मल विसर्जन : देसी या विदेशी

डॉ. मनोहर भण्डारी

 

यह आश्चर्य और अत्यन्त दुख की बात है कि अधिकांश उच्च शिक्षित भारतीय नागरिक अपनी परम्पराओं को अवैज्ञानिक और हेय दृष्टि से देखते हैं और उन्हें त्यागने में गर्व का अनुभव करते हैं। इसके साथ ही साथ पश्चिम की प्रथाओं और रिवाजों को बिना जाने और सोचे समझे विज्ञानसम्मत मानते हुए उन्हें अपनाने में अपना बड़प्पन मानने में कतई भी देर नहीं करते हैं। हम भारतीयों को लगने लगता है कि यदि अपनाने मे देर कर दी तो पुरातनपंथी होने का टीका हमारे साफ़ सुथरे सुशिक्षित- दीक्षित भाल पर कलंक की तरह हमेशा के लिए चस्पा हो जाएगा।

 

मल विसर्जन के पाश्चात्य तरीके को ही लें, उसे हमने इतनी तेजी से अपनाया कि सारी दुनिया इस मामले में हमसे पीछे छूट गई। इसे अपनाने के शुरुआती दौर के बाद भी हमारी शरीर विज्ञानियों की बिरादरी चुप्पी साधे बैठी रही। सच कहें तो चिकित्सा विज्ञानियों की लगभग पूरी जमात ने ही इसे बिना आगा पीछा देखे स्वयं भी अपना लिया है।

 

सिटिंग टॉयलेट के खिलाफ वैज्ञानिकों ने मोर्चा जिमी कार्टर को हुए कष्ट की घटना से काफी पहले ही खोल दिया था। दरअसल 1960 और 1970 के दशक के दौरान इस अभियान ने अच्छा जोर पकड़ा। बोकूस की गेस्ट्रोएंट्रोलाजी को टेक्स्ट बुक (1964) जो कि उस समय की बेहद प्रचलित और मानक पुस्तक मानी जाती थी, में स्पष्ट लिखा है कि मल त्याग के लिए स्क्वेटिंग ही आदर्श स्थिति है, जिसमें जाघें मुड़कर पेट को दबाती हैं।

 

जबकि अमेरिका के प्रेसिडेंट जिमी कार्टर के एक दिन के कष्ट ने वहाँ के चिकित्सकों और मीडिया को अपनी ही परम्परा के औचित्य के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर दिया था। यह 1978 के क्रिसमस के कुछ पहले की बात है, जब श्री कार्टर को (सिवियर हिमोरायड्स) गम्भीर खूनी बवासीर (सिवियर हिमोरायड्स) के कारण हुए अत्यधिक कष्ट और दर्द ने इतना परेशान किया कि उन्हें एक दिन की छुट्टी लेनी पड़ी और एक शल्य क्रिया से गुजरना पड़ा। इजिप्ट के राष्ट्रपति अनवर सादात ने अपने परम मित्र की व्यथा से उद्वेलित होकर अपने देशवासियों से अपील की कि वे सभी जिमी कार्टर के लिए प्रार्थना करें। इस घटना के कुछ सप्ताह बाद टाइम मैगजीन ने वहाँ के सुप्रसिद्ध प्रोक्टोलाजिस्ट डॉ.माइकेल फ्रेलिच (Michael Freilich) से प्रेसिडेंट की बीमारी के बारे में पूछा तो उन्होंने दो टूक जवाब दिया कि हमारा शरीर सिटिंग टॉयलेट के लिए बना ही नहीं है बल्कि यह स्क्वेटिंग के लिए ही बना है। उन्होंने मीडिया को बताया था कि हिमोरायड्स में एनल केनाल की रक्त शिराएँ (वेंस) फूल जाती हैं और कभी-कभी उनसे रक्तस्राव भी होने लगता है। वैसे तो हिमोरायड्स मोटापे, एनल सेक्स और प्रिगनेंसी के कारण हो सकता है परन्तु सबसे बड़ा कारण है मल त्याग के समय का स्ट्रेन। सिटिंग पोजिशन में स्क्वेटिंग की अपेक्षा तीन गुना ज्यादा जोर लगता है जिसके कारण रक्त शिराएँ फूल जाती हैं। यही वजह है कि लगभग पचास प्रतिशत अमेरिकन इस रोग से ग्रस्त हैं। उन्होंने अपने चिकित्सा विज्ञान के ज्ञान तथा अनुभवों के आधार पर बताया था कि स्क्वेटिंग कोलोन कैंसर से भी बचाती है पर इस दिशा मे उन्होंने कोई रिसर्च नहीं की है।

