ऐलान राजा को बस मजा भर दे जाता है

हेमंत

दानापुर के उस गांव के लोग आज तक नहीं भूले। उनको उम्मीद है कि लालू जी भी उस दिन का वाकया भूले नहीं होंगे, हालांकि इस बीच दस साल गुजर गए।

जो लोग लालू जी को पहचानने का दावा करते हैं, कहते हैं कि ऐसे वाकये उनकी जिंदगी में अक्सर होते हैं। जब मुख्यमंत्री नहीं थे तब भी, जब बने तब भी और जब मुख्यमंत्री पद पर अपनी अद्र्धांगिनी को सौंप कर खुद सत्ता चलाने के प्रयोग में फंसे तब भी! किसे याद रखें और किसे भूलें! ऐसे वाकयों से गुजरना उनकी राजनीतिक शैली का हिस्सा है।

शौचालय: बतौर मुख्यमंत्री पहला उद्घाटन

लेकिन गांव के लोगों की उम्मीद जाती नहीं। वे यह नहीं मान पाते कि लालू जी उस दिन को भूले होंगे, जब उन्होंने गांव में शौचालय का उद्घाटन किया था। मुख्यमंत्री की हैसियत से संभवतः पहला उद्घाटन! वह भी शौचालय का। शायद इस मायने में भी पहली घटना कि किसी मुख्यमंत्री ने शौचालय का उद्घाटन किया।

उद्घाटन के वक्त लालू जी ने जो भविष्यवाणी की थी, वैसा ही हुआ और वह शौचालय चंद दिनों में ही बेकाम होकर बंद हो गया। लेकिन शौचालय के भग्नावशेष की तरह लोगों के जेहन में लालू जी की वह घोषणा जिंदा है, जो आज तक अमल में नहीं आई।

‘पढ़ो या मरो’ का नारा

शौचालय का उद्घाटन करते हुए लालू जी ने बिहार में बच्चों की अनिवार्य पढ़ाई के लिए नया कानून बनाने का ऐलान किया था। कानून भी कैसा? सत्ता के कोड़े जैसा, जो गरीब अभिभावकों की पीठ पर पड़ेगा और बच्चों को जिताएंगे - ‘पढ़ो या मरो।’

शिक्षा के प्रसार के लिए ‘पढ़ो या मरो’ का नारा भी लालू जी का दिया हुआ है। फर्क सिर्फ यह है कि शौचालय के उद्घाटन में शिक्षा के लिए कानून का कोड़ा बनाने का ऐलान उस वक्त हुआ, जब लालू जी नए-नए मुख्यमंत्री बने थे। ‘पढ़ो या मरो’ का नारा उन्होंने उस वक्त दिया, जब वह मुख्यमंत्री की गद्दी से उतरने को मजबूर थे। वैसे आज तक बिहार में लालू जी के कथनानुसार न कोई पढ़ा और न मरा। यानी न पढ़ने के एवज में कोई नहीं मरा।

बहरहाल, यह उस वक्त की बात है, जब लालू जी बिहार के नए-नए मुख्यमंत्री बने थे। मुख्यमंत्री होने का थ्रिल-रोमांच- उनके रोम-रोम से छलक रहा था। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व उस रोमांच को नई राजनीतिक शैली के रूप में प्रस्तुत करने को बेताब था।

बिहार की राजनीति में अब उसे  ‘लालू शैली’  के नाम से जाना जाता है। सिर्फ जाना नहीं जाता। उसका लोहा सब मानते हैं क्योंकि वह ऐसा लोहा साबित हुआ है, जिसकी काट अब तक संभव नहीं हुई है।

शौचालय उद्घाटन से पहले सायरन भी बजाया गया

उस दिन लालू जी  ‘सायरन’  बजवाते हुए मुख्यमंत्री निवास से निकले। ‘बेली रोड’  पर आते-जाते मुड़ते, रुकते लोगों पर सायरन की गूंज का असर देखते-गुनते वह दानापुर के उस गांव में पहुंचे। सायरन ने गांव वालों को दूर से ही जता दिया था कि सत्ता उनके दरवाजे पर पहुंच रही है। पूरा गांव उमड़ पड़ा।

