क्षारीय मृदाओं के लक्षण तथा सुधार
प्रायः इन मृदाओं का क्षारांक 8.2 से अधिक होता है जा बहुधा 10 से ऊपर ही पाया जाता है। सोडियम की अधिकता के कारण मृदा के कणों का विऊर्पीपिंडन हो जाता है जिसके फलस्वरूप् इन भूमियों की भौतिक दशा बहुत खराब हो जाती है और वे पानी के संचार के लिए अप्रवेश्य हो जाती है। मटियार की कठोर तह बन जाने तथा अवभूमि कंकरयुक्त होने के कारण ये मृदाएं काफी घनी एवं ठोस हो जाती हैं। ये भूमियां भीगने पर दलदली तथा सूखने पर ढेलेदार हो जाती हैं तथा उनमें पतली दरारें भी पड़ जाती है जिससे जुताई आदि में बड़ी कठिनाई होती है। जल संचार की अत्यधिक कम क्षमता होने के कारण बरसात का पानी काफी समय तक सतह पर खड़ा रहता है। क्षारीय मृदाओं की जल चालकता बहुत धीमी होती है। विनियम योग्य सोडियम प्रतिशत में जैसे-जैसे वृद्धि होती है, वैसे-वैसे मृदा के जल संचयन तथा जल चालकता में अभाव होता है। भूमि की अधिक क्षारीयता के कारण घुला हुआ जैविक पदार्थ मृदा के कणों की सतह पर जमा हो जाता है और उसका रंग काला हो जाता है। इस प्रकार की भूमियों के सुधार के लिए जिप्सम जैसे सुधारक की आवश्यकता होती है।
अधिक क्षारांक तथा विनियम योग्य सोडियम के कारण इन भूमियों में कई पोषक तत्वों की कमी तथा असंतुलन पाया जाता है। अधिकतर इन भूमियों में नाइट्रोजन तथा कैल्शियम की कमी होती है जिससे पौधों को हानि पहुंचती है। इन भूमियों में बहुधा जैविक पदार्थों की भी कमी पाई जाती है। कुछ सूक्ष्क मात्रक तत्व या तो अधिक मात्रा में पाए जात हैं या फिर आवश्यकता से भी कम मात्रा में होते हैं। अतः इन तत्वों का ठीक मूल्यांकन करना महत्वपूर्ण है। क्षारीय मृदाओं में जिंक (जस्ता) की कमी एक सामान्य लक्षण है।
बहुधा क्षारीय मृदाओं में नाइट्रोजन की कमी पाई जाती है। इन मृदाओं में अकार्बोनिक फास्फोरस का एक बड़ा हिस्सा कैल्शियम फास्फोरस के रूप में होता है तथा विनिमय योग्य सोडियम प्रतिशत तथा क्षारांक के बढ़ने के साथ अवशोषित फास्फोरस तथा ऐल्यूमिनियम फास्फोरस बढ़ते हैं जबकि इन दशाओं में कैल्शियम फास्फोरस की स्थिति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
सामान्य मृदाओं की अपेक्षा लवणीय तथा क्षारीय मृदाओं में पानी में घुलनशील बोरोन की मात्रा अधिक होती है तथा मृदा क्षारांक तथा लवणता बढ़ने के साथ-साथ घुलनशील बोरोन की मात्रा भी बढ़ जाती है।
मुख्य लक्षण जो क्षारीय मृदाओं को सफल फसल उत्पादन के लिए प्रतिकूल बनाते हैं, इस प्रकार हैं -
1- विनिमय योग्य तथा घुलनच्चील सोडियम की अधिकता।
2- घुलनशील लवण, मुखयतः कार्बोनेट एवं बाइकार्बोनेट के जो भूमि के ऊपरी 30-60 सैं0 मी0 सतह में अधिक होते हैं।
3- क्षारांक (पी0एच0) की अधिकता, जो बहुधा 10 से ऊपर हो जाता है।
4- विनिमय योग्य तथा घुलनच्चील कैल्शियम, कार्बनिक पदार्थ एवं नाइट्रोजन की कमी।
5- वायु संचार तथा जल चालकता का अत्यन्त धीमा होना।
6- कैल्शियम कार्बोनेट ( ककंड) का बिभिन्न गहराइयों पर पाया जाना।
7- खराब भौतिक दशा।
मिटि्टयों की मुख्य समस्या अधिक क्षारीयता के कारण उनकी बिगड़ी हुई भौतिक दशा है। अधिकतर क्षारग्रस्त भूमियों में पोषक एवं जैविक पदार्थों की निम्नता होती है। इन भूमियों में उर्वरकों के प्रयोग से न केवल पैदावार में बढ़ौतरी हुई वरन भूमि सुधार की क्रिया में उपयोगी सिद्ध हुए। क्षारग्रस्त भूमियों में सुधार के मुखय तत्व इस प्रकार हैं -
1- भूमि के चारों ओर मेढ़ बनाना तथा उसे समतल करना।
2- उचित सुधारक का सही मात्रा एवं सही ढंग से प्रयोग करना।
3- उर्वरकों एवं खादों के साथ जिंक का समुचित मात्रा में प्रयोग करना।
4- उचित फसलों, उनकी किस्मों एवं सही फसल चक्र का चुनाव, जैसे धान व गेहूं।
5- उचित कर्षण एवं सस्य विधियों का प्रयोग।
6- उचित जल प्रबन्ध की विधियों को अपनाया जाना।
7- गेहूं की फसल के पश्चात गर्मियों में ढैंचा की हरी खाद लेना आदि,
इन्हीं सब बातों का ध्यान रखते हुए किसान क्षारीय भूमि को सुधार सकता है तथा इनमें अच्छी पैदावार ले सकता है। किसानों को भूमि सुधार में कई प्रकार से सहायता दी जा रही है। सुधारक जैसे जिप्सम तथा पाइराइट की कीमत पर भारी छूट दी गयी है। इसके इलावा दूसरे साधनों के व्यवस्था में भी सहायता दी जाती है तथा तकनीकी परामर्श निशुल्क प्रदान की जाती है।
राम नरेश एवं डा. संजय कुमार,
मृदा विज्ञान विभाग, चौ. च. सिं. हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय, हिसार
टेलीफ़ोन : 08950094020
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