मनीष वैद्य
एक छोटी सी आदत हजारों बच्चों की मौतों के सिलसिले को रोक सकती है। इससे बच्चों में होने वाली कई बीमारियों से ही बचाव नहीं होता बल्कि इससे बच्चों को हम अनजाने ही साफ-सफाई का सन्देश और सीख भी देते चलते हैं। अच्छी बात है कि मध्यप्रदेश जैसे राज्य ने इसमें पहल करते हुए एक ही दिन में एक समय पर एक साथ लाखों बच्चों के हाथ धुलवाने का बड़ा आयोजन किया और इसमें उनके प्रयास को विश्व रिकॉर्ड की तरह शामिल भी किया गया। पर अब यह जरूरी है कि हम मध्यप्रदेश में रिकॉर्ड से आगे बढ़कर प्रयास करें ताकि बच्चों की दैनिक आदत में इसे ढाला जा सके।
जी हाँ, बच्चों में एक छोटी सी आदत कि भोजन से पहले और शौच के बाद साबुन से अच्छी तरह से हाथ धुलाई करें, इसके लिए अब हमें जोर देने की जरूरत है। आँकड़े बताते हैं कि अकेले मध्यप्रदेश में ही हर महीने पाँच साल से कम उम्र के करीब एक हजार से ज्यादा बच्चों की मौतें सिर्फ दस्त, निमोनिया और श्वसन सम्बन्धी संक्रमणों की वजह से हो जाती है। यही आँकडा विश्व स्तर पर हर साल 35 लाख बच्चों की असमय मौत के भयावह आँकड़ों में तब्दील हो जाता है। यह आँकड़े हमें चौंकाते भी हैं और हमारे तमाम प्रयासों को मुँह भी चिढ़ाते नजर आते हैं। मौत के आँकड़ों की इस भयावहता को कम किया जा सकता है इसी छोटी सी युक्ति से। भोजन से पहले और शौच के बाद अच्छी तरह साबुन से हाथ धोने से बीमारियों के संक्रमण का खतरा बहुत हद तक कम किया जा सकता है।
शिशु रोग विशेषज्ञ बताते हैं कि इस आदत से बड़े प्रभाव सामने आते हैं मसलन बच्चों में दस्त की सम्भावना को इससे आधा किया जा सकता है यानी हाथ धुलाई करने वाले बच्चों में से ज्यादातर रोग के संक्रमण से मुक्त हो जाते हैं। इसी तरह श्वसन सम्बन्धी संक्रमण के मामले में भी एक चौथाई तक की कमी आती है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि स्वच्छ हाथ ही हमारे स्वस्थ और सुरक्षित जीवन की कुंजी है। वे बताते हैं कि ज्यादातर मामलों में बच्चों के हाथ गन्दे होने से ही बीमारियों के रोगाणु उनके शरीर में प्रवेश करते हैं। जो बच्चे साफ-सफाई का ध्यान रखते हुए नियमित इस आदत का पालन करते हैं उनमें बीमारियों की सम्भावना भी कई गुना तक कम हो जाती है साथ ही उनमे रोग प्रतिरोधक यानी रोगों से लड़ने की क्षमता भी काफी हद तक बढ़ जाती है। कई कुपोषित बच्चों में भी देखा गया है कि साफ-सफाई के अभाव तथा हाथ नहीं धोने से वे संक्रमण का शिकार हो जाते हैं और दिन-ब-दिन बीमार रहने लगते हैं। इनका शरीर कमजोर होने लगता है और धीरे-धीरे ये गम्भीर रोगी होकर एक दिन मौत की नींद सो जाते हैं।
हाथ धुलाई की वैश्विक मुहिम के तहत बीते साल 15 अक्टूबर 2014 को मध्यप्रदेश सरकार ने भी गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में जगह बनाने के लिए अपने 51 जिलों के 13 हजार 196 स्कूलों में एक साथ एक समय पर 12 लाख 76 हजार 425 बच्चों के हाथ धुलवाए और इसकी प्रदेशभर में वीडियोग्राफी भी कराई गई। इससे पहले 14 अक्टूबर 2011 को अर्जेंटीना, पेरू और मेक्सिको इन तीनों देशों में 7 लाख 40 हजार 820 लोगों ने हाथ धुलाई की थी।