 

इजरायली शोधकर्ता डॉ. डोव सिकिरोव ने 2003 में किये अपने एक अन्य अध्ययन में पाया कि स्क्वेटर्स को मल निष्कासन में औसत 51 सेकण्ड लगते हैं और सिटर्स को 130 सेकण्ड। उनका यह शोध अध्ययन डायजेस्टिव डिसीजेस एण्ड साइन्सेस में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने इसके लिए एनो रेक्टल एंगल को जिम्मेदार ठहराया था, जो कि सिटिंग पोजिशन में कम हो जाता है और मल मार्ग को संकरा कर देता है।

 

इस अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए जापानी चिकित्सकों ने मलाशय यानी रेक्टम में रेडियो कंट्रास्ट साल्यूशन डाल कर वीडियोग्राफी की और पाया कि सिटिंग में एनो रेक्टल एंगल 100 डिग्री का होता है और स्क्वेटिंग पोजिशन में यह 126 डिग्री का हो जाता है। उनका यह अध्ययन लोअर यूरिनरी ट्रेक्ट सिमटम्स नामक मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ था।

 

हालाँकि सिटिंग टॉयलेट के खिलाफ वैज्ञानिकों ने मोर्चा जिमी कार्टर को हुए कष्ट की घटना से काफी पहले ही खोल दिया था। दरअसल 1960 और 1970 के दशक के दौरान इस अभियान ने अच्छा जोर पकड़ा। बोकूस की गेस्ट्रोएंट्रोलाजी को टेक्स्ट बुक (1964) जो कि उस समय की बेहद प्रचलित और मानक पुस्तक मानी जाती थी, में स्पष्ट लिखा है कि मल त्याग के लिए स्क्वेटिंग ही आदर्श स्थिति है, जिसमें जाघें मुड़कर पेट को दबाती हैं। प्रसिद्ध आर्किटेक्ट एलेक्जेंडर कीरा ने 1966 में अपनी पुस्तक "द बाथरूम्स" में स्पष्ट लिखा है कि स्क्वेटिंग पोजिशन मानव शरीर के लिए सर्वथा अनुकूल है।

 

वर्तमान में एक अध्ययन के अनुसार अमेरिका में ही 1.2 बिलियन लोग शौचालय नहीं होने से स्क्वेटिंग पोजिशन में ही मल त्याग करते हैं। उससे भी कहीं बहुत ज्यादा संख्या में लोग एशिया, मिडिल ईस्ट और यूरोप के कई हिस्सों में आज भी स्क्वेटिंग के हिसाब से बनी टॉयलेट्स का ही इस्तेमाल करते हैं।

 

इस अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए जापानी चिकित्सकों ने मलाशय यानी रेक्टम में रेडियो कंट्रास्ट साल्यूशन डाल कर वीडियोग्राफी की और पाया कि सिटिंग में एनो रेक्टल एंगल 100 डिग्री का होता है और स्क्वेटिंग पोजिशन में यह 126 डिग्री का हो जाता है। उनका यह अध्ययन लोअर यूरिनरी ट्रेक्ट सिमटम्स नामक मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ था।

 

सिटिंग शौच का इतिहास

 

