एस. के. पाण्डे
खाद्यान्न, वस्त्र एवं आवास की ही तरह उचित सफाई सुविधा भी मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। अनुमान है कि लगभग 10,000 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष उन बीमारियों के इलाज पर खर्च किए जाते हैं जो अपर्याप्त अथवा अनुपस्थित सफाई सुविधाओं के कारण पैदा होती है। सफाई सुविधाओं के अभाव में प्रदूषित जल से होने वाली बीमारियों, यथा डायरिया, पेचिश आदि की संख्या बढ़ती है जो मानव उत्पादकता पर विपरित असर डालती है। इन बीमारियों के ही कारण गरीबी का दुष्चक्र पनपता और बढ़ता है। यूँ तो सफाई की कमी का दुष्प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति पर पड़ता है परन्तु महिलाएँ एवं बच्चे इससे विशेष तौर पर प्रभावित होते हैं। उच्च बाल मृत्यु दर का भी यही कारण है। वर्ष 1999 की विश्व स्वास्थ्य रिपोर्ट के मुताबिक केवल 49 प्रतिशत शहरी जनसंख्या (1997 में) तथा 14 प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या (2000 में) को ही शौच सुविधा प्राप्त थी। यह समस्या उन विकासशील देशों में और गम्भीर है जहाँ शुष्क शौचालय, उनमें हाथ का काम, तथा खुले में मलत्याग की प्रवृत्तियाँ अब भी विद्यमान हैं।
शुष्क शौचालयों की सफाई तथा मानव विष्टा एवं कचरा हटाने का हाथ का काम करने वालों को ‘भंगी’ कहा जाता है। सरकार द्वारा उठाए गए अनेक कदमों के बावजूद भारत में पिछले कई दशकों से भंगी-कार्य की यह अमानवीय प्रथा जारी है। वैकल्पिक व्यवसायों/ रोजगारों में भंगियों का पुनर्वास बहुमुखी प्रयासों यथा शिक्षा का प्रसार, मानसिकता में परिवर्तन, कौशल विकास, व्यवसायिकता, संसाधनों की उपलब्धता द्वारा ही सम्भव है।
शुष्क शौचालयों की सफाई तथा मानव विष्टा एवं कचरा हटाने का हाथ का काम करने वालों को ‘भंगी’ कहा जाता है। सरकार द्वारा उठाए गए अनेक कदमों के बावजूद भारत में पिछले कई दशकों से भंगी-कार्य की यह अमानवीय प्रथा जारी है। अनियोजित शहरी विकास तथा सफाई सुविधा पर अपर्याप्त बल से समस्या और भी दुष्कर हुई है। एक निश्चित समुदाय के लोग पीढ़ियों से यह कार्य करते आए हैं। आम तौर पर ये लोग शहर की बाहरी बस्तियों में समूह बनाकर रहते हैं जहाँ उनका अन्य लोगों से कोई सम्पर्क नहीं रहता। दुर्भाग्य से एक अति आवश्यक सेवा प्रदान करने के बावजूद यह एक ऐसा व्यवसाय है जिसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। इन भंगियों को सामाजिक उपेक्षा, लांछन और कुछेक स्थानों पर ‘अछूत’ तक कहलाने का दण्ड भुगतना पड़ता है।
भंगियों की संख्या पर कई आकलन समय-समय पर विभिन्न संस्थाओं द्वारा किए गए हैं। भारत के रजिस्ट्रार जनरल द्वारा कराए गए एक नमूना सर्वेक्षण के अनुसार 1961 में इनकी संख्या करीब 8 लाख थी, जिसमें से 3.86 लाख सफाई कार्य में लगे थे। 1981 में ये आँकड़े क्रमशः 8.64 और 3.96 लाख थे। नवीनतम अनुमानों के अनुसार 6.76 लोग किसी न किसी प्रकार के हाथ के काम में लगे है। इनकी राज्यवार संख्या के आँकड़े तालिका-1 में दिखाए गए हैं।
