भारत में स्वच्छता की भयावह स्थिति से निपटने हेतु सिर्फ शौचालय-निर्माण की ही नहीं, बल्कि आदतों में परिवर्तन की भी आवश्यकता है। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि मंदिरों से ज्यादा प्राथमिकता शौचालय-निर्माण को देनी चाहिए। उनके वित्त-मंत्री श्री अरुण जेटली ने इस माह पेश किए गए बजट में वर्ष 2019 तक खुले में शौच की प्रथा को खत्म करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। महात्मा गांधी, जिनका यह कथन था कि बेहतर स्वच्छता स्वतंत्रता से कहीं अधिक आवश्यक है, के जन्म को उस वक्त 150 वर्ष हो जाएंगे।
दुनिया में खुले में शौच करने वाले साठ फीसदी भारतीय
खुले में शौच खत्म करने के अत्यधिक फायदे होंगे। लगभग 1 करोड़, 30 लाख घरों में शौचालय का अभाव है। 72 प्रतिशत से भी अधिक ग्रामीण लोग झाडि़यों के पीछे, खेतों में या सड़कों के किनारे शौच जाते हैं। यह आंकड़ा बमुश्किल ही कम हो रहा है। विश्व के 1 अरब लोगों के पास शौचालय का अभाव है, उनमें करीब 60 करोड़ भारत के हैं।
खुले में शौच सार्वजनिक सुरक्षा की चुनौती बढ़ाती है
ऐसे में समाज को भारी खामियाजा भुगतना पड़ता है, जैसे नवयुवतियां अपने गांव में घरों से अंधेरा होने पर निकलती हैं। सार्वजनकि सुरक्षा एक बड़ी समस्या है। उत्तर-प्रदेश में मई महीने में सार्वजनकि शौचालय के रूप में इस्तेमाल किए जानेवाले खेत में जाती दो किशोरियों का बलात्कार एवं हत्या कर पेड़ से लटका दिया गया। यह मामला अपनी अत्यधिक बर्बरता के कारण काफी चर्चा में रहा, लेकिन इस प्रकार के हमले दुःखद रूप से सामान्य हो गए हैं।
खुले में शौच से जन-स्वास्थ्य का मसला और गंभीर हो जाता है
जन-स्वास्थ्य एक व्यापक मुद्दा है। खुले में शौच तब और भी अधिक विनाशक हो जाता है, जब लोग समूह में एक-दूसरे के पास बैठकर मल-त्याग करते हैं। चूंकि भारत की आबादी विशाल, सघन और तेजी से बढ़ रही है, ऐसे में मानव-मल को ग्रामीण क्षेत्रों में भी फसलों, कुओं, भोज्य-पदार्थों एवं बच्चों के स्पर्श से दूर रखना असंभव है। जीवाणु और कीड़े रोगों का प्रसार करते हैं, विशेषकर आंत के रोगों का। इसके कारण आंत्रविकृति (एंटरोपैथी) होती है, जो एक पुरानी बीमारी है। यह शरीर को कैलोरी और पोषक-तत्त्वों को अवशोषित करने से रोकती है।
खुले में शौच कुपोषण को खतरनाक बनाता है
बढ़ती आय एवं बेहतर भोजन के बावजूद भारत में बच्चों में कुपोषण की दर में कमी नहीं आ रही है। संयुक्त-राष्ट्र की एजेंसी ‘यूनिसेफ’ का अनुमान है की भारतीय बच्चों की आधी आबादी अभी भी कुपोषित है।
करीब 23,000 उत्तर भारतीय परिवारों को लेकर किए गए नए सर्वेक्षण और प्रिंसटन में अर्थशास्त्री डाएने कॉफे के संचालन में यह तथ्य उजागर हुआ कि जिन घरों में कमाऊ शौचालय है, वहां भी 40 प्रतिशत से अधिक घरों के कम-से-कम एक व्यक्ति अवश्य ही खुले में शौच जाता है। इनमें भी विशेषकर वे लोग झाडि़यों में शौच के लिए जाना पसंद करते हैं, जिनके पास सरकार-द्वारा निर्मित शौचालय हैं। पुरुष प्रायः शौचालय को महिलाओं, कमजोरों एवं बुजुर्गों के इस्तेमाल के लिए बताते हैं।