बताया जाता है कि अट्ठारवीं सदी में शौच के लिए पूरी दुनिया के लोग घर से बाहर ही ऊकड़ू बैठकर शौच करते थे। सन 1850 के आसपास ब्रिटेन के किसी राज पुरुष की बीमारी के दौरान सुविधा की दृष्टि से शौच के लिए कुर्सी नुमा शौच सीट यानी कमोड जैसी व्यवस्था का आविष्कार किया था। बाद में तो गोरे अंग्रेजों के राजा- रानियों को खुश करने की नीयत से सुतारों और प्लम्बरों ने कुर्सी की डिजाइन मे थोड़ा परिवर्तन करते हुए बैठक वाली शौच सुविधा को प्रचलित कर दिया। राज घराने के पीछे बिना सोचे- समझे भागने की मानवीय प्रवृति के चलते कमोड ने पश्चिम में व्यापक रूप धारण कर लिया। हालाँकि उन्नीसवी सदी तक यह राज घरानों और प्रभावी लोगों की बपौती ही बनी रही। प्लम्बर और केबिनेट बनाने वाले सोचते थे कि वे लोगों का जीवन स्तर उठा रहे हैं।

 

जबकि हकीकत यह है कि शरीर रचना और क्रिया विज्ञान के मुताबिक मल विसर्जन का प्राचीन तरीका ही पूर्णरूपेण वैज्ञानिक है। समूचे विश्व में यही प्राकृतिक तरीका सबसे ज्यादा प्रचलित रहा है। डॉ. विलियम विल्स ने कमोड शैली को मानव शरीर रचना के सर्वथा विपरीत निरूपित किया है।

 

फिजियोलॉजी ऑफ डिफिकेशन

 

यहि हम शौच की क्रिया की फिजियोलॉंजी का एक बार पुनरावलोकन करें तो शौच के श्रेष्ठ तरीके को समझने में आसानी होगी। पौष्टिक तत्वों को जज्ब करने के बाद छोटी आँत शेष बचे हुए अवशिष्ट पदार्थ को इलियोसिकल वाल्व के जरिये बड़ी आँत को सौंप देती है। सिकम एक छोटे से थैले की तरह फुला रहता है। इसके निचले हिस्से से अपेंडिक्स लटका होता है। यहाँ से बचा हुआ भोजन यानी जलयुक्त्त मल बड़ी आँत के प्रथम सोपान यानी एसेन्डिंग कोलोन में जल का त्याग कर पेरिस्टाल्सिस (आँतों की गति) के जरिये एल्टीग्रेविटी चढ़ता है और फिर ट्रांसवर्स कोलोन से होते हुए, डिसेन्डिंग कोलोन की यात्रा कर सिग्माइड कोलोन होते हुए रेक्टम (मलाशय) तक पहुँचता है। डिफिकेशन के पूर्व जब मास पेरिस्टाल्सिस तथा डिफिकेशन रिफ्लैक्स के साथ अन्य तरह के रिफ्लैक्सेस एकजुट हो जाते हैं तथा मल विसर्जन के लिए व्यक्ति को अनुकूल माहौल मिलता है तो ही डिफिकेशन सफल हो पाता है। परन्तु इन सब के अलावा पेट पर लगभग 200 मिलीमीटर ऑफ मर्करी तक के प्रेशर की भी जरूरत पड़ती है। पेट पर जांघों का दाब. लम्बी गहरी साँस, ग्लाटिस का बन्द होना, एब्डामिनल मसल का संकुचन तथा पेल्विक फ्लोर का रिलैक्सेशन तथा नीचे की तरफ मूवमेंट मल विसर्जन के लिए जरूरी होते हैं।

 

रेक्टम और एनल केनाल के जंक्शन (मिलन स्थल) को पुबो रेक्टेलिस मसल थामे रखती है। यदि यह मसल रिलैक्स रहती है तो रेक्टम और एनल केनाल एक सीध में आ सकते हैं तथा रास्ता खुल जाता है और यदि यह मसल कांट्रेक्टेड रहती है तो रेक्टम और एनल केनाल के बीच 90 डिग्री का कोण बनता है, जिसके कारण मल मार्ग संकरा हो जाता है।

