उमेश चतुर्वेदी
देश और वातावरण को स्वच्छ रहना ही चाहिए, इससे भला कौन इनकार करेगा लेकिन मौजूदा स्वच्छ भारत अभियान में जिस तरह ग्रामीण सोच को समाज और मीडिया के एक वर्ग ने खासतौर पर निशाना बनाना शुरु किया है, उससे स्वच्छ भारत अभियान में गाँवों को लेकर सोच पर ही सवाल उठ रहे हैं. बेशक भारतीय गाँव भी गन्दगी के अंबार बन गए हैं, खुले में शौच से उनकी गन्दगी में इजाफा ही हुआ है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि खुले में शौच की अवधारणा सहज और प्राचीन है। यह बात और है कि सत्तर के दशक के पहले तक चूंकि जनसंख्या का विस्फोट नहीं हुआ था, लिहाजा मानव मल जैसे जैविक कचरे का निबटान जैविक और प्राकृतिक ढंग से हो जाता था। जनसंख्या के बढ़ते दबाव के बावजूद जैविक तरीके से मानव मल जैसे जैविक कचरे का निबटान हो रहा है, लेकिन उसकी गति वैसी नहीं है। इसलिए खुले में शौच को लेकर सवाल उठने लगे हैं।
अगर शौचालय क्रान्ति हो भी गई, जिसे होना भी है, उसके 15-20 साल बाद इस क्रान्ति के अवांछित परिणाम भी होंगे लेकिन गाँधीजी की पारम्परिक अवधारणा में इस समस्या की गुंजाइश ही नहीं रहेगी क्योंकि जैविक कचरा निबटान के बाद फिर से प्रकृति में ही मिल जाएगा। वैसे भी रासायनिक खादों के बढ़ते प्रयोग के बाद जमीन की उर्वरा शक्ति तो घटी ही है, फसलों के लिए पानी का खर्च भी बढ़ा है
खुले में शौच पर सवाल इन दिनों तब ज्यादा उठे, जब उत्तर प्रदेश के कुछ देहाती इलाकों में शौच के दौरान खेतों या जंगलों में गई महिलाओं-बच्चों से बलात्कार की घटनाएं सामने आई। कई मामलों में उनकी हत्याएं तक कर दी गईं। आधुनिकता की हमने जो अवधारणा पश्चिम से उधार ली है उसमें कारणों के उचित और तह तक की पड़ताल के बजाय फौरी नतीजे स्वीकार करने की परिपाटी बढ़ी है। फिर हमारे लोकवृत जिसे पश्चिमी विचारक हबरमॉस पब्लिक स्फीयर कहा करते थे। उसकी स्मृति भी बेहद संकुचित और कम होती गई है। जिस देश में वेद और उपनिषद स्मृति परम्परा में हजारों साल तक एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संप्रेषित और प्रदान किए जाने की परम्परा रही हो, वहाँ स्मृतिलोप की इस परम्परा पर सवाल भी नहीं उठ रहे हैं। बहुत कम लोगों को पता है कि इन्दिरा गाँधी के प्रधानमन्त्री रहते वक्त सुदूर देहातों में महिलाओं के खुले में शौच की व्यवस्था पर डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने सवाल उठाए थे। लोकसभा में लोहिया के प्रश्नों से गुजरिए तो इस तथ्य पर ध्यान जाता है। डॉक्टर लोहिया ने एक बहस में हिस्सा लेते हुए कहा था कि जिस देश की प्रधानमन्त्री महिला हों, उसकी करोड़ों महिलाओं को खुले में शौच करना पड़े, यह कितनी शर्म की बात है? फिर यह भी बड़ा सवाल है कि हजारों साल के समाज में खुले में शौच करने की परम्परा में क्या इतने वर्षों तक महिलाओं के साथ बलात्कार होता रहा? विषय तो यह है कि सफाई व्यवस्था को मौजूदा वातावरण और माहौल के मुताबिक बनाना तो चाहिए, लेकिन इसके लिए इतर कारणों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिए।
