अमरनाथ
‘हर घर में शौचालय अपना, यही है हमारा सपना’ का सरकारी नारा अक्सर सुनाई पड़ता है। इस सपने को साकार करने में विभिन्न सरकारें अपनी ओर से तत्पर भी हैं। पर अगर हर घर में शौचालय बन गए तो स्वच्छता के लिहाज से बहुत बुरा होगा क्योंकि प्रचलित ढंग के शौचालयों से मानव मल का निपटारा नहीं होता। इससे महज खुले में मल त्याग करने से छुटकारा मिल जाता है और शौचालयों में एकत्र मानव मल आखिरकार जलस्रोतों को मैला करता है। तकनीक विकास के आधुनिक दौर में भी मानव मल का निपटारा एक बड़ी समस्या बना हुआ है। ऐसे में बरबस गाँधीजी की सीख ‘मल पर मिट्टी’ की याद आती है। उस तकनीक के आधार पर बिहार के बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में खास किस्म के शौचालयों का विकास हुआ जो परिष्कृत होकर ‘फायदेमन्द शौचालय’ अर्थात ‘इकोसैन’ के रूप में प्रचलित हो रहे हैं।
हमारे मल में बरकरार पैथोजन को अगर उपयुक्त माहौल नहीं मिले तो थोड़े दिन में वे नष्ट हो जाते हैं जबकि पानी पैथोजन को पनपने का अवसर देता है, इससे वह मरता नहीं है। मल को मिट्टी, राख या चूना से ढक देने से आॅक्सीजन का स्रोत बन्द हो जाता है और वह अपने विभिन्न अवयवों में विभाजित होकर नाइट्रोजन, फाॅसफोरस और पोटैशियम का बेहतरीन स्रोत बन जाता है।
आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। इसी सिद्धांत पर बिहार के बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में फायदेमन्द शौचालयों का विकास हुआ। बाढ़ के दौरान जब चारों तरफ पानी भरा होता है, तब शौच की विकट समस्या उत्पन्न होती है। मर्द तो पेड़ इत्यादि पर चढ़कर निपट लेते हैं। पर महिलाएँ कैसी समस्याएँ झेलती हैं उसे समझना और बतलाना कठिन है। ऐसे में बाँस के खूँटों पर पटरे डालकर और केले के तने व बोरियों से घेर कर अस्थायी इन्तजाम किया जाने लगा। कुशेश्वर स्थान के पास ऐसी संरचनाएँ आज भी दिख जाती हैं। परन्तु इस तरीके से रिहाइशी इलाके में गन्दगी और बदबू फैलती। बाद में जीपीवीएस जैसी संस्थाओं के हस्तक्षेप से लोगों ने उस संरचना को व्यवस्थित रूप दिया और कोसी तटबन्ध के बीच फँसे गाँवों में स्वच्छता के साथ ही बेहतरीन खाद व कीटनाशक तैयार करने का नायाब प्रयोग आरम्भ हुआ। समन्वित जल संसाधन प्रबंधन के कार्य को जर्मनी की संस्था वेल्ट हंगर हिल्फे के सहयोग से संचालित किया है।
फायदेमन्द शौचालय में मानव मल और मूत्र को अलग-अलग टंकियों में एकत्र किया जाता है। मल पर मिट्टी, राख या चूना डालकर बदबू से बचाव और मल को खाद में बदलने का इन्तजाम किया जाता है तो मूत्र में पानी डालकर तत्काल उपयोग कर निबटा दिया जाता है।
वैज्ञानिकों के अनुसार, हमारे मल में पैथोजन होते हैं जो सम्पर्क में आने पर हमारा नुकसान करते हैं। इसलिए मल से दूर रहने की सलाह दी जाती है। शौच के बाद ठीक से सफाई करने की आदत डाली जाती है। शायद इसीलिए फ्लश लैट्रिन की खोज को बेहद क्रान्तिकारी मान लिया गया और शौच के बाद फ्लश चलाने के बाद हम उस मल के बारे में सोचना भी बन्द कर देते हैं। इससे हमारे सारे जलस्रोत - नदियाँ और उनके मुहाने, छोटे-बड़े तालाब और भूजल बुरी तरह तबाह हो रहे हैं।
पर हमारे मल में बरकरार पैथोजन को अगर उपयुक्त माहौल नहीं मिले तो थोड़े दिन में वे नष्ट हो जाते हैं जबकि पानी पैथोजन को पनपने का अवसर देता है, इससे वह मरता नहीं है। मल को मिट्टी, राख या चूना से ढक देने से आॅक्सीजन का स्रोत बन्द हो जाता है और वह अपने विभिन्न अवयवों में विभाजित होकर नाइट्रोजन, फाॅसफोरस और पोटैशियम का बेहतरीन स्रोत बन जाता है। शोधकर्ताओं के अनुसार, एक मनुष्य प्रति वर्ष जितने मल-मूत्र का त्याग करता है, उससे बने खाद से इतनी फसल की पैदावार हो सकती है जितना उसे सालभर जिन्दा रहने के लिए जरूरी होता है।