 

स्क्वेटिंग पोजिशन मे जब दायीं जांघ का दबाव सिकम पर पड़ता है तो अपशिष्ट भोजन की ऊपर की तरफ की यानी एन्टीग्रेविटी यात्रा आसान हो जाती है। यदि यह अपशिष्ट पदार्थ ज्यादा देर तक सिकम या एसेन्डिंग कोलोन मे रहेंगे तो मल कण एपेंडिक्स में प्रवेश कर सकते हैं, जो संक्रमण का कारण बन सकता है। यदि मल पदार्थ अधिक समय तक एसेन्डिंग कोलोन से रुकता है तो जल का अवशोषण होता रहता है लिहाजा मल कठोर हो जाता है और कब्ज का खतरा भी शुरू हो जाता है। सिटिंग पोजिशन मे ही ऐसा सम्भव है, स्क्वेटिंग पोजिशन में न के बराबर।

 

एनो रेक्टल एंगल

 

रेक्टम और एनल केनाल के सन्धि स्थल पर जो कोण यानी एंगल बनता है, उसे एनो रेक्टल एंगल कहा जाता है। इसे सबसे पहले नापा था 1966 में वैज्ञानिक टगर्ट ने। "टाउन सेंड लेटर फॉर डॉक्टर्स एण्ड पेशेन्ट्स" शीर्षक से टगर्ट का एक लेख प्रकाशित हुआ। उन्होंने शौच की विभिन्न स्थितियों में एनो रेक्टल एंगल को नापा और पाया कि स्क्वेटिंग में यह कोण थोड़ा सीधा हो जाता है, जिसके कारण मल निष्कासन में समय तथा जोर (स्ट्रेन) कम लगता है। इस कारण से कब्ज तथा हिमोराइड्स के रोगियों के उपचार मे यह मददगार होती है।

 

सामान्यतया यह 90 डिग्री का होता है। इस कोण को यानी रेक्टम और एनल केनाल के जंक्शन (मिलन स्थल) को पुबो रेक्टेलिस मसल थामे रखती है। यदि यह मसल रिलैक्स रहती है तो रेक्टम और एनल केनाल एक सीध में आ सकते हैं तथा रास्ता खुल जाता है और यदि यह मसल कांट्रेक्टेड रहती है तो रेक्टम और एनल केनाल के बीच 90 डिग्री का कोण बनता है, जिसके कारण मल मार्ग संकरा हो जाता है।

 

जांघों के दबाव के अभाव में ज्यादा जोर जरूरी हो जाता है, जिसके कारण मल मार्ग की रक्त शिराएँ फूल जाती हैं। इजरायली शोधकर्ता डॉ. बेरको सिकिरोव ने अपने शोध के निष्कर्ष में पाया कि सिटिंग मेथड कब्जियत का करण बनती है, जिसके कारण व्यक्ति को मल त्यागने के लिए लगभग तीन गुना अधिक जोर लगाना पड़ता है, जिसके कारण चक्कर और हृदयतंत्र की गड़बड़ियों के कारण लोग मर जाते हैं।

 