सत्ता में कोई निचले पायदान से उठकर आता है तो अपनी मुफलिसी के दिन सिर्फ इसलिए याद करता है क्योंकि ऐसा करने से उसे अपने ऊपर उठने का अहसास हो पाता है। वह अपनी मुफलिसी को खूब प्रचारित-प्रसारित करवाता है ताकि अंतिम आदमी या हाशिये पर के समाज के लोगों को अपने खाते में शामिल किया जा सके। वह ऐलान करके उसका मजा उठाता हैं। उसे ऐसा करना नशा की मानिंद खुमारी देता है यही वजह है कि कई दशकों से शौचालय को लेकर ऐलान बहुत हुए और काम कम।

चार खानों वाला शौचालय उद्घाटन के लिए तैयार था। सामने खुली जगह पर छोटा-सा शामियाना लगा था। चैकी लगाकर मंच तैयार किया गया था। एक माइक लगा था।

शामियाने के अंदर से दस गुना ज्यादा भीड़ बाहर की खुली जगह पर पसरी हुई थी। अधिकांशतः पिछड़े-दलित समुदाय के गरीब! औरत-मर्द और उनसे अधिक बच्चे।

बिन पानी शौचालय बेमानी

लालू जी ने फीता काट कर शौचालय का उद्घाटन किया। फिर भाषण दिया। उन्होंने स्थानीय बोली में सत्ता की ताकत और राजनीति की समझ भरते हुए पहला धमाका यह किया कि  ‘जिस शौचालय का उद्घाटन हो रहा है, वह चंद दिनों का है।’ बिन पानी सब बेमानी! शौचालय के साथ चापाकल नहीं है। पांच सौ कदम दूर से पानी लाना है। लोग लोटा भर पानी लिए फारिग होने जा सकते हैं लेकिन शौच के बाद पाखाना साफ करने के लिए एक हजार कदम चलकर पानी डालेंगे, यह असंभव है। सो दो-तीन दिन में शौचालय गंधाने लगेगा और बेकाम हो जाएगा। फिर तो तमाम ग्रामीण पुनः मैदान में झाड़ा फिरते नजर आएंगे।

लालू जी ने ग्रामीण क्षेत्र में शौचालय-स्थापना की पोल खोल दी। भीड़ ठहाके लगाती रही, तालियां बजाती रही। ‘हगना-मूतना’ जैसे शब्द माइक पर गूंजे तो गरीब ग्रामीणों को गुदगुदी महसूस हुई। कई गदगद हुए कि राजा भैया उन्हीं की बोली-बानी में बतिया रहे हैं। सत्ता पाकर ‘परजा’ (प्रजा) को नहीं भूले।

शिक्षा के बगैर सफाई की समझ कहां से आएगी?

तभी लालू जी ने एक और धमाका किया-ग्रामीण गरीबों की नासमझी पर चोट की। वे अधूरा बोलते, भीड़ पूरा अर्थ निकालती। वह जितना बोलते, भीड़ पर उससे ज्यादा अर्थ पसर जाता। मुख्यमंत्री होने का यह अद्भुत परिणाम शायद खुद लालू जी को विस्मित कर गया था- विस्मय का मजा देने लगा था! सो उन्होंने और कस करके माइक थाम लिया! खैर! उन्होंने जो कुछ कहा, उसका आशय यह निकला कि गांव-घर की भलाई की कल्पना तभी साकार हो सकती है, जब गरीब शिक्षित बनें। शौचालय तो कोई भी बना देगा-दया की राजनीति करने वाली कोई स्वयंसेवी संस्था या फिर राजनीति में दया करने वाली कोई पार्टी!

लेकिन शौचालय चालू कैसे रहेगा? चलेगा कैसे? गंदगी चैनलाइज होती रहे- इसकी फिक्र उनको क्यों होने लगी? यह तो गांव वालों पर है, जो गरीब हैं, निरक्षर हैं। शिक्षा नहीं है तो सफाई की समझ कहाँ से आएगी? समझ के बिना डिमांड और सप्लाई वैसी ही होगी, जैसा कि यह शौचालय, जो दो दिन चलकर सिर्फ महकेगा! काम नहीं करेगा!