अगर कोसी क्षेत्र के फायदेमन्द शौचालयों की तरह देश के विभिन्न प्रकार के इकोसैन-सूखे शौचालयों का नया व्यवसाय बन जाए तो आँकड़े बताते हैं कि देश की आबादी सालाना 80 लाख टन नाइट्रोजन, फाॅस्फेट और पोटैशियम दे सकती है। तब हमारी 115 करोड़ की आबादी में हर व्यक्ति खाद की एक छोटी-मोटी फैक्ट्री खोल लेगा।
सुपौल जिले के बेलही गाँव में विद्यानन्द मण्डल बताते हैं कि मानव मूत्र में तीन गुना कीटनाशक और दस गुना पानी मिलाने पर उर्वरक बन जाता है। उसे नालियों के जरिए आसपास के खेतों, बाग-बगीचों में भेजा जा सकता है। मल के लिए दो टंकियाँ बनती हैं। मल के साथ चूना, या राख, मिट्टी से जब भर जाता है तो उसे छोड दिया जाता है। और दूसरी टंकी का इस्तेमाल किया जाने लगता है। दो-चार-छह महीने में जरूरत के अनुसार शौचालय की भरी पड़ी टंकी से बेहतरीन उर्वरक निकालकर खेतों में पहुँचाया जाता है। उस उर्वरक में नाइट्रोजन, फाॅसफोरस और पोटैशियम की अच्छी मात्रा, बेहतरीन अनुपात में होती है। यही रसायनिक तत्व हैं जिनके लिए हम रासायनिक उर्वरक खरीदते हैं।
आज भी देश के एक तिहाई लोग शौचालयों का इस्तेमाल नहीं करते। समूचे भारत में लोग खुले में शौच करने की जगह तलाशते दिखते हैं। आबादी बढ़ने, घनी बस्तियों के पनपने और दूसरे कारणों से ‘खुले में शौच जाना’ गरीमाहीन और रिहाइशी बस्तियों के आसपास के इलाकों को गन्दा, बदबूदार और अस्वास्थ्यकर बनाता है। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में खासतौर से अधिक कठिनाई होती है। महिलाएँ जो कठिनाई झेलती हैं, उसे कहना कठिन है। महिलाओं को अक्सर रात होने का इंतजार करना पड़ता है। ग्राम विकास समिति की कपूर देवी बताती हैं कि शौच की समुचित व्यवस्था नहीं होने से महिलाएँ पेट की कई बीमारियों से ग्रसित हो जाती हैं। इसलिए महिलाओं के लिए शौचालय बनाना बहुत ही जरूरी है।
कार्यक्रम के समन्वयक वीरेन्द्र जी बताते हैं कि शौचालय बनाना है, तब कैसा बनाना है, इसका प्रश्न आता है। वीरेन्द्र कुमार बताते हैं कि बरसात में जब चारों ओर पानी भरा रहता है, भूजल का स्तर ऊपर रहता है। टंकियों के भीतर-बाहर जलस्तर समान रहने से मल-जल प्रवाहित नहीं होता। जिन सुलभ शौचालयों की धूम अभी चारों ओर है, उनमें भी यह दोष है। विकल्प के रूप में लोग फायदेमन्द शौचालयों को अपना रहे हैं। इन 18 गाँवों में फरवरी 2015 तक 103 फायदेमन्द शौचालय बनाए गए हैं। पिछले सालभर में 31 शौचालय बने। जीपीवीएस की मदद से बने मॉडल शौचालयों के अतिरिक्त सरकार की सहायता से 1356 परिवारों ने शौचालय बनवाए। लगभग साठ हजार की आबादी में यह संख्या कम भले दिखती है, पर बताया जाता है कि सभी 103 परिवार इसका उपयोग कर रहे हैं। इनसे 26 क्वींटल खाद और 344 लीटर देसी कीटनाशक तैयार हुआ है।
कल्पना करें कि अगर कोसी क्षेत्र के फायदेमन्द शौचालयों की तरह देश के विभिन्न प्रकार के इकोसैन-सूखे शौचालयों का नया व्यवसाय बन जाए तो आँकड़े बताते हैं कि देश की आबादी सालाना 80 लाख टन नाइट्रोजन, फाॅस्फेट और पोटैशियम दे सकती है। तब हमारी 115 करोड़ की आबादी में हर व्यक्ति खाद की एक छोटी-मोटी फैक्ट्री खोल लेगा। जिनके पास शौचालय बनाने के पैसे नहीं हैं या खाद की जरूरत नहीं है, वे अपने मल-मूत्र की खाद बेच सकते हैं। अगर यह काम चल जाए तो लोगों को शौचालय इस्तेमाल करने के लिए पैसे दिए जा सकते हैं। इसमें रसायनिक खाद पर दी जाने वाली 50,000 करोड़, जी हाँ पचास हजार करोड़ रुपए की सब्सिडी पर होने वाली बचत को भी जोड़ लें तो इन शौचालयों की सम्भावना कुछ अलग ही नजर आती है।
