सात्विक मुद्गल
कचरा एक काल्पनिक अवधारणा है, एक खराब जूता या टूथब्रश तब तक एक कचरा है जब तक कि आप ऐसा सोचते हैं।
कचरा क्या है? ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार कचरा वह चीज है जिसकी उपयोगिता या आवश्यकता खत्म हो चुकी है। ये बात सही है। लेकिन एक मिनट ठहरिये। इस परिभाषा पर एक बार फिर से गौर फरमाइये- “जिसकी कोई उपयोगिता न रह गई हो।” इसका मतलब हुआ कि उस संसाधन की अहमियत आपके लिए खत्म हो चुकी है ना कि किसी और व्यक्ति के लिए। आखिरकार इस ब्रह्माण्ड की हर चीज विज्ञान के 109 मूल तत्वों से बनी है या उन पंच तत्व से जिसका जिक्र हिन्दू शास्त्र में किया गया है। इस कचरे को उपयोगी बनाने का कार्य मनुष्य इन तत्वों के मिश्रण से करता है। इसी प्रकार जिन चीजों को आप आज कचरा कह रहे हैं उसमें कुछ ऐसे तत्वों का समावेश होता है जिन्हें यदि ढूँढ़ लिया जाए तो वे कचरा नहीं कहलाएँगे।
मनुष्य के अन्य आविष्कारों में से कचरा भी एक है, शायद सबसे मूर्खतापूर्ण क्योंकि कचरे जैसी कोई चीज ही नहीं होती है। मनुष्य जितनी चीजों का उत्पादन करता है उतना उपभोग नहीं कर पाता। बहुत सी चीजों को डम्पिंग साइट पर स्थान मिलता है बजाए कि पुनरुत्पादन, पुनर्प्रयोग और रिसायकल करने के। भारतीय समाज इस मायने में काफी मूर्ख है। हम उन चीजों को भी कचरा मान लेते हैं जिन्हें हम आसानी से प्रकृति को लौटा सकते हैं। इसका सबसे उम्दा उदाहरण जैविक कचरा है। यह कचरा सिर्फ इसलिए कहलाता है क्योंकि उसे खाद में बदलने की परेशानी कौन मोल लेगा? हमारा रवैया है- बाहर फेंको या इसे कूड़े दान में डाल दो जिससे कि शहर में कचरे का पहाड़ खड़ा हो जाए और उसे आने वाले 30-40 सालों तक कचरा कहकर बुलाइए जब तक कि उसके ऊपर एक फैंसी रॉक गार्डन न बन जाए। लेकिन बेचारे संसाधन कचरा ही कहलाए जाएँगे। “यदि आप किसी मछली की काबिलियत को उसके पेड़ पर चढ़ने की योग्यता से आँकेगें तो उसकी पूरी जिन्दगी खुद को कचरा समझने में ही गुजर जाएगी”- अल्बर्ट आइंस्टीन।
जिस तरीके से हम अपने संसाधनों को कचरे के ढेर में बदल रहे हैं और खनन द्वारा ज्यादा से ज्यादा संसाधन निकाल रहे हैं वो हमें कहीं भी लेकर नहीं जाएगा। हालाँकि, हम कोई भी संसाधन अगली पीढ़ी के लिए नहीं छोड़ रहे हैं। लेकिन एक जिम्मेदार पूर्वज होने के नाते हम उनके लिए कचरे के पहाड़ छोड़कर जा रहे हैं जिन्हें कि भविष्य की खनन कम्पनियाँ उत्पाद बनाने के लिए प्रयोग करेगी।
मैं चाहता हूँ कि कचरा शब्द ही हर डिक्शनरी से हटाकर उसकी जगह वहाँ संसाधन शब्द लिख दिया जाए। इस नजरिए से आप कचरा लेने वाले को अपने घर से रोज संसाधन इकट्ठा करने के लिए कहेंगी। कम-से-कम आप ऐसा सोचना तो शुरू करें कि आपके कचरे में कुछ तो संसाधन है, जिसे कि सभी लोगों को संसाधन मान लेना चाहिए। आप में से कुछ लोगों को अपने शहर की गन्दगी पर शर्म आती है तो आपको अपने दोस्तों को बताना चाहिए कि देखो मेरा शहर संसाधनों से भरा हुआ है। हाँ यहाँ बदबू आती है और तो क्या इस वजह से मैं इसे छोड़कर चला जाऊँ?