अप्रैल 2002 में ईरान के रेडियोलॉजिस्ट डॉ. सईद राद ने अपने एक क्लीनिकल अध्ययन के दौरान पाया कि सिटिंग टॉयलेट के समय एनो रेक्टल एंगल लगभग 92 डिग्री का रहता है जबकि उकड़ू स्थिति (स्क्वेटिंग पोजिशन) मे यह कोण सामान्यतया 132 डिग्री से 180 डिग्री तक का हो जाता है। जिसके कारण मल का विसर्जन पूर्णरूपेण तथा आसानी से हो जाता है। उन्होंने 11 से 75 वर्ष के 21 पुरुषों तथा 9 महिलाओं पर दोनों ही स्थितियों में बेरियम एनिमा के माध्यम से अपने अनूठे क्लीनिकल अध्ययन को अंजाम दिया। अपने शोध अध्ययन के निष्कर्ष में उन्होंने बताया कि सिटिंग पोजीशन के कारण रेक्टोसिल हो जाता है। डॉ. सईद ने पाया कि उकड़ू स्थिति में पुबो रेक्टेलिस मसल आसानी से पूरी तरह रिलैक्स हुई, जिसके कारण मल का निष्कासन पूर्णरूपेण शीघ्र सम्पन्न हो सका। जबकि सिटिंग पोजिशन में पुबो रेक्टीलिस मसल के रिलैक्स न होने के कारण मल विसर्जन पूर्णरूपेण भी नहीं हो पाता है और रेक्टोसिल की भी सम्भावना हो जाती है।

 

नैसर्गिक है स्क्वेटिंग

 

विश्व के अधिकांश शिशु नैसर्गिक रूप से स्क्वेटिंग के जरिये ही मल निष्कासन करते हैं। अध्ययन बताते हैं कि अच्छे स्वास्थ्य के लिए जिन बुनियादी बातों की जरूरत होती है, उनमें स्क्वेटिंग, पानी का खूब सेवन, अच्छी नींद, संतुलित आहार और नियमित व्यायाम सम्मिलित हैं।

 

जांघों के दबाव के अभाव में ज्यादा जोर जरूरी हो जाता है, जिसके कारण मल मार्ग की रक्त शिराएँ फूल जाती हैं। इजरायली शोधकर्ता डॉ. बेरको सिकिरोव ने अपने शोध के निष्कर्ष में पाया कि सिटिंग मेथड कब्जियत का करण बनती है, जिसके कारण व्यक्ति को मल त्यागने के लिए लगभग तीन गुना अधिक जोर लगाना पड़ता है, जिसके कारण चक्कर और हृदयतंत्र की गड़बड़ियों के कारण लोग मर जाते हैं।

 

इसके अलावा स्वक्वेटिंग की तुलना में कोलोनिक डाइवरटीकुलोसिस की सम्भावना 75 प्रतिशत अधिक रहती है। सिकिरोव ने अपने एक अन्य शोध के तहत हिमोराइड्स के रोगियों के एक छोटे समूह को स्क्वेटिंग पद्धति से शौच करने की सलाह दी। उन्होंने पाया कि बीस रोगी हिमोराइड्स से पूरी तरह मुक्त हो चुके हैं, लगभग पचास प्रतिशत रोगियों को कुछ दिनों मे ही काफी लाभ हुआ जबकि शेष की स्थिति में सुधार होने में अधिक समय लगा। यानी सभी को लाभ जरूर हुआ।

 

वैज्ञानिकों के अनुसार गर्भवती महिलाएँ यदि नियमित रूप से प्राचीन यानी भारतीय शैली को अपनाएँ तो सामान्य प्रसव की सम्भावनाएँ बढ़ती हैं और मल निष्कासन के दौरान गर्भाशय में पल रहे शिशु पर प्रतिदिन पड़ने वाले दबावों से भी बचा जा सकता है।

 

स्क्वेटिंग के पश्चिमी प्रचारक मानते हैं कि सिटिंग के दौरान मल का पूरी तरह निष्कासन नहीं होने से यानी फिकल स्टेगनेशन के कारण अपेंडीसाइटिस तथा क्रोंस डिसीज हो जाती है, जो कि परम्परागत स्क्वेटिंग को अपनाने वालों में तुलनात्मक दृष्टि से बहुत कम (रेयर) होती हैं, जबकि वेस्टर्न पद्धति को अपनाने वालों में तुलनात्मक रूप से अधिक लोग इन रोगों के शिकार होते हैं। इसके लिए उनका वैज्ञानिक तर्क है कि सिटिंग के दौरान एनो रेक्टल एंगल के संकुचित होने के कारण रेक्टम में बचा मल दबाव के कारण विपरीत दिशा में गतिमान होता है। वे इसे समझाने के लिए टूथपेस्ट की ट्रयूब को बीच से दबाने पर होने वाले प्रभाव का उदाहरण देते हैं. जिसमे पेस्ट नीचे तथा ऊपर की तरफ गतिमान होता है। उनके अनुसार लम्बे समय का फिकल स्टेगनेशन अंतत: मल को सिकम की तरफ धकाता है, जो एपेंडिक्स के लिए खतरनाक सिद्ध होता है।

