प्रदूषण से निपटने का कानून ‘अव्यावहारिक’

पूरन चन्द सरीन

 

हमारे देश में कानून व्यवस्था ज्यादातर अंग्रेजी राज से उधार में ली हुई है, अर्थात अंग्रेजों द्वारा जनता की बजाय अपने फायदों के लिए बनाए गए कानून हमारे राजनीतिक आकाओं ने न केवल बरकरार रखे, बल्कि उनके हवाले से अंग्रेजों की तरह मनमानी करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।

 

विडम्बना यह है कि जो नए कानून बन रहे हैं उनमें भी मानसिकता वही है जो अंग्रेजों के जमाने में हुक्मरानों की हुआ करती थी अर्थात दण्ड, जुर्माना, भय और धौंस पट्टी; यह सब आम जनता की सुविधा के लिए बनाए गए तथाकथित कानूनों में दिखाई देता है। यहाँ हम हाल ही में बने कुछ कानूनों का जिक्र करना चाहते हैं जो इतने अव्यावहारिक हैं कि उन पर अमल होना तो दूर, उनका समझ में आना भी दूर की कौड़ी है।

 

अब क्या इन सफाई कर्मियों से यह जुर्माना वसूला जाएगा? ये लोग तो वैसे ही तंगहाली, गरीबी और मुफलिसी का शिकार होते हैं, जुर्माना कहाँ से देंगे!

 

कचरा जलाया तो जुर्मान

 

नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का आदेश है कि कचरा और पत्तियाँ अगर जलाईं तो 5,000 रुपए जुर्माना देना होगा। प्रश्न उठता है कि यह जुर्माना देगा कौन?

 

सड़कों पर झाड़ू लगाने का काम तो सफाई कर्मी करते हैं और उनके पास कूड़ा उठाने और ले जाने के लिए छोटी-मोटी बाबा आदम के जमाने की टूटी-फूटी ट्रालियाँ होती हैं। पर्याप्त कूड़ाघर भी आसपास नहीं होते, नतीजतन ये सफाई कर्मी इस कचरे को एक जगह ढेर लगाकर जला देने में ही अपने कार्य को सम्पन्न मानते हैं। पतझड़ के मौसम में तो इतना कूड़ा होता है कि उसे समेटना ही मुश्किल है।

 

अब क्या इन सफाई कर्मियों से यह जुर्माना वसूला जाएगा? ये लोग तो वैसे ही तंगहाली, गरीबी और मुफलिसी का शिकार होते हैं, जुर्माना कहाँ से देंगे! क्या यह जुर्माना बस्ती वाले देंगे? वे कहेंगे कि हमने तो जलाया नहीं, जिसने जलाया उससे वसूल करो!

 

क्या यह स्थिति बिल्कुल वैसी नहीं है जैसे, कि ‘सरकारी हुक्म सिर माथे परनाला वहीं बहेगा।’

 

होना तो यह चाहिए था कि कचरे के निपटान के लिए नगरपालिका, नगरनिगम या इसके लिए जिम्मेदार किसी अन्य निकाय पर जुर्माना लगाने का कानून बनाया जाता कि अगर उनके क्षेत्र में वेस्ट डिस्पोजल के लिए जरूरी इन्तजाम नहीं किए गए तो उन पर हजारों में नहीं, बल्कि लाखों रुपयों में जुर्माना लगाया जाएगा।

 

अब तो सफाई कर्मी को मोहल्ले का कचरा और सूखी पत्तियाँ वहीं पड़े रहने देने में ही अपनी सुविधा नजर आ रही है और उसे जगह-जगह कूड़े के ढेर लगा देने का एक बढ़िया-सा बहाना और मिल गया है।

 

कचरा बनाम सोना

 

एक हकीकत यह भी है कि ऐसा नहीं है कि हमारे पास कूड़े-कचरे के निपटान के लिए सही टैक्नोलॉजी नहीं है या साधन नहीं हैं या इसमें कोई बड़ी भारी बुद्धिमता की जरूरत है। अगर ध्यान दिया जाए तो यह कूड़ा-कचरा सोने की तरह खरा है, मतलब यह कि वेस्ट डिस्पोजल की सही व्यवस्था से इसे जैविक खाद में बदला जा सकता है और हमारे खेत अनाज के रूप में सोना उगल सकते हैं।

 

यह कूड़ा-कचरा हमारे घरों को रोशनी से भर सकता है और रसोई के लिए ईंधन का इन्तजाम कर सकता है। हमारे देश के अनेक नगरों में ये यूनिट लगे हुए हैं और वहाँ कूड़ा-कचरा जलाने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

 

कचरे के निपटान के लिए नगरपालिका, नगरनिगम या इसके लिए जिम्मेदार किसी अन्य निकाय पर जुर्माना लगाने का कानून बनाया जाता कि अगर उनके क्षेत्र में वेस्ट डिस्पोजल के लिए जरूरी इन्तजाम नहीं किए गए तो उन पर हजारों में नहीं, बल्कि लाखों रुपयों में जुर्माना लगाया जाएगा।