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सबके लिए समानता का आदर्श हासिल करने के उद्देश्य से संविधान के अनुच्छेद 17 द्वारा अस्पृश्यता पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया। तत्पश्चात 1955 में इसका अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए ‘प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स’ एक्ट बनाया गया। भंगियों को इस अमानवीय प्रथा से मुक्त कराने तथा अन्य व्यवसायों में पुर्नस्थापित करने की दृष्टि से वर्ष 1980-81 में एक केन्द्र-संचालित परियोजना आरम्भ की गई। इसका उद्देश्य था सूखे शौचालयों को बहाऊ शौचालयों में लगाना। योजना के तहत राज्यों को 50 प्रतिशत की केन्द्रीय सहायता दी गई। तत्पश्चात शहरी विकास तथा गरीबी उन्मूलन मन्त्रालय द्वारा शुष्क शौचालयों को बहाऊ शौचालयों में बदलने की एक कम महँगी सफाई योजना सम्पूर्ण शहर आधार पर हाथ में ली गई। ग्रामीण विकास मन्त्रालय ने राजीव गाँधी सफाई एवं पेयजल मिशन के तहत इसी प्रकार का कार्य गाँवों में आरम्भ किया। इसके अतिरिक्त कल्याण मन्त्रालय ने इन भंगियों की सहायतार्थ एक केन्द्रीय योजना ‘नेशनल स्कीम फॉर लिबरेशन एण्ड रिहैबिलिटेशन ऑफ स्कैवेंजर्स एण्ड देयर डिपेंडेंट्स (एन एस एल आर एस)’ आरम्भ की। इस योजना के तहत इन कार्मिकों को ‘भंगी’ संज्ञा दी गई। इसमें राज्यों/ संघशासित क्षेत्रों को 100 प्रतिशत तक केन्द्रीय सहायता का प्रावधान किया गया ताकि वे भंगियों को वैकल्पिक व्यवसायों का प्रशिक्षण तथा आर्थिक सहायता देकर उनके पुनर्वास में सहायक बनें। तालिका-2 में इस सहायता का विस्तृत ब्यौरा पेश है।
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शुष्क शौचालयों का निर्माण रोकने तथा भंगी कार्य में इन लोगों का रोजगार प्रतिबंधित करने के लिए केन्द्र द्वारा एक विशेष कानून ‘द एम्प्लायमेंट ऑफ मैन्युअल स्कैवैंजर्स एण्ड कंस्ट्रक्शन ऑफ ड्राई लैटरीन्स (प्रोहिबिशन) एक्ट 1993’ बनाया गया। इस कानून के तहत ये दोनों कार्य निषिद्ध हैं और इसकी अवहेलना करने वालों के लिए एक साल की सजा और/ अथवा 2000 रुपये जुर्माने का प्रावधान है। उल्लंघन जारी रहने पर प्रतिदिन 100 रुपये अतिरिक्त शुल्क देना होगा। भंगियों सहित सभी सफाई कर्मचारियों के कल्याण कार्यों की निगरानी के उद्देश्य से वर्ष 1993 में एक अन्य विशिष्ट कानून ‘द नेशनल कमिशन फॉर सफाई कर्मचारीज एक्ट’ जारी किया गया। इस कानून के तहत तीसरे राष्ट्रीय आयोग का गठन फरवरी 2001 में किया गया। यह आयोग इन सफाई कर्मचारियों की कार्यदशाओं का अध्ययन कर उनमें सुधार के सम्बन्ध में रिपोर्ट देता है जो फिर कार्रवाई-रिपोर्ट के साथ संलग्न करके संसद में पेश की जाती है।
अन्य व्यवसायों में लगने के लिए इन सफाई कर्मियों को कम ब्याज दर पर वित्त उपलब्ध कराने हेतु जनवरी 1997 में 2000 करोड़ रुपये की अंशधारक पूँजी वाले ‘राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त एवं विकास निगम’ नामक एक पृथक सार्वजनिक संस्थान की स्थापना की गई। यह निगम राज्य स्थित संस्थाओं के माध्यम से सफाई कर्मियों को अप्रत्यक्ष ऋण उपलब्ध कराता है। प्रशिक्षण और कार्यकौशल विकास में सहायता के साथ-साथ 6 प्रतिशत की सरल ब्याज दर पर उन्हें ऋण भी दिया जाता है। अधिकाधिक व्यक्तियों को लाभ पहुँचाने की दृष्टि से निगम ने गैर-सरकारी संस्थाओं के माध्यम से छोटे-छोटे ऋणों के वितरण की भी व्यवस्था की है। योजना में लाभकर्ता के लिए कोई आयसीमा नहीं रखी गई है। मात्र व्यवसाय, यानी सफाई से जुड़े कार्य के आधार पर यह सहायता प्रदान की जाती है। निगम द्वारा दिए गए ऋण का ब्यौरा तालिका-3 में दृष्टव्य है।