 

माइचीलीन ड्यूक्लेफ ने बिल और मेलिण्डा गेट्स फाउण्डेशन के एक कार्यक्रम के दौरान शौच की वेस्टर्न पद्धति को कब्जियत तथा हिमोराइड्स के लिए दोषी ठहराते हुए मायो क्लीनिक के हवाले से बताया कि पचास वर्ष की उम्र तक आते-आते पचास प्रतिशत अमेरिकन हिमोराइड्स के लक्षणों से पीड़ित हो जाते हैं। वे मानते हैं कि इसमें सिटिंग पद्धति की महत्वपूर्ण भूमिका है।

 

शोधकर्ताओं ने पाया कि वेस्टर्न वर्ल्ड में कोलोन कैंसर, कब्ज, डाइवरटीकुलोसिस, इरिटेबल बावेल सिन्ड्रोम, प्रोस्टेट व गर्भाशय सम्बन्धी डिसआर्डर्स तथा अन्य कुछ बीमारियों के प्रकरण तुलनात्मक रूप से ज्यादा होते हैं। इन सबका उत्तर खोजने के बाद उन्होंने मल विसर्जन की सिटिंग पोजिशन को दोषी पाया। शोधों मे पाया गया कि स्क्वेटिंग पोजिशन कई बीमारियों का अन्त करने में समर्थ है।

 

वैज्ञानिकों के अनुसार गर्भवती महिलाएँ यदि नियमित रूप से प्राचीन यानी भारतीय शैली को अपनाएँ तो सामान्य प्रसव की सम्भावनाएँ बढ़ती हैं और मल निष्कासन के दौरान गर्भाशय में पल रहे शिशु पर प्रतिदिन पड़ने वाले दबावों से भी बचा जा सकता है।

 

कमर भी रहती है ठीक

 

कमर के लिए भी स्क्वेटिंग को वैज्ञानिक बेहतर मानते हैं। एक अध्ययन “गिव यूअर स्पाइन ए बेनिफिशिअल स्ट्रेच" में कहा गया है कि स्क्वेटिंग शैली से पीठ और कमर दर्द मे आराम मिलता है।

 

माइचीलीन ड्यूक्लेफ ने बिल और मेलिण्डा गेट्स फाउण्डेशन के एक कार्यक्रम के दौरान शौच की वेस्टर्न पद्धति को कब्जियत तथा हिमोराइड्स के लिए दोषी ठहराते हुए मायो क्लीनिक के हवाले से बताया कि पचास वर्ष की उम्र तक आते-आते पचास प्रतिशत अमेरिकन हिमोराइड्स के लक्षणों से पीड़ित हो जाते हैं। वे मानते हैं कि इसमें सिटिंग पद्धति की महत्वपूर्ण भूमिका है।

 

डेनिस बर्किट नामक चिकित्सक युगाण्डा में मेडिसिनल प्रैक्टिस करते थे। जब उन्होंने देखा कि वहाँ के लोग कोलोन कैंसर, कब्ज, डाइवरटीकुलोसिस, इरिटेबल बावेल सिन्ड्रोम आदि से पीड़ित नहीं होते हैं, तो उनका दिमाग ठनका। सूक्ष्म अध्ययन के बाद उन्हें दो बातें समझ में आई एक तो शौच के लिए स्क्वेटिंग पोजिशन और दूसरा भोजन में फायबर्स की अधिक मात्रा। डेनिस बर्किट मानते है कि स्क्वेटिंग पोजिशन कोलोरेक्टल कैंसर से बचाती है।