यूरोप और अमेरीका में ऐसे अनेक राज्य हैं जो अब लोगों को सूखे टाॅयलेट की ओर प्रोत्साहित कर रहे हैं। चीन में ऐसे कई ऐसे शहर बन रहे हैं जहाँ सभी आधुनिक बहुमंजिली इमारतों में कम्पोस्ट टॉयलेट होंगे।
गाँधीजी कहा करते थे- अपने मल को मिट्टी से ढक दो। वर्धा आश्रम में आज भी इसका नमूना दिख जाता है। वहाँ प्रचलित ढंग के शौचालय नहीं बने। आठ-दस टंकियाँ बनी हुई हैं। एक के भर जाने पर उसे छोड़ दिया जाता है और दूसरी का इस्तेमाल किया जाता है। मिट्टी, राख, चूना रोज डाला जाता है। कुछ महीनों के बाद उस सूखी खाद को खेतों में पहुँचा दिया जाता है। फिर वह टंकी उपयोग के लिए प्रस्तुत हो जाती है। जीपीवीएस के संस्थापक तपेश्वर भाई कहते हैं कि आज विश्व के तमाम वैज्ञानिक गाँधीजी की दिखाई उसी राह पर वापस आ रहे हैं।
यूरोप और अमेरीका में ऐसे अनेक राज्य हैं जो अब लोगों को सूखे टाॅयलेट की ओर प्रोत्साहित कर रहे हैं। चीन में ऐसे कई शहर बन रहे हैं जहाँ सभी आधुनिक बहुमंजिली इमारतों में कम्पोस्ट टॉयलेट होंगे। इस पूरे कारोबार में सैकड़ों नौकरियाँ पैदा होंगी, कम्पोस्ट फसल की पैदावार बढ़ाएगा और मल के सम्पर्क में आने से होने वाली बीमारियों से बचाएगा।
सारे एशिया में मल-मूत्र को खाद बनाकर खेतों में उपयोग करने की लम्बी परम्परा रही है। फिर चाहे वो चीन हो, जापान या इण्डोनेशिया। हमारे यहाँ भी यह होता था, पर जरा कम क्योंकि हमारे यहाँ गोबर की खाद रही है जो मनुष्य के मल-मूत्र से बनी खाद के मुकाबले कहीं बेहतर और सहज होती है। हमारे देश में भी उन इलाकों में जहाँ गोबर की बहुतायत नहीं थी, वहाँ मल-मूत्र से खाद बनाने का रिवाज था। लद्दाख में आज भी पुराने ढंग के सूखे शौचालय देखे जा सकते हैं जो विष्ठा से खाद बनाते हैं।
दरअसल, विकास की असन्तुलित धारणा ने हमें हमारे मल को दूर फेंकने के लिए प्रोत्साहित किया है, फ्लश लैट्रिन के आविष्कार के बाद हमने फ्लश कर दो और भूल जाओ का ढंग अपना लिया। भंगी मुक्ति की चाहत ने भी इसे प्रोत्साहित किया। पर गन्दगी को हम चाहे जितनी दूर फेंक दें, वह हम तक लौटकर आती है। गन्दगी को सदा के लिए समाप्त करना होगा। बस, हर व्यक्ति को प्रतिदिन अपने मल पर मिट्टी, राख या चूना डालना पड़ेगा।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने गाँधी जयन्ती के अवसर पर दो अक्टूबर 2014 को गलियों में झाड़ू लगाकर स्वच्छता अभियान की शुरुआत करते हुए ‘देश के हर नागरिक से पूरे साल में केवल सौ घण्टे स्वच्छता के लिए देने’ की अपील की। सरकार की प्राथमिकता प्रधानमन्त्री मोदी की घोषणा से स्पष्ट है। उन्होंने अगले पाँच वर्षों में शौचालय बनाने में दो लाख करोड़ रुपए खर्च करने की घोषणा की ताकि 2019 तक हर घर अपना शौचालय बना सके। यह योजना 1999 से चल रही है। पर लागत, संचालन, पानी का खर्च और जलस्रोतों के प्रदूषण को देखते हुए सरकार को शौचालयों की तकनीक पर भी विचार करना चाहिए। अगर ऐसा हुआ और समाज ने प्रधानमन्त्री की अपील को मान लिया तो पूरे देश की सूरत बदल सकती है। स्वच्छता के मोदी संस्करण की पूरी रूपरेखा अभी स्पष्ट नहीं हुई, उम्मीद रखनी चाहिए।