‘सो सरकार का फैसला है कि वह कानून बनाएगी। कड़ा कानून! जो गरीब-गुरबा अपना बाल-बच्चा को स्कूल नहीं भेजेगा, उसको जेल भेज दिया जाएगा! समझे! सीधा जेल!  और जो बच्चा स्कूल जाएगा, उसको स्कूल में खाना मिलेगा! गरमा-गरम खिचड़ी चोखा!’

भीड़ क्षणभर चुप रही। फिर आदत के मुताबिक पहले तालियां बजाईं। फिर ठहाके लगाते हुए जोर-जोर से तालियां बजाकर बता दिया कि उसने लालूजी के एलान का असली भी अर्थ ग्रहण कर लिया। !

(हाँ, वह शुरुआती दौर था। तब तक लालू जी ने अपने भाषण के अंत में वह सब दोहराना नहीं शुरु किया था, जो बाद के दौर में उनके भाषण के सरस समापन का सूचक होता था! यानी वही-ऐ भैंस चराने वालों, ऐ बकरी चराने वालों, ऐ चूहा मारने वालों...पढ़ना-लिखना सीखो।)

भाषण समाप्त हुआ। लालू जी मंच से उतरे और अपनी गाड़ी की ओर मुड़े! तब तक गांव के कई बड़े-बूढ़े नजदीक आए और उनको घेर लिया। वे हाथ जोड़कर खड़े हो गए! मुदित मगन लालू जी समझ गए कि जरूर कोई मांग रखने आए हैं। आखिर वह प्रदेश के नए-नए मुख्यमंत्री बने हैं। उन्हीं के बीच से निकले हैं। उनके सिवा कौन गरीब ग्रामीणों की पीड़ा को समझेगा? उन्होंने पूछा- ‘हां बोलिए, जल्दी बोलिए! क्या कोई प्रॉब्लम है?’

एक बुजुर्ग ने हाथ जोड़कर विनती के स्वर में कहा- ‘हुजूर आपने आखिरी में जो कहा उसे पूरा कर दीजिए! हम तर जाएंगे। वही जेलवा में ठूंसने की बात! हम सब आपके गुलाम हो जायेंगे! सदा के लिए!’

अभी तो ऐसे कितने और उद्घाटन करने हैं!

आज यह अनुमान करना कठिन है कि उस वक्त लालूजी ठिठके या नहीं? शायद पलभर के लिए वह स्तब्ध रह गये हों? उन्हें प्रजा की पीड़ा कुछ क्षण के लिए भौंचक कर गई होगी! या अभी-अभी हाथ आई सत्ता की लाठी ने धक्का दिया होगा- ‘चलो-चलो, यहां अधिक देर रुको नहीं! क्यों मजा बिगाड़ रहे हो! शौचालय का उद्घाटन कर दिया, भाषण में शिक्षा-विक्षा और कानून की बात कह दी। हो गया! जो दो-चार दिन में बंद होने वाला है, उसके उद्घाटन और जो कभी नहीं शुरू होने वाला है, उसके ऐलान में अटक गये, तो सत्ता की गाड़ी चलने से रही! अभी तो ऐसे कितने-कितने उद्घाटन और ऐलान करने हैं!’

गांव वालों को आज भी भरोसा है कि लालू जी उस दिन का वह क्षण नहीं भूले होंगे, जब सबने ‘कैदी’ बनाने वाला कानून बनाने की फरियाद करते हुए कहा था कि उसके एवज में वे सदा के लिए (लालू जी का) ‘गुलाम’ बनने को तैयार हैं!

हालांकि अब गांव वालों को यह अनुभव हो चुका है कि वे आज भी वैसे ही आजाद हैं, जैसा कि आजादी के पिछले 50 वर्षों से हैं। उनके गांव के गरीब पिछड़े दलितों के बच्चों के लिए अनिवार्य पढ़ाई का कोई कानून दस साल में नहीं बना और निकट भविष्य में बनने वाला नहीं है। अभिभावकों को जेल में ठूंसने वाला कानून बनाने का ऐलान तो महज ऐलान था! ऐसा ऐलान, जो नासमझ होने की पीड़ा झेलती प्रजा को गुदगुदा गया और सत्ता का नया-नया स्वाद चखने वाले ‘राजा’ को मजा दे गया। बस! वर्ष 2000।

Post By: iwpsuperadmin
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