 

जापान में सन 2010 में हुए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि यदि हिप जाइंट पर अधिकतम फ्लैक्शन (मुड़ना) हो तो एनो रेक्टल कोण अधिक सीधा होता है और मल निष्कासन के लिए स्ट्रेन (शक्ति) कम लगती है।

 

अमेरिका के चिकित्सक तथा आधुनिक गेस्ट्रोइंट्रोलाजी के शोधकर्ता डॉ. एम.के.रिज्क स्क्वेटिंग पोजिशन को बेसबाल की कैचर्स पोजिशन का नाम देते हैं और उनका कहना है कि स्क्वेटिंग पोजिशन श्रेष्ठ है।

 

कैलीफोर्निया के श्री ई.एस. का कथन है कि स्क्वेटिंग ने मुझे हिमोराइड्स से मुक्त कर दिया।

 

स्क्वेटिंग के अपने अनुभवों का वर्णन करते हुए अमेरिका के जे.लियू ने वहाँ स्क्वेटिंग का प्रचार करने वाले लोगों का उत्साह बढ़ाते हुए बताया था कि मैंने अपनी चीन यात्रा के दौरान स्क्वेटिंग को अपनाया और मल निष्कासन के आनन्द का अनुभव किया है। उन्होंने मल त्याग के वेस्टर्न तरीके को कोसते हुए कहा है कि आप लोग वेस्टर्न वर्ल्ड को मल त्याग के अंधे युग से निकालकर उन्हें सिविलाइज्ड बनाने का प्रयास कर रहे हैं। उन्हीं के शब्द पढ़िए

 

“I am so glad you guys are encouraging the Western world to finally come out of the dark ages and revert back to the more civilized natural way to excrete! Keep up the good work!!!”

 

जोनाथन इस्बिट का जिक्र किये बिना स्क्वेटिंग पोजिशन की वैज्ञानिक महिमा का गान अधूरा रह जाता है। अपने वैज्ञानिक आलेख “हैल्थ बेनिफिट्स ऑफ द नैचुरल स्क्वेटिंग पोजिशन" में जिन लाभों का विश्लेषणात्मक वैज्ञानिक विवरण दिया है, वह इस लेख की परिसीमा के परे है। फिर भी उन लाभों को गिनाना उचित रहेगा।

 

स्क्वेटिंग पोजिशन के सात प्रमुख लाभ -

 

1. मल विसर्जन शीघ्र, पूर्णरूपेण, आसान और तीव्रता से हो जाता है, जिसके कारण फिकल स्टेग्नेशन नहीं होने से कोलोन कैंसर, एपेंडीसायटिस तथा इन्फ्लेमेटरी बावेल डिसीज नहीं होते हैं।

 

2. प्रोस्टेट, मूत्राशय तथा गर्भाशय की नर्व्स को स्ट्रेच तथा डेमेज होने से बचाती है।

 

3. इलियोसिकल वाल्व के सील (बन्द) हो जाने से छोटी आँत में बैकफ्लो के कारण बड़ी आँत से मल प्रवेश नहीं हो पाता है। यानी छोटी आँत न तो प्रदूषित होती है और न ही संक्रमित।

 

4. पुबो रेक्टीलिस मसल पूरी तरह रिलैक्स होने से रेक्टम चोक नहीं होता है।

 

5. जांघों के सहयोग से कोलोन पर नैसर्गिक दाब के कारण ज्यादा जोर (स्ट्रेन) नहीं लगाना पड़ता है। अधिक समय तक यदि अधिक जोर लगाना पड़े तो हर्निया, डाइवरटीकुलोसिस तथा पेल्विक आर्गन्स के प्रोलेप्स का खतरा हो सकता है।

 

6. यह हिमोराइड्स का अत्यधिक प्रभावशात्ती तथा नॉन इन्वेजिव उपचार है।

 

7. गर्भवती स्त्री यदि नित्य इस पोजिशन में मल विसर्जन करे तो गर्भाशय पर दबाव नहीं पड़ता है तथा यह पोजिशन नैसर्गिक प्रसव के लिए पेल्विक फ्लोर को तैयार करने मे सहायक सिद्ध होती है।

 

शौच के बाद धोएँ या पोंछे?

