पत्तोंं ने किया सरकार को परेशान

क्षमा शर्मा

 

बचपन में जब गर्मी शुरू होती थी तो गाँव के घर में मच्छरों की पूरी फौज आ विराजती थी। वे घर आँगन में उड़ते नजर आते थे। उबलते दूध और खाने में गिर पड़ते थे। तब माँ घर के बाहर लगे नीम के नीचे पड़े सूखे पत्तों को इकट्ठा करती थी। उन नीम के सूखे पत्तों को कड़ाही में रखकर जलाती थी और उनका धुआँ घर के कोने-कोने में फैलाती थी। और मच्छर लापता हो जाते थे। मच्छर भगाने का यह तरीका घर-घर आजमाया जाता था। इसी तरह से यदि फलों के पेड़ों या क्यारियों की सब्जियों में कीड़ा लग जाता था तो माँ उन पर चूल्हे की राख का छिड़काव करती थी और कीड़े खत्म हो जाते थे। आज के मच्छर मार केमिकल हमारे घरों के बन्द कमरों में जलते हैं और न जाने कितने रोग हमें सौंपते हैं। फसलों पर छिड़के जाने वाले कीटनाशकों का भी यही हाल है। नीम के पत्तों को जलाकर भी मच्छर भगाए जा सकते हैं और चूल्हे की राख से भी फसलों को कीड़ों से बचाया जा सकता है, यह शायद आज की पीढ़ी को पता तक न हो।

 

मोदी सरकार ने आकर कहा कि किसान को अपने खेत की मिट्टी की जाँच कराने पर एक सॉइल हेल्थ कार्ड जारी किया जाएगा। जिससे पता चल सके कि खेत की मिट्टी को कितनी खाद और कीटनाशक चाहिए। यह एक अच्छी बात है।

 

पहले खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाने को खेतों में बचे फसलों के डंठल को जलाया जाता था। ईख के खेतों में तो विशेष तौर से ऐसा किया जाता था। खबर है कि फरीदाबाद में इस साल किसानों ने खेतों में गेहूँ के डंठल नहीं जलाए हैं, तो प्रदूषण कम हुआ है। इन दिनों ग्रीन इनीशिएटिव के नाम पर कितने निजी स्वार्थ सक्रिय हैं इसकी पड़ताल शायद ही किसी ने की है। वह अमेरिका जो प्रदूषण के कारण आसमान में ओजोन की परत के क्षय को लेकर दुनिया के देशों को भाषण की घुट्टी पिलाता रहता है, वह अपने देश के व्यापारिक हितों की खातिर कभी उस प्रस्ताव पर दस्तखत नहीं करता जो ऐसे उद्योग-धन्धों को बन्द करने की माँग करता है जो प्रदूषण फैलाते हैं। वह चाहता है दूसरे देश हस्ताक्षर करें। अगर वे नहीं करेंगे तो अमेरिका उन पर तरह-तरह के प्रतिबन्ध लगाएगा मगर खुद दस्तखत नहीं करेगा। यानी समरथ को नहिं दोष गुसाईं। समर्थ व्यक्ति हो या देश अपने किए का ठीकरा हमेशा कमजोर पर ही फोड़ता है। अपने लिए वह हर नियम, कायदे, कानून की जद से दूर है। अमीर और ताकतवर की सोच यही होती है कि कोई उसका क्या बिगाड़ लेगा।

 

एक समय था जब गाँव-गाँव गोबर की खाद का इस्तेमाल होता था। तब इसे योजनाबद्ध तरीके से खेती के पिछड़े तरीकों से जोड़ा गया। कहा गया कि इस तरीके से खेती करने से फसल कम होती है और किसानों का नुकसान होता है। कहा गया कि खेती में फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए केमिकल और फर्टिलाइजर्स डालने जरूरी हैं। जिन फर्टिलाइजर्स का उपयोग पश्चिम में वर्षों पहले रुक गया था, उनका भी प्रयोग हमारे यहाँ खेती की उन्नत तकनीकों के नाम पर धड़ल्ले से होने लगा। इससे न केवल मिट्टी विषैली हुई बल्कि खाद और कीटनाशकों ने धरती के अन्दर के पानी को प्रदूषित करना शुरू कर दिया। मोदी सरकार ने आकर कहा कि किसान को अपने खेत की मिट्टी की जाँच कराने पर एक सॉइल हेल्थ कार्ड जारी किया जाएगा। जिससे पता चल सके कि खेत की मिट्टी को कितनी खाद और कीटनाशक चाहिए। यह एक अच्छी बात है।