 

इससे पहले एक आदेश आया था कि 10 साल पुराने डीजल से चलने वाले वाहनों को सड़क पर न आने दिया जाए। सब जानते हैं कि उस पर अमल करना न तो प्रैक्टीकल है और न ही आम आदमी को उससे कोई राहत मिल सकती है।

 

होना तो यह चाहिए था कि 10 साल से ज्यादा पुराने वाहन अगर फिटनेस की कसौटी पर सही पाए जाते हैं तो उन्हें चलने दिया जाए और जो फिट नहीं हों उन्हें दुरुस्त न करने पर वाहन मालिक पर जुर्माना और सख्त कार्रवाई हो।

 

कागजो में बन्द कानून

 

हमारे अधिकतर नियमों और कानूनों का अस्तित्व केवल कागजों तक ही सीमित रहने के कारण भी यही है कि वे ज्यादातर एयर कंडीशंड कमरों में और निहित स्वार्थी तत्वों की पुख्ता दलीलों को आधार मानकर बनाए जाते रहे हैं और यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी है।

 

वायु प्रदूषण कितने खतरनाक दौर में है, इसका अनुमान घर से बाहर निकलते ही हो जाता है। धुएँ से होने वाली भयंकर बीमारियों से भी हम परिचित हैं। पर्यावरण को शुद्ध बनाए रखने के लिए जरूरी है कि हम सफाई कर्मी को झाड़ू की बजाए आधुनिक मशीन दें जिनसे धूल न उड़े। हरेक मोहल्ले, बस्ती में कूड़घर हों, जहाँ कूड़ा जमा होते ही उसे वहाँ से शिफ्ट करने का इन्तजाम हो।

 

कारखानों से निकलने वाले धुएँ को नियन्त्रित करने के लिए कानून का सख्ती से पालन हो और गाड़ियों के लिए पॉल्यूशन सर्टीफिकेट तथा फिटनेस सर्टीफिकेट रखना वाहन चालकों की जिम्मेदारी हो।

 

अगर ऐसा होता है तो हमारी वर्तमान पीढ़ी तो स्वस्थ रहेगी ही, आने वाली पीढ़ी भी हमारा आभार मानेगी कि उसे विरासत में धुएँ का गुबार नहीं, साँस लेने के लिए शुद्ध ताजी हवा मिल रही है।

 

अख्तर शीरानी

 

उर्दू के मशहूर अदीब अख्तर शीरानी का जन्म 4 मई, 1905 को टोंक में हुआ था। उनके जन्मदिन पर उनकी कुछ यादें पाठकों के मनोरंजन के लिए पेश हैं :

 

कारखानों से निकलने वाले धुएँ को नियन्त्रित करने के लिए कानून का सख्ती से पालन हो और गाड़ियों के लिए पॉल्यूशन सर्टीफिकेट तथा फिटनेस सर्टीफिकेट रखना वाहन चालकों की जिम्मेदारी हो।

 

अख्तर शीरानी को शराब पीते देख कर उनके एक दोस्त ने नसीहत की, जो शराब नहीं पीते थे, ‘खुदा के लिए पीते वक्त इसमें सोडा या पानी तो मिलाया कीजिए। इस तरह पीने से दिल जल जाता है।’ अख्तर ने पैग उडेंलते हुए कहा,“ मौलाना शीरानी बेहतर जानता है कि मेरे इस तरह पीने से किसका दिल जलता है।”

 

अख्तर शीरानी, उस्ताद एहसान दानिश के पास आए और उन्हें एक मुशायरे के लिए आमन्त्रित किया। इस पर उस्ताद ने कहा,“ मियाँ, यह कब मुमकिन है कि तुम बुलाओ और मैं न आऊँ! लेकिन मजबूरी यह है कि उस दिन मैं शेखपुरा मे हूँगा।” इस पर फौरन अख्तर शीरानी ने हाथ बढ़ाकर कहा, “उस्ताद, मजा आ गया। उस दिन मुशायरा भी शेखपुरा में ही है।”

 

अख्तर शीरानी शराब के नशे में धुत्त थे कि अचानक साहिर लुधियानवी और शोरिश काश्मीरी मिल गए। साहिर ने आदर के साथ अख्तर को सिगरेट पेश किया। अख्तर सिगरेट के लम्बे-लम्बे कश लगाते हुए झूम कर बोले, “मुझे दो चीजों से बेहद प्यार है स और श… स यानी सिगरेट और श यानी शराब।”

 

फिर दूसरे ही लम्हे अपने दोनों चाहने वालों की तरफ देखते हुए बोले, “...सिर्फ यही नहीं...स यानी साहिर और श यानी शोरिश भी।”

 

ई-मेल: pooranchandsarin@gmail.com

 

साभार : नवोदय टाइम्स 2 मई 2015

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