लेकिन कोई व्यक्ति पूछ सकता है कि यह कूड़ा न होकर संसाधन कैसे है? तो उसे जूतों की एक जोड़ी का उदाहरण दीजिए। आपने किसी जूते को एक या दो साल इस्तेमाल करके कचरे के डिब्बे में डाल दिया, या आपने थोड़ी उदारता दिखाते हुए उसे ठीक करवाकर अपने चौकीदार या ड्राइवर को दे सकते हैं। अपनी उदारता के विपरित क्या आपने अपने उन्हीं जूतो को किसी और को पहने देखा है? यदि नहीं तो कृपया थोड़ा चौकस हो जाइए। चलिए इस बात को यहीं छोड़ देते हैं। जब आपका चौकीदार या ड्राइवर भी उस जूते को फेंक देता है, तब उसे कूड़ा बीनने वाला ले जाता है। वह उसे अपने ठिकाने पर ले जाकर उसे अलग करते हैं। उसमें से वे पीयू सोल (पॉलीयूरेथेन सोल) को निकाल लेते हैं (वही सोल जिससे आपका जूता आरामदायक और हल्का बन जाता है), उसे पीयू रिसाइक्लिंग यूनिट में भेज दिया जाता है जिससे कि फिर कोई चप्पल या जूता बनाया जाता है। यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। अब फीतों की बारी आती है, जिसे कि धागा बनाने वाली यूनिट में भेज दिया जाता है। यदि आप दिल्ली में किसी जूते को फेंक देते हैं तो उसके फीते आपको पानीपत (जो कि दुनिया की सबसे बड़ी धागा बनाने वाली यूनिट में से एक है) में मिल जाएँगे। धागा यूनिट कचरे को नए उत्पाद में बदलती है, छोटे कचरे को धागे में बदल दिया जाता है फिर इससे कम्बल से चादर तक, पायदान से कपड़े तक बना सकते हैं। आपके जूते पर लगी धातु बकल मायापुरी के धातु रिसाइक्लिंग यूनिट में और चमड़ा चर्मशोधन के लिए चला जाता है जिससे कि बाद में बेल्ट, बैग या बटुआ बनाया जाता है। तो अब बताइये कि आपके जूते का कौन सा हिस्सा बचा? कुछ भी नहीं! तो अब सवाल उठता है कि हर वो चीज जिसे हम कचरा समझते हैं वो वाकई कचरा है? यही प्रक्रिया आपके टूथब्रश, पेन, तार आदि के साथ होती है।
वैदिक बखान
इसलिए कूड़ा एक काल्पनिक विचार के अलावा कुछ नहीं है जिसे कि हमारे द्वारा ही बनाया गया है। हकीकत में प्रकृति में कूड़े की कोई संकल्पना ही नहीं है वह हर चीज को किसी-न-किसी रूप में दुबारा उपयोग करती है। मैं जो कुछ भी बोल रहा हूँ वह बहुत पहले संस्कृत में कहा जा चुका है।
अमंत्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम्।
अयोग्यः पुरुषो नास्ति, योजकस्तत्र दुर्लभः।।
अर्थात- वर्णमाला में ऐसा कोई शब्द नहीं है जिसका प्रयोग मन्त्र में न हो, किसी भी पेड़-पौधे की जड़ ऐसी नहीं है जिसमें कि औषधीय गुण न हो, ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो पूर्णतया नाकारा हो। लेकिन दुर्लभ है सही प्रबंधन जिससे इनका ठीक प्रकार से उपयोग किया जाए। आज के परिप्रेक्ष्य में कचरे के लिए हमारा गलत प्रबंधन जिम्मेदार है।
मानव शरीर जिसे हमने धारण किया है, वह भी ब्रह्माण्ड के तत्त्वों से मिलकर बना है। जिसने कि मेरे जन्म के समय आकार लिया और मृत्यु पश्चात उसी प्रकृति में विलीन हो जाएगा और मैं ब्रह्माण्ड में हमेशा मौजूद रहूँगा। इस तरह मैं भी एक संसाधन हूँ और कई दशकों तक धरती माँ के भीतर रहूँगा, मिट्टी, राख या पेड़ों की खाद के रूप में। यह प्रक्रिया हर उस चीज पर लागू होती है जिसे हम आज कचरा कहते हैं। वह कुछ समय के लिए अपना मूल्य खो देता है या आकार बदल लेता है तो हम उसे कचरा कहना शुरू कर देते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि हमें अपनी डिक्शनरी को सम्पादित करना चाहिए और इससे पहले की हम अपने घर या शहर को साफ करने के लिए झाड़ू उठाएँ, उससे पहले हमें अपने दिमाग को साफ कर लेना चाहिए।
सात्विक मुद्गल दिल्ली के गैर सरकारी संगठन सेंटर फॉर साइंस एण्ड इन्वायरमेंट में वरिष्ठ शोध सहयोगी हैं। वर्तमान में वे भारत के नगरपालिका ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियमों, नीति, अच्छे काम और विभिन्न हितधारकों की भूमिका का मूल्यांकन कर रहे हैं।
साभार : डाउन टू अर्थ 30 नवम्बर 2014