सहीराम
एक जमाने में कहा जाता था कि दुनिया बारूद के ढेर पर बैठी है। इधर दुनिया वालों को बारूद का ढेर कम और आतंकवादियों की बंदूक ज्यादा दिखाई देने लगी है। हालांकि मामला फिर भी बारूद का ही है। खैर, दुनिया चाहे बारूद के ढेर पर बैठी हो या न बैठी हो, पर दिल्ली इन दिनों कचरे के ढेर पर जरूर बैठी है। जमना माई पहले ही गन्दा नाला बन चुकी, अब शहर भी कचरे का ढेर हो गया है। सारी कसर पूरी हो गयी। इसे बनाने तो चले थे पेरिस, पर यह दिल्ली भी नहीं रही। दिल्ली को बनना तो था अन्तरराष्ट्रीय शहर पर यह किसी पिछड़े राज्य की दूर-दराज की लावारिस सी म्युनिसिपैलिटी भी न रही। यहाँ अन्तरराष्ट्रीय स्तर की मैट्रो जरूर है पर सवाल है कि क्या शहर भी अन्तरराष्ट्रीय स्तर का है। हवाई अड्डा तो अन्तरराष्ट्रीय स्तर का है पर सवाल है कि क्या शहर भी अन्तरराष्ट्रीय स्तर का है। फ्लाईओवर और एक्सप्रेसवेज तो अन्तरराष्ट्रीय स्तर के हो सकते हैं पर शहर के अन्तरराष्ट्रीय स्तर का न होने में शायद किसी को भी शक नहीं रहा।
यहाँ सत्ता के गलियारे तो चकाचक हैं, मन्त्रियों और सांसदों के बंगले तो चकाचक हैं, सेठों की कोठियाँ-बंगले तो चकाचक हैं, पर शहर की सड़कों पर कचरा है। कचरा वैसे ही घरों से निकल सड़कों पर आ गया है जैसे सरकार विरोधी प्रदर्शनकारी सड़क पर आ जाते हैं। यहाँ पॉश कॉलोनियाँ तो चकाचक हैं, पर उनसे दूर का शहर कचरे की सड़ांध से बजबजा रहा है। वैसे ही जैसे कच्ची बस्तियों, झुग्गी बस्तियों, पुनर्वास बस्तियों में बजबजाता है। यहाँ की कोठियों और बंगलों के लॉन तो चकाचक हैं, मॉल तो चकाचक हैं, पर शहर में गन्दगी ही गन्दगी है। कचरे का ढेर यहाँ भी है, वहाँ भी है। ताहद्देनजर कचरा ही कचरा है। एक जमाने में दिल्ली के बारे में कहा जाता था कि यहाँ खुदा है, वहाँ खुदा है, जिधर देखो खुदा ही खुदा है। अब कहा जा सकता है कि यहाँ कचरा है, वहाँ कचरा है, जिधर देखो कचरा ही कचरा है। कचरा ही कचरा। ले तो लें। देख तो लें। सूंघ तो लें।
नालियाँ गन्दगी से अटी पड़ी हैं। सड़के गन्दगी से पटी पड़ी हैं और दीवारों पर विज्ञापन लगे हैं- यह मेरा शहर है, मैं इसे गन्दा नहीं होने दूँगा। जैसे महापुरुषों की मूर्तियाँ देश की बदहाली पर आँसू बहाती हैं, वैसे ही ये विज्ञापन आँसू बहा सकते हैं। विदेशी मेहमानों से कह दो वे अभी दिल्ली न आएं। अभी वहाँ कचरा है। हे दुनिया भर के राष्ट्रपतियों, प्रधानमन्त्रियों, कूटनीतिज्ञों- उधर लुटियन की दिल्ली की तरफ ही रहना। चकाचक दिल्ली वही है। राजधानी दिल्ली वही है। सत्ताधारियों की दिल्ली वही है। विदेशी मेहमानों की दिल्ली वही है। वैसे तो हमें पक्का विश्वास है कि इधर आप आएंगे नहीं। पर भूले-भटके आ भी जाएं तो माफ करना। इन दिनों हमारी सड़कों पर बस कचरा ही कचरा है। अभी तो दिल्ली शहर कचरा हुआ पड़ा है, हम आपका स्वागत फिर कभी करेंगे।
बहुत दिन नहीं हुए जब देश में सफाई अभियान शुरु हुआ था। शुरूआत भी दिल्ली से ही हुई थी। खुद प्रधानमन्त्री झाड़ू लेकर निकले थे। मन्त्रियों ने सड़कों पर झाड़ू लगाई थी। झाड़ू लगाते हुए नेताओं ने न जाने कितनी फोटुएं खिंचाई थी। अपने प्रियजनों के साथ उन्होंने इतने फोटो नहीं खिंचवाए होंगे, जितने झाड़ू के साथ खिंचवाए। फूलों, कलमों, तलवारों, गदाओ के साथ नेताओं के इतने फोटो सेशन नहीं हुए होंगे जितने झाड़ू के साथ हुए।
अभी बहुत दिन नहीं गुजरे हैं जब दिल्ली में झाड़ू पार्टी का जीत हुई। आप को कौन जानता था, सब तो झाड़ू को ही जानते थे। जीत की खुशी में झण्डे लहराए जाते हैं, गुलाल उड़ायी जाती है, रंग बिखेरे जाते हैं पर दिल्ली में झाड़ू पार्टी की जीत पर हवा में जितनी झाड़ुएं लहराई, उतने कभी किसी पार्टी के झण्डे और बैनर भी नहीं लहराए होंगे। झाड़ू की ऐसी हवा बनी कि झाड़ू महंगी हो गयी। पर इन फोटो सेशनों में, जीत की इस खुशी में किसी को यह याद ही नहीं रहा कि सफाई करने वाले तो असल में वे कर्मचारी हैं, जो फोटो खिंचाने के लिए झाड़ू नहीं लगाते, बल्कि सफाई करने के लिए झाड़ू लगाते हैं। वे अपनी झाड़ू को झण्डे की तरह हवा में नहीं लहराते, बल्कि उससे सड़कों की रगड़कर सफाई करते हैं। पर सफाई को कोई उनका पेशा क्यों माने? सफाई करना उनकी नौकरी है और नौकरी पैसे के लिए की जाती है। पैसा दो, तनख्वाह दो और सफाई करवाओ। नहीं तो दिल्ली का कचरा होता रहेगा।
साभार : राष्ट्रीय सहारा 2 अप्रैल 2015