एक गन्दे शहर से ‘सुविधा सम्पन्न स्वच्छ’ देश कैसे बना सिंगापुर

आभा चोपड़ा

 

सिंगापुर के शानदार आर्थिक विकास के रचयिता तथा देश के संस्थापक प्रधानमन्त्री ली-कुआन-यू को अन्तिम विदाई देने के लिए रविवार के दिन भारी बारिश में भी हजारों सिंगापुर वासी तथा उनके विदेशी प्रशंसक मौजूद थे।

 

उन्हें श्रद्धाजंलि देने के लिए उनकी अन्तिम यात्रा में शामिल होने वाले विदेशी नेताओं में पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन तथा भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी, इसराईल के प्रधानमन्त्री बैंजामिन नेतन्याहू, जापान के प्रधानमन्त्री शिंजो अाबे से लेकर आस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री टोनी एबट तक मौजूद थे।

 

ली 3 दशक तक सिंगापुर के प्रधानमन्त्री पद पर रहे। इस द्वीप देश को एक निर्धन बंदरगाह से एक अमीर वित्त केन्द्र में बदलने का श्रेय उन्हें ही दिया जाता है। ली द्वारा देश में गत दो दशकों से कोई सक्रिय भूमिका न निभाने के बावजूद भारत के दक्षिण में स्थित यह छोटा-सा देश लगातार प्रगति के पथ पर अग्रसर है।

 

आखिर यह कैसे सम्भव हुआ? जहाँ इतने सारे उपनिवेश देश अपनी आजादी के बाद ऐसा नहीं कर सके, वहीं सिंगापुर ने ऐसा कैसे कर दिखाया है? उसने किस तरह से सही फैसले लिए?

 

सिंगापुर से लौटने वाले लोग अक्सर कहते सुने जा सकते हैं, “इसकी सफलता का रहस्य सख्ती से कानून लागू करवाने में निहित है।” यह बेहद स्वच्छ देश है क्योंकि वहाँ “गन्दगी फैलाने” पर भारी जुर्माने लगाए जाते हैं लेकिन आखिर कौन सख्ती और ईमानदारी से कानूनों को लागू करता है? वहाँ की अफसरशाही में भ्रष्टाचार का स्तर क्यों कम है? क्या इसकी वजह वहाँ सरकार के विरुद्ध खबरें देने की मीडिया को स्वतन्त्रता नहीं होना है या लोगों के राजनीतिक अधिकारों को सीमित रखना है?

 

शायद सच्चाई इन बातों से कहीं अलग है जो सिंगापुर वासियों के आदर्श तथा विश्वास के अनूठेपन में छुपी है। इस देश के चरित्र के दो प्रमुख सिद्धांतों से इसे जाना जा सकता है। पहला है ‘पेरानाकन’। इस मलय शब्द का अर्थ है ‘जन्म से’ जिसका प्रयोग मिश्रित जातीय मूल के लोगों के लिए किया जाता है। सिंगापुर की जनसंख्या में चीनी, भारतीय, मलय, यूरोपीय, अरब, अफ्रीकी मूल के लोग शामिल हैं।

 

इस विविधता ने सिंगापुर को अलग पहचान भी दी है। उदाहरण के लिए देश की आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है जिसे स्कूलों में पढ़ाया जाता है परन्तु इस बात का ध्यान रखा गया है कि ऐसा भी न हो कि बच्चे अपने बड़े बुजुर्गों के साथ भाषा के अन्तर की वजह से भावनात्मक रूप से जुड़ ही न सकें। इसीलिए उन्हें मण्डारिन, मलय, तमिल जैसी उनकी मूल भाषाओं को ‘सैकेण्ड लैंगवेज’ के रूप में पढ़ाया जाता है। ली का मानना था कि यदि बच्चे अपने परिवार के बड़े बुजुर्गों से भावनात्मक रूप से जुड़ नहीं पाएंगे तो ऐसी ‘जड़विहिन’ पीढ़ी का खामियाजा समाज को ही भरना होगा।

 

सिंगापुर की तरक्की का आधार बनने वाला दूसरा सिद्धांत है ‘अच्छा काम करोगे तो अच्छा फल पाओगे, बुरा काम करोगे तो दण्ड भुगतोगे।’

 

सिंगापुर एयरलाइन्स के विस्तार में 24 वर्ष गुजारने वाले केपेल टी.एण्ड टी के बोर्ड डायरेक्टर कर्मजीत सिंह इस सिद्धांत की व्याख्या इस प्रकार करते हैं, “आप अच्छा काम करते हैं- यदि रिश्वत स्वीकार नहीं करते, भारी वित्तीय घाटा नहीं सहते हैं, आसान रास्ता नहीं अपनाते हैं तो आपको पुरस्कृत किया जाता है। आप गलत काम करते हैं- प्रतिभा से समझौता करते हैं, पुरातन सोच अपनाते हैं, लोगों को अवांछित लालच देते हैं तो आपको दण्ड भुगतना पड़ता है।”

 

पढ़ने-सुनने में शायद ये सिद्धांत बेहद साधारण लगें परन्तु तरक्की करने तथा आगे बढ़ते रहने की सिंगापुर वासियों की ललक इन सिद्धांतों को कामयाब बनाए हुए है।

