कीमती कचरा

प्रज्ञा पालीवाल गौड़

नगर नियोजन के काम में लगी नगरपालिकाओं और अन्य संस्थाओं के लिए कचरा प्रबन्धन सदैव एक चुनौती रही है। अनेक कम्पनियाँ बाजार में प्रवेश करने से पहले ही कचरे के निपटान की योजनाएँ बना लेती हैं। इसके लिए पहले ही तौर-तरीके तय कर लिए जाने चाहिए और इस बात का भी पूरा ख्याल रखा जाना चाहिए कि उसका पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ेगा। आजकल जोर इस बात पर है कि कचरे का निपटान करते हुए उसी से कोई नया उत्पाद तैयार कर लिया जाए।

रिजर्व बैंक आॅफ इण्डिया के अधिकारियों के लिए पुराने और ठोस नोटों का निपटान सदैव सतर्कता का विषय रहा है। इस बैंक की विभिन्न शाखाओं से काफी मात्रा में टुकड़े-टुकड़े किए गए नोट निकलते हैं। इन्हें कम्प्रेस करके डले का रूप दे दिया जाता है। अनुमान है कि इस प्रकार के डलों के रूप में इस बैंक में हर वर्ष 10,000 टन नोट निकलते हैं। अभी तक इनका कोई इस्तेमाल नहीं किया जाता था अतः इनका निपटान एक समस्या बनी रहती थी। पहले के चलन के अनुसार बैंक के नामांकित अधिकारियों की देख-रेख में इस कचरे को जला दिया जाता था। लेकिन यह तरीका बिजली और ईंधन की कीमतों के कारण महँगा पड़ता था, साथ ही पर्यावरण पर भी इसका बुरा असर पड़ता था। बाद में प्रदूषण नियंत्रण अधिकारियों के हस्तक्षेप के कारण इन पुराने नोटों को 1/10 मिमी के टुकड़े करके डले का रूप दिया जाने लगा।

उन्हीं दिनों जयपुर के कुमारप्पा हस्तनिर्मित कागज संस्थान ने इसकी एक तकनीक विकसित की। यह संस्थान खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग के अधीन एक स्वायत्तशासी निकाय है और भारत सरकार के सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग मन्त्रालय के अन्तर्गत आता है। भारतीय रिजर्व बैंक को इस टेक्नोलाॅजी का इस्तेमाल करके कचरा प्रबन्धन करना था। यह तकनीक इस आधार पर विकसित की गई कि नोटों के कचरे के मूल में कीमती कागज है जो कपास और सनई जैसे पदार्थों से बनता है और इसका इस्तेमाल करके फाइल कवर लेटरहेड जैसे उपयोगी उत्पाद तैयार किए जा सकते हैं। कुमारप्पा राष्ट्रीय हस्तनिर्मित कागज संस्थान अपने ढंग का पूरे एशिया में अकेला संस्थान है जिसके द्वारा विकसित इस तकनीक का पेटेंट लिया जा चुका है। इसकी सहायता से वे हस्तनिर्मित कागज और गत्ते बनाते हैं। बाद में इन गत्तों से फाइल कवर आदि बनाए जाते हैं जिन्हें रिजर्व बैंक को सप्लाई किया जाता है। कई अन्य सरकारी और खादी एवं ग्राम उद्योग आयोग जैसी अन्य संस्थाएँ भी इसकी खरीदार हैं।

फाड़े गए नोटों से बने डलों को पहले रोटरी में डाला जाता है जो सीधे गरम डाइजेस्टर होता है। पकाने के बाद इस लुगदी को कई वाशरों और ड्रमों में धोया जाता है, फिर इसे साफ करते हैं। फिर इस लुगदी को पतला करते हैं और इसमें मिली अशुद्धताएँ निकाल ली जाती हैं। इस साफ की गई लुगदी को सिलेंडर मोल्ड मशीन में डाला जाता है जिससे ढाले गए कागज और गत्ते के ताव बनाए जाते हैं। फिर इन तावों को सुखाते हैं और मनचाहे आकार में काट लेते हैं।

इस प्रकार तैयार किए कागज से फाइल कवर, थैले, पैंफलेट, नोटशीट, लिफाफे तथा अन्य स्टेशनरी की वस्तुएँ बनाई जाती हैं। इसी लुगदी से एक विशेष प्रकार का टिश्यू पेपर बनाते हैं जिसे पुरानी पाण्डुलिपियों के संरक्षण में इस्तेमाल किया जाता है। संस्थान के निदेशक आर.के. जैन के अनुसार इस तकनीक में देशभर के अनेक उद्यमियों ने रुचि दिखाई है और इसे बनाने के लिए छोटे उद्यम शुरू करना चाहते हैं। संस्थान ने  उद्यमी विकास कार्यशालाएँ  भी आयोजित की है जिनसे सम्भावित उद्योगपतियों को प्रशिक्षण दिया गया है। यह संस्थान तकनीक को लोकप्रिय बनाने के प्रयास कर रहा है ताकि इसके जरिये युवा वर्ग को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराए जा सकें।

 

(लेखिका दूरदर्शन केन्द्र जयपुर में समाचार निदेशक  हैं।)

ई-मेलः pragyapaliwalgaur@yahoo.com

साभार : योजना मई 2009

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