल्ली और मुम्बई की भंगी बस्तियों में ही जा कर रहे। गाँधीजी ने पूना में कहा था कि सफाई का ये काम स्वयं करना ही स्वराज के सिपाही की पहली योग्यता है। उन्होंने कहा था कि जब तक हममे से हर एक व्यक्ति स्वयं अपनी और दूसरों की गन्दगी साफ करने के लिए हाथों में बाल्टी और झाड़ू नहीं लेगा तब तक इस देश में सफाई कायम नहीं होगी। उन्होंने बच्चों की शिक्षा के लिए बुनियादी तालीम की जो अवधारणा बनायी उसमें भी श्रम, स्वच्छता एवं कौशल के विकास पर पूरा जोर था। गाँव के सार्वजनिक कुओं, कुण्डों, जलाशयों के आस-पास गन्दगी फैलाने को गाँधी ने ‘महापाप’ कहा था।

सफाई केवल ‘कामगारों’ या नगर निकायों की ही जिम्मेदारी नहीं है, ये हर भारतीय की जिम्मेदारी है। साथ ही साथ सरकार को यह भी ध्यान देना होगा कि इस देश में आज भी एक बड़ी जनसंख्या ऐसे लोगों की है जो इंसानी गन्दगी को सिर पर ढोते हैं और मेनहोल में उतरकर अपनी जिन्दगी जोखिम में डालने को अभिशप्त है। क्यों नहीं हमारी सरकार सफाई कर्मचारियों को जरूरत के अनुपात में शहरों-गाँवों में बहाली करती नजर आती है। उनके काम करने हेतु जरूरी औजार और बेहतर परिस्थितियों का निर्माण उनके स्वास्थ्य की नियमित देखभाल और बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराने के प्रावधान को इस स्वच्छता अभियान का हिस्सा बनाकर इसे और प्रभावी तथा गाँधीजी के अन्तिम व्यक्ति की कसौटी पर सही बनाया जा सकता है।

दरअसल भारत में स्वच्छता पर लोगों के अन्दर जागरूकता लाना, हर परिवार को सेनिटेशन की सुविधा से जोड़ना या शौचालय उपलब्ध कराना, शहरों में कचरे का निस्तारण और व्यक्तिगत सफाई के लिए स्वच्छ पानी की उपलब्धता सुनिश्चित कराना एक बड़ी जिम्मेदारी है। स्वच्छ भारत अभियान इन्हीं सब द्वारा शुरू किया गया है। यह लक्ष्य हमें 2019 में गाँधीजी की 150वीं वर्षगाँठ तक हासिल कर लेना है। यह केवल एक ‘नारा’ या सदिच्छा ना बन कर रह जाए इसके लिए स्वच्छता के हर स्तर पर योजनाबद्ध तरीके से काम होना जरूरी है।

आज हमारे देश के शहरों में सफाई की समस्या गाँवों की तुलना में ज्यादा विकराल रूप में खड़ी है। शहरों में जो लाखों टन कचरा रोज निकलता है उसके निस्तारण हेतु कोई प्रभावी सिस्टम अब तक निकाला नहीं जा सका है। नदियों के किनारों, शहर के बाहरी, निचले हिस्सों में कूड़े के पहाड़ खड़े किये जाते हैं। कचरे के निस्तारण के लिए जो व्यवस्था वर्तमान में अपनायी जा रही हैं उसमें भ्रष्टाचार और कमाई का बोलबाला है इसलिए स्थानीय एवं सीधी सरल विकेन्द्रित तकनीक अपनाने की बजाय कूड़े को समस्या बनाया जा रहा है। यह मानने का कोई कारण नहीं है कि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लेने वाले हमारे देश के वैज्ञानिक अपने देश की जरूरतों और परिस्थितियों के मुताबिक कम संसाधन में चलने वाली कूड़े के निस्तारण की देसी तकनीक का विकास नहीं कर सकते। गाँधीजी ने तो ग्राम स्वराज में स्थानीय संसाधनों के विकास और विकेन्द्रित अर्थ व्यवस्था पर सबसे अधिक जोर दिया था फिर क्यों हमें बाहरी शक्तियों के आगे हाथ फैलाना पड़ता है। नदियों, सागर के किनारे की जमीनों पर कूड़े के पहाड़ खड़े करके हम अपने पर्यावरण का पूरी तरह विनाश करने पर उतारू हैं। दायरे में इन समस्याओं का समावेश भी जरूरी है।

कुछ राजधानियों को छोड़ दे तो सार्वजनिक शौचालयों और स्नानगृहों की व्यवस्था छोटे-बड़े शहरों, बस्तियों, कस्बों से पूरी तरह गायब है। देश में सामुदायिक शौचालयों का निर्माण सुलभ जैसी इकलौती संस्थाओं के भरोसे एक सीमित मात्रा में हो सका है। आँगनबाड़ी केन्द्रों, स्कूलों, बस अड्डों स्वास्थ्य केन्द्रों, भीड़-भाड़ वाली तमाम जगहों पर महिलाओं के लिए ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं होती जबकि यह एक प्रथमिक प्रकृतिक जरूरत है।

स्वच्छ भारत स्वस्थ भारत होगा यह हम सब जानते हैं तो इसके बहुआयामी स्वरूप और नियोजन पर सोचा जाना चाहिए इसके लिए पर्याप्त धनराशि की व्यवस्था की जानी चाहिए। राज्यों की सरकारों को भी प्राथमिकता को तौर पर बड़े पैमाने पर इसे अपनी योजना एवं बजट का हिस्सा बनाना चाहिए। पर क्या ऐसा हो पाएगा? सवाल अन्त में नीयत का है। यदि इस देश के हर बच्चे को स्वयं सेविकाओं द्वारा पोलियों की ड्राप पिलायी जा सकती है वर्षों तक, तो क्यों नहीं सफाई के स्वयंसेवकों का निर्माण किया जाए। वे गाँव-गाँव में, शहर-शहर में शौचालय बनाए जाएँ। ‘मेक इन इण्डिया’ की शुरूआत यहीं से हो तो बेहतर है।

लेखक का सम्पर्क पता : सर्व सेवा संघ, राजघाट, वाराणसी (उ.प्र.)

साभार :  राजघाट समाधि पत्रिका मार्च 2015

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