 

ली ने सिंगापुर की न्याययपालिका को इतना मजबूत कर दिया कि वहाँ विदेशी नागरिकों द्वारा कोई अपराध करने की स्थिति में वहीं के कानूनों के अनुसार दण्ड भुगतना पड़ता है। यहाँ तक कि अमरीका जैसी विश्व शक्ति के नागरिकों पर भी सिंगापुर में वहाँ के कानून ही लागू होते हैं।

 

शुरुआती वर्षों के दौरान सिंगापुर के लिए योजना बनाने में वहाँ मौजूद बड़ी संख्या मे भारतीय मूल के सिंगापुर वासियों का योगदान रहा है। चाहे यह सड़कों या शहरों की योजना हो, भारतीय मूल के लोग इनसे करीब से जुड़े रहे और अब वे भारत को सुधारने के लिए अपनी तकनीकों का प्रयोग करने के भी इच्छुक हैं।

 

सिंगापुर की जिस एक इंडस्ट्री के अनुभवों से भारत को अमूल्य लाभ हो सकता है वह है हाउसिंग एण्ड डिवलैपमेंट बोर्ड (एच.डी.बी.)। आजादी से पूर्व सिंगापुर एक भीड़भाड़ वाला देश था जहाँ गन्दगी की भरमार थी। उस समय अधिकतर सिंगापुर वासी अच्छा आवास वहन नहीं कर सकते थे।

 

परन्तु आज वहाँ उच्च श्रेणी की योजनाबद्ध टाउनशिप्स हैं जिन्हे बेहद कम समय में पर्यावरण व बुजुर्ग हितैषी ढंग से तैयार किया गया है। जिसका सारा श्रेय एच.डी.बी. को ही जाता है। प्रत्येक कामकाजी सिंगापुर वासी का अपना घर है और प्रत्येक 10 में से 8 के पास एच.डी.बी.का बनाया मकान है। इसकी वजह यह है कि वहाँ सरकार सेन्ट्रल प्रोवीडेंट फण्ड की अनिवार्य बचत में से एच.डी.बी. फ्लैट खरीदने की स्वीकृति देती है।

 

इन सस्ते मकानों का स्वामित्व 21 वर्ष से अधिक आयु का कोई भी नागरिक ले सकता है। जिसकी आय अनिवार्य रूप में 10,000 सिंगापुर डालर से अधिक न हो। इससे अधिक आय वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्राइवेट तौर पर बने हुए मकान खरीदने होते हैं जिसके लिए स्पष्टतः उसे अधिक पैसे देने होंगे। यहाँ यह बात भी बताना दिलचस्पी से खाली नहीं होगा कि अपने जीवन में कोई भी व्यक्ति एच.डी.बी से दो मकान ले सकता है। पहले उसे सिंगल अधवा दो रूम वाला मकान लेना होगा और विवाह के बाद जिन मामलों में दोनों पति-पत्नी काम करते हों वे 3 या 4 बैडरूम वाला सैट खरीद सकते हैं। कोई भी व्यक्ति जो अपने बूढ़े माता-पिता के मकान के निकट या उनके साथ रहना चाहता है ऐसे लोगों से उन्हें दिए गए ऋण पर कम ब्याज लिया जाता है।

 

शुरू में सिंगापुर के लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा कर रही एच.डी.बी अब पूंगोल जैसे नए ‘ईको’ नगर बसाने जा रही है। इन नगरों में तापमान कम रखने के लिए इन्हें हरियाली से समृद्ध किया जाएगा, यहाँ सौर ऊर्जा का इस्तेमाल होगा जिससे बिजली पर कम खर्च होगा और रेन हार्वेस्टिंग तथा कचरे की रिसाइकलिंग की व्यवस्था होगी। इन नए निर्माणों में अधिकांश मानवोपयोगी विशेषताओं का समावेश करते हुए बुजुर्ग लोगों का पूरा ध्यान रखा गया है और सामुदायिक बाजार, घूमने के स्थल एवं बच्चों के लिए विशेष खेलने के स्थानों की व्यवस्था रखी गई है।

 

निः सन्देह सिंगापुर एक छोटा-सा देश है और यदि हम भारत से इसकी तुलना करें तो आकार में यह हमारे किसी एक राज्य के बराबर ही होगा लेकिन सिंगापुर से हमें जो शिक्षा ग्रहण करने की आवश्यकता है वह है नव प्रवर्तन और नई-नई चीजों के प्रयोग करने की इसकी नीति। चूंकि सिंगापुर के प्रत्येक 5 नागरिकों में से एक 10 वर्षों की अवधि में वरिष्ठ नागरिक बन जाएगा इसलिए भविष्य को ध्यान में रखते हुए विशेष अनुसंधान केन्द्र और विशेष परियोजनाएं शुरू की गई हैं। जहाँ रोबोट बुजुर्गों को उनकी देखभाल में सहायता दे सकेंगे लिहाजा भविष्य को सामने रखते हुए योजना निर्धारण की सिंगापुर की नीति हमारे लिए एक मार्गदर्शक हो सकती है जिससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं।

 

साभार : नवोदय टाइम्स 1 अप्रैल 2015

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