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यद्यपि इसमें दो राय नहीं कि शौचालयों में हाथ का काम अमानवीय है एवं उसका उन्मूलन आवश्यक है तथापि तमाम सरकारी कार्यक्रमों और प्रावधानों के बावजूद देश के कुछ भागों में यह प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है। इसका सबसे बड़ा कारण है शुष्क शौचालयों की उपस्थिति। देखा गया है कि वैकल्पिक रोजगार के लिए प्रशिक्षित होने के बावजूद इनमें से कई वापिस अपने पुराने काम पर लौट आते हैं। भंगी कार्य में किसी कुशलता की अपेक्षा नहीं होती, कुछ ऊपरी आमदनी भी हो जाती है और किसी प्रकार की प्रतियोगिता, निवेश अथवा खतरे की गुंजाइश नहीं होती। शुष्क शौचालयों की मौजूदगी के कारण इस प्रकार के कार्य की माँग भी बनी रहती है। इन कारणों से महिला सफाई कर्मी विशेष तौर पर इसी व्यवसाय से जुड़ी रहती हैं। कुछ मामलों में ऐसा भी देखा गया है कि सामाजिक पूर्वाग्रहों एवं मानसिक अवरोधों के कारण इन्हें दुकानदारी जैसे कुछ व्यवसायों में कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ता है।
जागरुकता-निर्माण
खुले में शौच अथवा शुष्क शौचालयों का इस्तेमाल बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य पर विपरित प्रभाव डालता है। तथापि देखा जाता है कि निम्न आय परिवारों में मनोरंजन के साधनों, यथा टी.वी., रेडियों, स्कूटर आदि पर तो कितना ही पैसा व्यय कर दिया जाता है परन्तु एक स्वच्छ शौचालय के निर्माण की बात सोची तक नहीं जाती। कारण कि उन्हें गन्दे शौचालयों से होने वाले नुकसान तथा बेहतर सफाई के सम्भावित लाभों के सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी नहीं होती। समाज के कमजोर तबके को यह समझना होगा कि शुष्क शौचालयों के स्थान पर बहाऊ शौचालय न केवल उनके स्वास्थ्य की दृष्टि से आवश्यक है अपितु उन्हें हाथ के काम से छुटकारा दिलाकर उनके पुनर्वास के सामाजिक कार्य में भी सहायक है। अतः जागरुकता-निर्माण एवं सक्रिय जन-सहभागिता भंगियों की मुक्ति के लिए परमावश्यक तत्व हैं।
शहरी इलाकों में जगह की तंगी के कारण यह सम्भव नहीं कि हर परिवार के पास अपना अलग शौचालय हो। सामुदायिक शौचगृहों तथा ‘पैसा दो और इस्तेमाल करो’ आधार पर संचालित सार्वजनिक शौचालयों का अधिक संख्या में निर्माण ही समस्या का सही हल प्रस्तुत कर सकता है। वर्ष 2000 से भंगियों के पुनर्वास और मुक्ति के लिए उन्हें समूहों में आयोजित करके तथा सहकारिता के आधार पर ‘सफाई बाजार’ के संचालन में सहायता देकर विशिष्ट प्रयास किए जा रहे हैं। ‘सफाई बाजारों’ का उद्देश्य उन्हें निम्न-कौशल हाथ-कार्य से मुक्ति दिलाकर कुशल कामगारों के दर्जे में लाना है। ‘सफाई बाजारों’ की गतिविधियों में निम्न शामिल हैं:
1. सफाई में काम आने वाले सामान यथा, फिनायल, झाड़ू आदि का उत्पादन।
2. शुष्क शौचालयों के स्थान पर स्वच्छ शौचालयों का निर्माण।
3. उन परिवारों के लिए नए शौचालयों का निर्माण जो इस सुविधा से वंचित हैं।
4. ‘पैसा दो, इस्तेमाल करो’ शौचालयों का निर्माण एवं परिचालन।
5. सहकारिता आवासों, अस्पतालों, नर्सिंग होम्स, होटल्स आदि में निश्चित वेतन पर सफाई सम्बन्धी कार्य।
6. स्कूली बच्चों, नगरपालिका कर्मियों आदि के लिए यूनीफार्म की सिलाई एवं सप्लाई का काम।
7. सब्जी, किराने का सामान एवं अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री।
8. भंगी उद्यमियों के लिए सेवा केन्द्रों का संचालन।
‘सफाई बाजार’ की अवधारणा में 20-25 भंगियों का एक समूह बना दिया जाता है। एन एस एल आर एस के तहत इस समुदाय को प्रति व्यक्ति 10,000 रुपये की वित्तीय सहायता दी जाती है। अतिरिक्त वित्त की व्यवस्था एन एस के एफ डी सी बैंक द्वारा जारी ऋण के जरिए की जाती है।