 

अगर ग्रीन इनीशिएटिव का ढोल बजाने वाली सरकारों को कम्पोस्ट खाद के बारे में पता होता या उन्होंने कम्पोस्ट खाद का नाम भी सुना होता तो वे अस्सी टन पत्तों से न घबरातीं। बल्कि उनके उपयोग की कोशिश करतीं।

 

वैसे भी ऑरगेनिक नाम ही इन दिनों फैशन में है। हर बड़ा आदमी और सेलिब्रिटी ऑरगेनिक की माला जपता पाया जाता है। ऑरगेनिक मतलब इन दिनों अति पवित्र बन चला है। ऐसे फल सब्जियों को बेचते वक्त यह बताया जाता है कि इनमें किसी भी तरह के किसी रसायन का प्रयोग नहीं किया गया। हालांकि इस बात की जाँच शायद ही कोई करता है। एक मशहूर एनजीओ कई साल पहले ऑरगेनिक के नाम पर चावल तीन सौ रुपए किलो बेचता था। सोचिए कि तीन सौ रुपए किलो चावल कौन खा सकता है। वही न जिनकी जेब में उतने पैसे हों। यानी कि ऑरगेनिक माने अमीरों की जेब। उनका स्वास्थ्य खराब होता है तो होता रहे। जब किसान गोबर की खाद का इस्तेमाल करता था, रासायनिक खादों से दूर था तब भी वह गरीब था। आज रासायनिक खाद का इस्तेमाल करता है तब भी वही गरीब है। पहले उसे रासायनिक खाद और कीटनाशक बेचकर चाँदी काटी गई अब ऑरगेनिक के नाम पर काटी जा रही है। लोगों को स्वास्थ्य का डर दिखाकर ऑरगेनिक वाले खूब फल-फूल रहे हैं।

 

वैसे भी ऑरगेनिक नाम ही इन दिनों फैशन में है। हर बड़ा आदमी और सेलिब्रिटी ऑरगेनिक की माला जपता पाया जाता है। ऑरगेनिक मतलब इन दिनों अति पवित्र बन चला है।

 

हाल ही में दिल्ली से सम्बन्धित एक और मजेदार खबर पढ़ी कि दिल्ली में पतझड़ के कारण अस्सी टन पत्ते इकट्ठे हो गए हैं। सरकार समझ नहीं पा रही है कि इनका क्या करें। इन्हें कैसे ठिकाने लगाए। जलाने पर तो एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) ने प्रतिबन्ध लगा दिया है। इस खबर से एक बात तो यह समझ में आई जैसा कि शीला दीक्षित सरकार ने जगह-जगह बोर्ड लगाकर बताया था कि दिल्ली का ग्रीन कवर यानी हरियाली बढ़ी है।

 

बचपन में हमारे स्कूल में हर बच्चे को कम्पोस्ट खाद बनाना सिखाया जाता था। क्योंकि हम बच्चे खेती किसानी वाले घरों से आते थे। कम्पोस्ट खाद के बारे में बताया जाता था कि कैसे इसे बचे खुचे डंठलों, पत्तों, छिलकों, उपयोग की गई चाय पत्ती, आटे की भूसी से बनाया जा सकता है। यह खाद फसलों के लिए बहुत अच्छी मानी जाती थी। अगर ग्रीन इनीशिएटिव का ढोल बजाने वाली सरकारों को कम्पोस्ट खाद के बारे में पता होता या उन्होंने कम्पोस्ट खाद का नाम भी सुना होता तो वे अस्सी टन पत्तों से न घबरातीं। बल्कि उनके उपयोग की कोशिश करतीं। सूखे पत्तों से ऊर्जा के विकल्प भी तलाशे जा सकते हैं, इस पर भी विचार करतीं।

 

साभार प्रजातन्त्र लाइव 28 अप्रैल 2015      

Post By: iwpsuperadmin
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