सविता चौधरी
कोई एक दिन में नहीं सीखता, न एक दिन के भाषण से प्रभाव पड़ता है। कठोर कानून बनाने के बावजूद अपराध होते हैं। वर्षों से पड़ी गंदी आदतों यानी गंदगी फैलाना तथा मतदान न करना आदि को धीरे-धीरे हटाना होगा। इसके प्रति चेतना लानी होगी, तभी ये अभियान सफल होंगे। एक बात और! जो छोटे-बच्चे, महिलाएं, बेरोजगार युवक कचरा बीनते हैं, वे कितना बड़ा उपकार समाज का कर रहे हैं, क्या कोई उन्हें पहचान या साधुवाद देगा?
मैं नवंबर के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में कोलकाता में थी। काफी दिनों बाद जाना हुआ। कोलकाता में विमान से उतरते ही वहां के एयरपोर्ट को देखकर प्रसन्नता हुई। अन्य महानगरों की तरह वहां के भी एयरपोर्ट को अपग्रेड कर दिया गया है, अत: अब वहां अव्यवस्था के साम्राज्य के दर्शन नहीं हुए। वैसे जो थोड़ा-बहुत है, वह हमारे हिंदुस्तानी खून में जैसे रच-बस गया है, अतएव उसे अनदेखा किया जा सकता है। एयरपोर्ट से बालीगंज जाते समय और भी हर्ष हुआ, क्योंकि सड़कें स्वच्छ, करीने से लगी सड़क की बत्तियां, बीच-बीच में पार्कों के बीच चमकते फौव्वारे। बालीगंज वहां का काफी महंगा और उच्च इलाका माना जाता है। यह एक सुखद अनुभूति थी। मैंने मन ही मन सोचा- लगता है, कलकत्ते में पर्वितन हो रहा है। हम लोग यह चर्चा कर ही रहे थे कि ड्राइवर महाशय बोल पड़े- मैैडम, आप कालीघाट की तरफ भी जाइएगा, अब वह पहले जैसे गंदा नहीं रहा, वहां दिनभर सफाईकर्मी लगे रहते हैं। मुझे लगा, शायद वहां टूरिस्ट लोगों का काफी आना-जाना रहता है, इसलिए शायद वर्तमान सरकार ने यह व्यवस्था की है। लेकिन ड्राइवर की अगली व्यंगात्मक आवाज ने हमें चौका दिया। बोला- असल में उधर ही ममता दीदी रहती हैं। हूं, ममता दीदी यानी बंगाल की मुख्यमंत्री साहिबा! बात तुरंत समझ में आ गई। यानी एयरपोर्ट से राजारहाट और बालीगंज, फिर कालीघाट की सज्जा विशिष्ट लोगों के लिए थी शायद।
अगले दिन जब मैं अन्य स्थानों पर गई तो काफी निराशा व्याप्त हो गई। कहीं भी स्वच्छ भारत के दर्शन नहीं हो रहे थे। इन क्षेत्रों को देखने से ऐसा लग रहा था कि यहां के लोग भारत स्वच्छता अभियान से अनभिज्ञ हैं। वही चिर-परिचित कूड़े-कचरे के ढेर। हां, एक बात जो ध्यान देने योग्य है कि आज से कुछ वर्ष पहले जब मैं वहां गई थी, तब वर्तमान मुख्यमंत्री को सत्ता संभाले हुए कुछ महीने ही हुए थे। तब शहर में एक अजीब-सा सूनापन, बुझे चेहरे, उत्साहहीनता नजर आई थी। किंतु इस बार ऐसा अनुभव नहीं हुआ। छोटी-छोटी दुकानें भी सामान से भरी थीं, ग्राहक दुकानों पर थे। यह इस बात को इंगित करता है कि धीरे-धीरे संभवत: लोगों की स्थिति में सुधार हो रहा है। हां, एक बात और, जो भी छोटे-मोटे मंदिर-मस्जिद थे, वे बढ़िया संगमरमर या टाइल्स लगाकर खड़े कर दिए गए हैं।