 

अमेरिका में मलद्वार को टॉयलेट पेपर से पोंछने का चलन है। परन्तु वहाँ के वैज्ञानिकों का कहना है कि धोना ज्यादा प्रभावी और सर्वश्रेष्ठ है,क्योंकि इसमे गन्दा रह जाने का अहसास नहीं बना रहता है जो कि पोंछने में हमेशा ही बना रहता है।

 

अमेरिका में भी पानी से धोने का चलन शुरू हुआ है, उसके विषय में वैज्ञानिकों का कथन है कि इससे एक नये स्तर का सुखद अहसास होने लगा है। (A New Level of Comfort)।

 

टॉयलेट पेपर से कोमल त्वचा में होने वाले घावों के खतरों से वैज्ञानिक चिन्तित है। इसके अतिरिक्त टॉयलेट पेपर को सुगन्धित बनाने के लिए मिलाए गये रसायन भी त्वचा में खुजली पैदा करते हैं।

 

अमेरिका मे प्रतिवर्ष 15 मिलियन पेड़ों के गुदे से बने 36.5 बिलियन टॉयलेट पेपर रोल इस्तेमाल किए जाते हैं। इन्हें बनाने मे 473.6 बिलियन गैलन पानी और साफ करने में 253000 टन क्लोरीन खर्च हो जाती है। इसके अतिरिक्त टॉयलेट पेपर के कचरे का निपटान भी एक बड़ी समस्या है।

 

बैक्टीरिया पनपते हैं टायलेट पेपर से

 

धोने से गुदा में बैक्टीरिया के प्रजनन के अवसर कम हो जाते हैं जबकि टॉयलेट पेपर बैक्टीरिया को पनपने और फैलाने का काम करते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार खूनी बवासीर के रोगियों को धोने से ज्यादा आराम मिलता है क्योंकि पेपर से घाव होने के खतरों से बच जाते हैं। मार्मिक धर्म के दौरान और नव प्रसूताओं को गुदाद्वार धोना चाहिए क्योंकि मल के रोआणुओं से संक्रमण का खतरा रहता है।

 

सन्दर्भ

 

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6. Rad. Saeed, “Impact of Ethnic Habits on Defecographic Measurements”, Archives of Iranian Medicine. Vol 5. No. 2, April 2002, p.115-117.

 

7. Bowles, Wallace, The Importance of squatting for Defecatlon, unpublished article, January, 1992

 

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9. Welles, William, “The Importance of Squatting" chapter in Tissue Cleansing Through Bowel Management. Bernard Jensen Publisher; 10th edition (June 1981).

 

10. Causes, Symptoms and Diagnosis of Diverticulosis and Diverticulitis: http://digestive.niddk.nih.gov/ddiseases/pubs/diverticulosis/

 

11. Is that right? Squatting on potty better than sitting?

 

12. Is it safe to squat in an Indian style toilet during pregnancy?

 

13. Squat Toilets: Prevention of Colon Cancer, IBS and Healing for Hemorrhoids? Sherry Tomfeld

 

14. 2010 Japanese study on the Influence of Body Position on Defecation in Humans. http://onlinelibrary.wiley.com/doi/10.1111/j.1757-5672.2009.00057.x/abstract

 

15. Dr. Dov Sikirov, Digestive Diseases and Sciences, Vol. 48, No.7 (July 2003) http://www.springerlink.com/content/rlu7151837n07562/

 

16. Alexander Kira. The Bathroom. New York: Penguin, 1976

 

17. Journal of Obstetrics and Gynaecology of the British Commonwealth, 1969

 

18. Jacobs. E.J. and White, E. Epidemiology, 1998 July, 9 (4)

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