इन दिनों गंगा सफाई पर भी जोर है, गंगा को साफ होना चाहिए। इस पर किसी को एतराज भला क्यों होगा? लेकिन गंगा की गन्दगी और प्रदूषण के लिए औद्योगिक कचरा कहीं ज्यादा जिम्मेदार है। गंगा के किनारे स्थित शहरों को छोड़ दें, जिनका मल-जल और अपशिष्ट सीवर लाइनों या फिर नालों के जरिए गंगा में गिरता है, गाँवों की संस्कृति और गंगा को लेकर उनकी सोच अलहदा है। वहाँ गंगा स्नान करने जाते वक्त आम गंवई व्यक्ति अलग से लोटा लेकर जाता है और नदी से दूर शौच करता है। वह गंगा में साबुन लगाकर नहाने से भी हिचकता है। गंगा वहाँ के लोगों के लिए मां है। माँ की पवित्रतम अवधारणा में उसके लिए गंगा गन्दा करने की सोच नहीं है। अंग्रेजों ने बेशक शहरों के मल-निस्ताररण के लिए सीवर व्यवस्था तो दी, लेकिन इसका पहला निशाना गंगा ही बनी। सबसे पहले 1870 में कोलकाता में अंग्रेजों ने सीवर शुरु किया और उसका असर गंगा पर ही पड़ा। वैसे इतने साल बीतने के बावजूद अभी तक देश के 160 शहरों में ही सीवर व्यवस्था शुरु हो पाई है।
मोहनजोदड़ो और हड़प्पाकालीन सभ्यताओं में भी मल-जल निस्तारण की बेहतर व्यवस्था थी। इन पंक्तियों के लेखक ने कच्छ स्थित धौलावीरा में पुरा नगरों के अवशेष देखे हैं। वहाँ मल-जल निस्तारण की बेहतर व्यवस्था थी। प्राचीन ग्रामीण व्यवस्था में भी मानव-मल जैसे जैविक कचरे का जैविक तरीके से निस्तारण की व्यवस्था थी।
स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत प्रधानमन्त्री ने महात्मा गाँधी के जन्मदिन पर की है। गाँधीजी कहा करते थे कि गाँव सुखी तो हम सुखी। ग्रामीण विकास को लेकर गाँधीजी कितने मुतमईन थे, इसका उदाहरण यह है कि गाँधी के राष्ट्रीय विकास की अवधारणा की प्राथमिक इकाई गाँव था और उनका मानना था कि गाँवों को स्वालम्बी और विकसित बना दिया जाय तो राष्ट्र का विकास अपने आप हो जाएगा। गाँधी की इसी अवधारणा में लोहिया, जयप्रकाश और विनोबा का भी विश्वास था जबकि आजाद भारत में विकास की नई अवधारणा और नींव रखने वाले पहले प्रधानमन्त्री पंडित जवाहर लाल नेहरु की सोच अलग थी। उनका मानना था कि ऊपर विकास हो तो नीचे तक विकास अपने आप हो जाएगा। नेहरू से विकास की सोच को लेकर जयप्रकाश का मतभेद आखिरी वक्त तक रहा। इसी वजह से उन्होंने नेहरू के बुलावे के बावजूद पचास के दशक के आखिरी दिनों में कैबिनेट में शामिल होने से इनकार कर दिया था।
सफाई और मल निस्तारण के लिए गाँधीजी ने दो तरह के सुझाव दिए थे। पहला सुझाव यह था कि लोग शौच के लिए खेत में जाएँ तो साथ में खुरपी ले जाएँ। पहले वहाँ गड्ढा खोदें और उसमें शौच करें। पर्देदारी के लिए उन्होंने काठ का शौचालय बनाने का सुझाव दिया था। जिसमें पहिया लगा होता था। उसे पहले नली खोदकर उस पर फिट करना होता था और उसे शौच करने के बाद उसे खिसकाकर बढ़ा देना था।
बहरहाल गाँधीजी को पता था कि आजाद भारत में गाँवों को पारम्परिक अवधारणा के साथ साफ रखना ही होगा। लिहाजा उन्होंने इसका खाका तक खींचा था। आजाद भारत की बुनियादी शिक्षा के खाके के लिए उन्होंने जाकिर हुसैन की अगुआई में एक समिति बनाई थी। जिसने बुनियादी तालीम नाम से रिपोर्ट दी थी। आजाद भारत में कम से कम ग्रामीण शिक्षा व्यवस्था जाकिर हुसैन की इसी बुनियादी तालीम के हिसाब से 1986 तक चलती रही। वर्ष 1986 में राजीव गाँधी ने नई शिक्षा नीति लागू की तो बुनियादी शिक्षा की गाँधीवादी अवधारणा को तिलांजलि दे दी गई लेकिन इस व्यवस्था में ग्रामीण इलाकों में सफाई और मल निस्तारण के लिए भी इन्तजाम था। गाँधीजी ने इसके लिए दो तरह के सुझाव दिए थ। पहला सुझाव यह था कि लोग शौच के लिए खेत में जाएँ तो साथ में खुरपी ले जाएँ। पहले वहाँ गड्ढा खोदें और उसमें शौच करें। पर्देदारी के लिए उन्होंने काठ का शौचालय बनाने का सुझाव दिया था। जिसमें पहिया लगा होता था। उसे पहले नली खोदकर उस पर फिट करना होता था और उसे शौच करने के बाद उसे खिसकाकर बढ़ा देना था। जिससे शौच पर मिट्टी चढ़ जानी थी। कहना न होगा कि यह जैविक कचरे का ग्रामीण इलाके में उपलब्ध संसाधनों के जरिए जैविक निबटान का इन्तजाम था। बुनियादी तालीम के तहत इसकी शिक्षा भी दी जाती थी। बहरहाल हमे नई शिक्षा नीति के साथ ही भुला दिया गया।