अन्य व्यवसायों में लगने के लिए इन सफाई कर्मियों को कम ब्याज दर पर वित्त उपलब्ध कराने हेतु जनवरी 1997 में 2000 करोड़ रुपये की अंशधारक पूँजी वाले ‘राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त एवं विकास निगम’ नामक एक पृथक सार्वजनिक संस्थान की स्थापना की गई। यह निगम राज्य स्थित संस्थाओं के माध्यम से सफाई कर्मियों को अप्रत्यक्ष ऋण उपलब्ध कराता है।
वैकल्पिक व्यवसायों/ रोजगारों में भंगियों का पुनर्वास बहुमुखी प्रयासों यथा शिक्षा का प्रसार, मानसिकता में परिवर्तन, कौशल विकास, व्यवसायिकता, संसाधनों की उपलब्धता द्वारा ही सम्भव है। विख्यात गैर-सरकारी संगठनों को इन समुदायों की व्यापार गतिविधियों के संचालन से और निकटता से जोड़ा जा रहा है। हर्ष का विषय है कि अनेक राज्यों में भंगियों के पुनर्वास की योजनाओं पर बल दिया जा रहा है। इस कार्य को निश्चित समयसीमा में पूरा करने के लिए विशिष्ट योजनाएँ भी बनाई गई हैं। आंध्र प्रदेश सरकार ने सब शुष्क शौचालयों को स्वच्छ शौचालयों में बदलने की एक समयबद्ध योजना मिशन रूप में अपनाई है। गुण्टूर जिले में सेप्टिक टैंकों की सफाई की सक्शन पद्धति वाली मशीनें हासिल करने में एक समुदाय को सहायता प्रदान की गई है। तमिलनाडु में एक समुदाय चावल, सब्जी, दूध और अन्य खाने-पीने के सामान की बिक्री में लगा है। चेन्नई में चलाया जा रहा ‘एवरग्रीन सेनेटरी मार्ट’, होटलों को सब्जियाँ बेचने का कार्य कर रहा है। इस प्रकार की गतिविधियों ने एक ओर तो समाज के इस गरीब तबके के सशक्तिकरण का नया अध्याय खोला है, दूसरी ओर उन्हें समाज की मुख्यधारा से जुड़ने का अवसर प्रदान किया है। राजस्थान सरकार के बीच बाजार 2000 दुकाने/ किओस्क विशेष तौर पर भंगियों के लिए बनाए हैं जो थोड़ी वित्तिय सहायता के साथ उन्हें आवंटित किए जाएंगे। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि भंगियों को छोटे-छोटे उद्यमियों में परिवर्तित करने में सफलता अर्जित की जा रही है।
बढ़ते शहरीकरण के साथ-साथ सफाई का महत्व व्यक्ति एवं समाज दोनों के लिए बढ़ रहा है। अतः एक ऐसी दीर्घकालिक नीति बनाई जानी आवश्यक है जो सबको स्वच्छ शौचालय की सुविधा उपलब्ध कराए। विकसित देशों में सफाई कार्य मशीनी उपकरणों द्वारा किया जाता है जिससे इस काम में लगे व्यक्तियों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ने का खतरा नहीं रहता। दूसरे, मशीनों के इस्तेमाल के कारण उन्हें सामाजिक तिरस्कार का भी सामना नहीं करना पड़ता। सफाई कार्य भी अन्य आर्थिक गतिविधियों जैसी एक गतिविधि हो जाती है। स्पष्ट है कि भंगियों के पुनर्वास के लिए शुष्क शौचालयों का निर्माण बन्द करना होगा और इस कार्य में मशीनी उपकरणों का इस्तेमाल बढ़ाना होगा। जागरुकता-निर्माण के साथ-साथ उचित कानूनी प्रावधान और कानूनों का कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित करना होगा। एक बार हाथ का काम बन्द हो जाने पर वैकल्पिक व्यवसायों में उनके पुनर्वास का कार्य जारी योजनाओं के तहत अधिक आसानी से किया जा सकेगा।
शहरी क्षेत्रों में सेवा उद्योग में असीम सम्भावनाएँ विद्यमान हैं। इस क्षेत्र की सब आर्थिक गतिविधियाँ भंगियों के लिए खोली जा सकती हैं उनका केवल सफाई कार्य में लगे रहना जरूरी नहीं है। सरकार के साथ-साथ स्थानीय स्वशासी संस्थाओं, गैर-सरकारी संस्थाओं, मीडिया तथा सभ्य समाज को भी इस कार्य में सहयोग देना होगा ताकि शौचालयों में हाथ का काम बीते दिनों की बात बन कर रह जाए।
लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं।
साभार : योजना अक्टूबर 2002