अब एक दूसरा समाचार, जो चर्चा का विषय बन जाएगा। गुजरात में मतदान को अनिवार्य कर दिया गया है। प्रजातांत्रिक ढांचे में किस प्रकार पूरे देश के लोग सहभागी हों, यह सोचकर ही यह नियम बनाया गया है, जिस पर वहां के गवर्नर की मुहर भी लग गई है। देश का यह प्रथम राज्य है, जहां यह नियम बनाया गया है। वैसे भारत या यूं कहें अभी गुजरात अकेला नहीं है, जहां मतदान को अनिवार्य बनाया गया है या देश में अनिवार्य बनाने की चर्चा चल रही है। ऐसे कई देश हैं, जहां मतदान करना आवश्यक है। लेकिन कहीं भी यह कानून ठीक से लागू नहीं हो पाया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ऑस्ट्रिया है, जहां नागरिकों के लिए मतदान अनिवार्य किया गया था और यह कई दशक पहले किया गया था, लेकिन अस्सी के दशक में इसे छोड़ दिया गया, क्योंकि वहां के शासनतंत्र का कथन था कि यह नियम बड़ा ही अलोकप्रिय रहा। सबसे बड़ी समस्या थी कि कैसे इसे उचित ढंग से लागू किया जाए। जब किसी नियम को लागू करने में ही अड़चनें उत्पन्न हो जाएं तो उसे त्यागना ही चाहिए। पश्चिम के कई देशों, यथा नीदरलैंड, स्पेन तथा इटली का भी उदाहरण हमारे समक्ष है, जहां मतदान को अनिवार्य न करके वैकल्पिक या ऐच्छिक कर दिया गया है।
इसमें एक और समस्या है। सरकारी तंत्र यह कैसे निश्चित करेगा कि जिन लोगों ने मतदान नहीं किया, वे वास्तव में किसी मजबूरी या आपातकालीन समस्याओं से घिरे थे। यदि इस पर किसी अर्थदंड की व्यवस्था की जाए तो क्या अपराध की गंभीरता के अनुसार शुल्क वसूला जाएगा या सबसे एक जैसा? अर्थदंड के प्रावधान से यह भी हो सकता है कि बहुत से लोग वोटरलिस्ट से अपने को दूर रखें। भारत जैसे विशाल देश तथा विशाल जनसंख्या के बीच यह जानकारी कैसे हासिल की जाएगी? क्या बहानेबाजों, अत्यंत रुग्ण या अशक्त लोगों के लिए एक ही तराजू होगी?
थाईलैंड को अपना पड़ोसी देश ही कहा जाएगा, वह भी इस प्रकार की परिस्थिति में फंस चुका है। उसका अंत यह हुआ कि वहां की सेना ने तख्ता पलट कर स्वयं सत्ता संभाल ली। दलील यह भी दी जा रही है कि मतदान अनिवार्य करने से भ्रष्टाचार मिटेगा, क्योंकि अनिवार्यता होने से मतदाताओं की संख्या बढ़ेगी तो प्रत्याशी इतना पैसा कहां से लाएंगे कि वे उसका दुरुपयोग अपने पक्ष में मतदाताओं को लाने के लिए करें। कम से कम हमारे देश में जनता यह विश्वास नहीं करेगी कि चुनाव में जो प्रत्याशी खड़ा है, उसके पास धन की कमी होगी। जिस प्रकार लोकसभा फिर राज्य सभा के चुनाव लड़े गए और हजारों करोड़ रुपया बहाया गया, वह हम देशवासियों से छुपा नहीं। वैसे गुजरात में मतदान अनिवार्य तो कर दिया गया, किंतु वोट न डालने पर दंड का क्या प्रावधान होगा, इसे अभी स्पष्ट नहीं किया गया है।
