वाघेश्वर झा
पारंपरिक ढंग के चूल्हों का इस्तेमाल और साफ-सुथरे शौचालयों का अभाव ग्रामीण इलाकों की स्थिति को और खराब एवं असहनीय बना देता है। स्वच्छता के क्षेत्र में अग्रणी स्वयंसेवी संस्थान सुलभ इंटरनेशनल कई वर्षों से सरकारी अधिकारियों से कहता रहा है कि सार्वजनिक शौचालयों पर आधारित बायोगैस प्लांट्स परंपरागत ऊर्जा के विश्वसनीयता स्रोत हैं।
जब कोई व्यक्ति मलिन बस्ती के बारे में बात करता है तो एक सामान्य-सी तस्वीर उभरती, है तो भीड़भाड़-भरी गलियों की, खुले में शौच के दृश्यों की, इधर-उधर बिखरी गंदी चीजों की और धुएं तथा बदबू से भरे घरों की। पारंपरिक ढंग के चूल्हों का इस्तेमाल और साफ-सुथरे शौचालयों का अभाव वहां की स्थिति को और खराब एवं असहनीय बना देता है। स्वच्छता के क्षेत्र में अग्रणी स्वयंसेवी संस्थान सुलभ इंटरनेशनल कई वर्षों से सरकारी अधिकारियों से कहता रहा है कि सार्वजनिक शौचालय पर आधारित बायोगैस प्लांट्स परंपरागत ऊर्जा के विश्वसनीय स्रोत हैं। उनके दोहरे लाभ है- साफ-सुथरा शौचालय और मुफ्त ऊर्जा। महावीर एंक्लेव, पालम-डाबड़ी-मार्ग, नई दिल्ली में पिछले अनेक वर्षों से शौचालय से प्राप्त ऊर्जा से बल्ब रोशन किए जाते रहे हैं और डायजेस्टर से प्राप्त गैस से खाना पकता रहा है। इस प्लांट की संलग्नता परिसर से जुड़े सार्वजनिक शौचालय से है और बायोगैस का मुख्य स्रोत उसी शौचालय से प्राप्त मानव-मल रहा है। बड़े दुःख की बात है कि ऊर्जा के क्षेत्र में एक नई राह बनाने वाले इस आविष्कार को अन्यत्र नहीं अपनाया गया है।
मानव मल गैस से पका रहे हैं खाना
इस पृष्ठभूमि में यह बात बड़े संतोष की है कि इस प्रकार के प्रयोग ने तमिलनाडु में एक मलिन बस्ती की तकदीर ही बदल दी। सन् 2012 तक तांब्रम जिले का भारत नगर किसी भी शहर की मलिन बस्ती की तरह बदहाली की स्थिति में था। वही धुआं, वही बदबू और खुले में शौच का वही दृश्य एक आम बात थी। वहां के निवासी जल-जनित बीमारियों के शिकार होते थे और उनके बच्चे मरते थे।
सन् 2012 तक तांब्रम जिले का भारत नगर किसी भी शहर की मलिन बस्ती की तरह बदहाली की स्थिति में था। वही धुआं, वही बदबू और खुले में शौच का वही दृश्य एक आम बात थी। वहां के निवासी जल-जनित बीमारियों के शिकार होते थे और उनके बच्चे मरते थे। तब सक्रिय ढंग से काम करने वाले कुछ सामाजिक कार्यकर्ता सामने आए। उन्होंने गंदी बस्तियों के लिए शौचालय परिसर बनवाएं, जिनकी वजह से यहां सफाई आई। उसके बाद उन्होंने बायोगैस प्लांट लगाने की कोशिश की। उनकी एक ही समस्या थी- डायजेस्टर की मांग और उसके लिए निवेश। अब उन्होंने सार्वजनिक शौचालय परिसरों की तरह सार्वजनिक रसोई-घर बना लिया है। चूंकि ऊर्जा डायजेस्टर से मुफ्त प्राप्त होती है, अतः उन्हें उसके लिए एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ता। एक समय में एक दर्जन घर परिवार खाने की कच्ची चीजें लाकर 20 से 30 मिनट में अपना भोजन पका लेते हैं। किसी एलपीजी सिलेंडर की आवश्यकता नहीं होती। उसमें धुआं भी नहीं होता। वह न केवल आर्थिक दृष्टि से किफायती है, बल्कि उसके चलते निवासियों का सामान्य स्वास्थ्य भी बेहतर हुआ है।
तब सक्रिय ढंग से काम करने वाले कुछ सामाजिक कार्यकर्ता सामने आए। उन्होंने गंदी बस्तियों के लिए शौचालय परिसर बनवाएं, जिनकी वजह से यहां सफाई आई। उसके बाद उन्होंने बायोगैस प्लांट लगाने की कोशिश की। उनकी एक ही समस्या थी- डायजेस्टर की मांग और उसके लिए निवेश।
अब उन्होंने सार्वजनिक शौचालय परिसरों की तरह सार्वजनिक रसोई-घर बना लिया है।चूंकि ऊर्जा डायजेस्टर से मुफ्त प्राप्त होती है, अतः उन्हें उसके लिए एक पैसा भी खर्च नहीं करना पड़ता। एक समय में एक दर्जन घर परिवार खाने की कच्ची चीजें लाकर 20 से 30 मिनट में अपना भोजन पका लेते हैं। किसी एलपीजी सिलेंडर की आवश्यकता नहीं होती। उसमें धुआं भी नहीं होता। वह न केवल आर्थिक दृष्टि से किफायती है, बल्कि उसके चलते निवासियों का सामान्य स्वास्थ्य भी बेहतर हुआ है।
संगठनकर्ता राज्य के अन्य पांच स्थानों पर ऐसी योजना लागू करने के लिए तैयार हैं। उनके अनुसार, यदि तिरुपति, साबरीमाला तथा मुर्गेसन जैसे तीर्थस्थलों पर यह परियोजना चलाई जाती है तो हर स्थल से 3 मेगावाट बिजली पैदा होगी। कारण यह की इन जगहों पर प्रतिदिन हजारों की संख्या में तीर्थ यात्री आते हैं। इन धार्मिक स्थलों पर रोशनी और भोजन बनाने के लिए उर्जा काफी मात्रा में उपलब्ध होगी। बड़े पैमाने पर यह प्रयोग उस कोयले पर हमारी निर्भरता कम करेगा, जो कि विद्युत उत्पादनों और कारखानों के लिए सुरक्षित रखा जा सकेगा।
मानव मल आधारित ऊर्जा से खाना पकाने एक नया विचार है हम उम्मीद करें कि यह आविष्कार देश के दूसरे हिस्सों के लिए मार्गदर्शन का काम करेगा।
साभार : सुलभ इंडिया