हजार में सौ बच्चों की मृत्यु प्रत्येक वर्ष रोकथाम के अभाव में हो जाती है, खासकर उत्तर भारत में, जहां खुले में शौच जाने की आदत सर्वाधिक है। भू-जल में मानव-मल के मिलने से इंसेफेलाइटिस (मस्तिष्क की सूजन)-जैसे रोगों का प्रसार होता है, पूर्वी उत्तर-प्रदेश को हर वर्ष मानसून के बाद इस संकट का सामना करना पड़ता है।
स्वच्छता पर भारत सबसे कम खर्च करने वाले देशों में एक
भारत में डायरिया के कारण मरनेवालों की संख्या कम कैलोरी का सेवन करनेवाले गरीब देशों, विशेषकर अफ्रीका की तुलना में कहीं ज्यादा है। कमजोर माताएं अविकसित शिशुओं को जन्म देती हैं, जो रोग-ग्रस्त होने के कारण अपने पूर्ण संज्ञानात्मक क्षमता को विकसित करने में विफल होते हैं। दिल्ली मूल के अर्थशास्त्री डीन स्पिर्यस कहते हैं कि इन सबकी कीमत, आय और कर (टैक्स) की हानि के रूप में इनका निदान करने से कहीं अधिक होती है। गरीब-से गरीब देशों, जैसे-अफगानिस्तान, बुरुंडी और कांगो की तुलना में भारत स्वच्छता पर बहुत कम खर्च करता है, क्योंकि इसके अधिकतर नेता इस मुद्दे को उठाने में दिलचस्पी नहीं लेते। सरकार ने सितंबर, 2015 तक 5 करोड़, 2 लाख शौचालय-निर्माण के लिए प्रतिबद्धता दर्शाई है।
गंगा भी मल त्याग का केंद्र
कई लोग, विशेषकर हिंदु-बाहुल्य गंगा-तट पर रहनेवाले आज भी खुले में शौच जाने को वरीयता देते हैं, जबकि उनके स्वयं के घरों में शौचालय होते हैं।
करीब 23,000 उत्तर भारतीय परिवारों को लेकर किए गए नए सर्वेक्षण और प्रिंसटन में अर्थशास्त्री डाएने कॉफे के संचालन में यह तथ्य उजागर हुआ कि जिन घरों में कमाऊ शौचालय है, वहां भी 40 प्रतिशत से अधिक घरों के कम-से-कम एक व्यक्ति अवश्य ही खुले में शौच जाता है। इनमें भी विशेषकर वे लोग झाडि़यों में शौच के लिए जाना पसंद करते हैं, जिनके पास सरकार-द्वारा निर्मित शौचालय हैं। पुरुष प्रायः शौचालय को महिलाओं, कमजोरों एवं बुजुर्गों के इस्तेमाल के लिए बताते हैं। संक्षेप में, शौचालयों की मांग विवशता है।
सरकार द्वारा सिर्फ शौचालय-निर्माण वर्षों से चली आ रही खुले में शौच की प्रथा को समाप्त नहीं कर सकती है। इसके बदले विद्यालयों एवं मीडिया में सार्वजनिक अभियानों के माध्यम से शौचालय-इस्तेमाल एवं बेहतर स्वास्थ्य-विज्ञान के प्रयोग से अच्छे स्वास्थ्य और आर्थिक लाभ के महत्त्व को समझाने की आवश्यकता है।
इस प्रकार के अभियान घरों में शौचालय-निर्माण के लिए प्रोत्साहित भी करते हैं। युनिसेफ-द्वारा प्रस्तुत किया गया एक आकर्षक म्यूजिक वीडियो भारतीयों से ‘शौचालय की ओर चलें’ आग्रह करती है। यद्यपि यह वीडियो सभी को शीघ्र ही पसंद न आए, परंतु इसका प्रयोजन सही है।
साभार : द इकोनाॅमिस्ट, सुलभ इंडिया, जुलाई 2014