हाथ धोने की बात बहुत छोटी है पर इसकी अपनी विवशताएँ भी हैं। अब जरूरी है कि हम बच्चों की आदत में इसे शामिल करा सकें। यह चुनौती है और हम सबके सामने है। हमें अब ऐसे तरीके ईजाद करने होंगे कि गाँव-गाँव के मजरे-टोलों तक के बच्चों में भोजन से पहले और शौच के बाद साबुन से अच्छी तरह हाथ धोने की प्रवृत्ति बन सके। इससे इनकी मौतों का सिलसिला रोका जा सकता है, वहीं बच्चों के स्वास्थ्य में भी इससे गुणात्मक सुधार हो सकता है। यह भी है कि अब तक हमारे गाँवों, कस्बों और अर्द्ध शहरी क्षेत्रों में बड़े बुजुर्गों और वयस्कों तक में यह आदत की तरह शुमार नहीं है तो हम बच्चों से कैसे अपेक्षा कर सकते हैं। खासतौर पर मजदूर बस्तियों, झुग्गी वासियों और दलित-आदिवासी इलाकों में।
गाँव में अब भी बड़ी तादाद ऐसे बच्चों की है जिनके माँ-बाप सुबह से ही खेती-बाड़ी या मजदूरी के काम से बाहर चले जाते हैं और घरों में पूरे दिन 12-15 साल के भाई-बहनों पर ही अपने से छोटे बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी होती है। हमारे यहाँ निम्न और मध्यम आयवर्गीय परिवारों का जीवन और उनकी जीवनशैली इतनी कठिन और श्रमसाध्य होती है कि उनका ज्यादातर ध्यान अपने परिवार की छोटी-छोटी जरूरतों और हर दिन की रोटी जैसे सवालों के ही इर्द-गिर्द घूमता नजर आता है, ऐसे में बच्चों पर वे कम ही ध्यान दे पाते हैं। इन परिवारों की महिलाओं को भी अपने छोटे-छोटे बच्चों को घर छोड़कर खेती बाड़ी या मजदूरी के काम से दिन के समय बाहर जाना पड़ता है। कुछ महिलाएँ अपने साथ बच्चों को काम पर भी ले जाती हैं। वहाँ भी वे उनपर ध्यान नहीं दे पाती और बच्चे अकेले ही खेतों की मेड़ या निर्माण स्थलों पर खेलते-खाते रहते हैं।
लोगों में इतनी अधिक गरीबी है कि दो जून की रोटी का सवाल ही उनके लिए बहुत बड़ा होता है ऐसे में बच्चे जो भी और जब भी मिल जाता है, उसे ही अपना भाग्य समझकर खाते-पीते रहते हैं। इससे उनमें संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है और कई बच्चे गम्भीर बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं तो कई बच्चे कुपोषण का भी शिकार हो जाते हैं। इन इलाकों में बेहतर चिकित्सा सुविधा नहीं होने से समय पर इनके रोगों का न तो निदान हो पाता है और न ही इनका यथोचित इलाज। यह कठिन काम है और इसे आसानी से पूरा कराना भी मध्यप्रदेश जैसे राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों और ग्रामीण जीवन की परेशानियों तथा मजबूरियों के मद्देनजर मुश्किल जान पड़ता है पर यह भी है कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।
वर्ष 2008 से संयुक्त राष्ट्र ने खासतौर पर एशियाई विकासशील देशों के बच्चों की मृत्यु दर को कम करने हेतु अपने सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य में भी इसे शामिल किया है। इसका लक्ष्य वर्ष 2015 तक 5 वर्ष तक की उम्र के बच्चों की मृत्यु दर लगभग आधी करने का था। लेकिन अब तक तो यह लक्ष्य पूरा होता नजर नहीं आ रहा है। विभिन्न देशों ने इस पर अमल तो किया लेकिन ज्यादातर देशों में इसे रस्मी तौर पर ही लागू किया गया है।
साल में एक दिन केवल हाथ धुलाई दिवस पर ही स्कूलों में बच्चों के हाथ धुलाए जाने की प्रक्रिया अपनाई जाती है फिर साल भर इस पर कोई ध्यान ही नहीं देता कि बच्चे हाथ धो रहे हैं या नहीं। यही वजह है कि यह अभियान आदत बनने की जगह केवल उत्सवधर्मिता में बदलता जा रहा है।