अब प्रश्न उठता है कि किस प्रकार भारत स्वच्छता अभियान या मतदान के प्रति लोगों की गंभीरता बढ़ाई जाए? स्वच्छता अभियान के तहत प्राय: समाचार पत्रों या टीवी चैनलों पर नेता, फिल्म स्टार, खिलाड़ी या समाज के विशिष्ट लोगों की फोटों झाड़ू लिए दिखाई पड़ने लगी है। उन लोगों के मात्र झाड़ू पकड़ लेने या एक दिन सफाई करने से क्या जनता में वे स्वच्छता के प्रति उत्साह जगा पाएंगे? मुझे नहीं लगता। फिर इसका इलाज क्या है? इसका इलाज है जनता के दिमाग में बार-बार इस बात को डालना। कैसे? जिस प्रकार स्माल पॉक्स यानी चेचक तथा पोलियों के लिए अभियान को वर्षों चलाया गया। इसे एक मिशन समझकर किया जाना चाहिए। इसे हमारे प्रधानमंत्री जी भी समझते हैं। इन बीमारियों के प्रति देशवासियों को बार-बार याद दिलाया जाता रहा कि ये कितनी खतरनाक हैं और समाज व व्यक्ति के लिए कितनी असमर्थता उत्पन्न करती हैं। बार-बार समाचार पत्रों में छापा गया पोस्टर लगाए जाते रहे तथा टीवी पर इनके विज्ञापन दिखाए जाते रहे। बाद में फिल्मों के कुछ श्रेष्ठ व जाने-माने कलाकारों को इससे जोड़ा गया, समय-समय पर भारतीयों के मस्तिष्क में यह डाला जाता रहा कि कुछ निश्चित तिथियों पर बच्चे को पोलियो ड्रॉप पिलाने ले जाना हर माता-पिता का कर्तव्य है। कई दशकों तक यह अभियान चलता रहा और तब अंततः देश के लोगों ने इसे बड़ी गंभीरता से लिया, जिसका परिणाम सुखद निकला। अब हमारा देश इन दोनों बीमारियों से मुक्त घोषित कर दिया गया है।
रही बात मतदान की तो इसके लिए भी कानून बनाना उचित नहीं है। हर नागरिक की भागीदारी कितनी आवश्यक है, इसे स्पष्ट करना चाहिए। पिछले कुछ चुनावों के समय कुछ बड़ी कंपनियों ने अपने विज्ञापनों के साथ मतदान को जोड़ा तथा बताया कि प्रजातंत्र के लिए मतदान कितना आवश्यक है। सीधे अपील की गई थी कि हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह अपने मतदान का प्रयोग करे। ऐसा आंदोलन या अभियान चलाया जाना चाहिए कि मतदाता स्वयं अनुभव करे, उसे कर्तव्य बोध हो कि मतदाता स्वयं अनुभव करे, उसे कर्तव्य बोध हो कि उसका वोट वास्तव में परिवर्तन ला सकता है।
दूसरे प्रत्याशियों का चयन उचित ढंग से यानी उनकी दक्षता, योग्यता, स्वभाव, साफ-सुथरी छवि आदि को ध्यान रखकर होना चाहिए। यहां एक उदारहण मैं देना चाहूंगी, जब आप पार्टी ने राजनीति में कदम रखा और चुनाव के मैदान में उतरे तो उन्हें आशा से कहीं ज्यादा वोट तो मिले ही, उनके अनेक प्रत्याशी जीतकर विधानसभा में पहुंचे। उनके प्रत्याशी नए थे, लेकिन जो एक सबसे बड़ी चीज थी कि लोगों को विश्वास था कि वे साफ-सुथरी छवि के हैं, भ्रष्टाचार से दूर हैं, अतः आशातीत सफलता पा सके। अब यह होगा या नहीं, इस पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा सकता है।
कोई एक दिन में नहीं सीखता, न एक दिन के भाषण से प्रभाव पड़ता है। कठोर कानून बनाने के बावजूद अपराध होते हैं। वर्षों से पड़ी गंदी आदतों यानी गंदगी फैलाना तथा मदान न करना आदि को धीरे-धीरे हटाना होगा। इसके प्रति चेतना लानी होगी, तभी ये अभियान सफल होंगे। एक बात और ! जो छोटे-बच्चे, महिलाएं, बेरोजगार युवक कचरा बीनते हैं, वे कितना बड़ा उपकार समाज का कर रहे हैं, क्या कोई उन्हें पहचान या साधुवाद देगा?
साभार : डेली न्यूज एक्टिविस्ट, 30 नवंबर 2014
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