गाँधी ने जब दक्षिण अफ्रीका में प्रयोग शुरु किया तो फीनिक्स आश्रम में उन्होंने शौच के लिए पर्देदारी और खुद निबटान और सफाई पर जोर दिया था। भारत में बाद के दौर में मैला ढोने और उसे साफ करने वालों की मुक्ति की अवधारणा इसी सोच पर आधारित है। यह बात और है कि शिक्षा और विकास की बदलती अवधारण के दौर में इसे भुला दिया गया है।
गाँवों में जो शौचालय भी बन रहे हैं। उसमें जैविक निबटान का इन्तजाम है। जो हौज बनाए जा रहे हैं, जहाँ मल इकट्ठा होता है, एक अवधि के बाद उसे भरना ही है। देर-सवेर इसके लिए नए हौज की और नई जगह की जरूरत होगी। यानी अगर शौचालय क्रान्ति हो भी गई, जिसे होना भी है, उसके 15-20 साल बाद इस क्रान्ति के साइड इफेक्ट भी होंगे लेकिन गाँधीजी की पारम्परिक अवधारणा में इस समस्या की गुंजाइश ही नहीं रहेगी क्योंकि जैविक कचरा निबटान के बाद फिर से प्रकृति में ही मिल जाएगा। वैसे भी रासायनिक खादों के बढ़ते प्रयोग के बाद जमीन की उर्वरा शक्ति तो घटी ही है, फसलों के लिए पानी का खर्च भी बढ़ा है। स्थानीय स्तर पर अपने पारम्परिक अनुभवों के जरिए किसानों ने रास्ता निकाला है। उसमें जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए जानवरों के गोबर, सूअर के मल आदि पर भरोसा बढ़ा है। मानव मल इसमें किसानों का मददगार साबित हो सकता है।
गाँधी के नाम पर शुरू हुए स्वच्छ भारत अभियान में जरूरत इस बात की है कि गाँधी की अवधारणा पर कम से कम देहाती इलाकों में शौचालय और मानव मल के निस्तारण का इन्तजाम किया जाय। नदियों को लेकर पारम्परिक ग्रामीण सोच-जो सांस्कृतिक भी है पर भी जोर देना होगा। गाँवों को जिम्मेदार ठहराने की बजाय शहरी सीवेज सिस्टम को सुधारने पर जोर देना होगा। गाँधीजी भी मानते थे कि आज के दौर की ज्यादातर समस्याओं की जड़ शहरी संस्कृति ही है। दुर्भाग्यवश हम गाँधीजी की इस सोच को भुला रहे हैं और शहरीकरण को ही विकास का नया पर्याय मान बैठे हैं जबकि दुनिया में बढ़ते प्रदूषण, बढ़ती ऊर्जा खपत और इसके जरिए पृथ्वी के बढ़ते तापमान के लिए शहरी संस्कृति ही जिम्मेदार मानी जा रही है। खुद संयुक्त राष्ट्र संघ भी मानता है। उसने महानगर नाम से एक अध्ययन रिपोर्ट भी प्रकाशित की है। उसमें भी मौजूदा समस्याओं की जड़ मौजूदा शहरी सभ्यता को ही माना है। कहना न होगा कि गाँधी विचार ही आज की स्वच्छता और सभ्यता की समस्याओं का असली समाधान है। हमारे समय का एक संकट यह है कि हम अपने तर्कों को दम देने के लिए गाँधी विचार का हवाला देते तो हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर जब उन्हें उतारने का मौका आता है तो उससे किनारा करने में देर नहीं लगाते। स्वच्छता अभियान में गाँधी विचार को अगर अंगीकृत नहीं किया गया तो उसका वाजिब फायदा नहीं मिल पाएगा।
लेखक ‘लाइव इंडिया’ समाचार चैनल में वरिष्ठ पत्रकार हैं। जी न्यूज, इंडिया न्यूज, सकाल टाइम्स, दैनिक भास्कर, अमर उजाला आदि संस्थानों में काम कर चुके हैं। भारतीय जनसंचार संस्थान, केन्द्रीय हिंदी संस्थान आदि अनेक मीडिया संस्थानों में अध्यापन। प्रकाशित पुस्तकेंः बाजारवाद के दौर में मीडिया, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के लिए दिनमान पत्रिका पर मोनोग्राफ का लेखन।
ईमेलः uchaturvedi@gmail.com
साभार : योजना जनवरी 2015