अब शौचालय मे देर नहीं

एस. पी. सिंह


शौचालय अब सिर्फ एक शौचालय जाकर राहत पाने तक सीमित नहीं रह गया; यह ‘बिंगो आन्दोलन’, ‘बायो ब्रेक’ के बारे में है, और यह शौचालय बनाने की दौड़ में जल्दी-से-जल्दी सबसे आगे निकलने के लिए उद्योगपतियों के साथ कॉरपोरेट मण्डल की बैठकों में चर्चा का विषय बन गया है। एक दौर ऐसा था, जब सभ्य लोगों की सभाओं में शौचालय के बारे में बातें करना अशोभनीय माना जाता था। अब, यह विकास से सम्बन्धित मुद्दा है। समय कैसे बदल गया!


श्री मोदी ने स्वच्छता को सभ्यता से जुड़ा मुद्दा भी बनाया है, वैसे ही, जैसे सन 1847 में एडविन चॅडविक किया था, जब ब्रिटिश-संसद ने आयोग तथा समितियाँ बनाई और ‘पुअर लॉ’ की तरह अधिनियम पारित किया। श्री चॅडविक वस्तुत: जॉन स्टुअर्ट मिल की परम्परा के ‘अतिवादी दार्शनिक’ थे, ये दोनों ही जेरेमी बेन्थम के अनुयायी थे, जिन्होंने लोक-प्रशासन और शहरी-प्रबन्धन को नया आकार देने का प्रयास किया। इनसब ने पहली बार ब्रिटिश-संसद को समाज-कल्याण के साधन के रूप में रूपान्तरित करने का प्रयास किया।


वास्तव में, ब्रिटेन में स्वच्छता-आन्दोलन सन 1830 के दशक में हुए सुधार-आन्दोलन का अनपेक्षित परिणाम था, जिसके फलस्वरूप नगर-परिषदों को सत्ता हस्तान्तरण भी किया गया, विशेषकर स्वच्छता के प्रबन्धन में, चार्ल्स डिकेन्स ने अपनी सुप्रसिद्ध रचना ‘ऑलिवर ट्विस्ट’ में उस समय की खराब स्वच्छता-स्थिति पर व्यंग्य किया है। पश्चिम में स्वच्छता का इतिहास काफी लम्बा रहा है, लगभग एक शताब्दी तक का।


अच्छी मंशा हमेशा अच्छे परिणाम नहीं देती। विकल्पों की पहचान, तकनीकी विकल्प खोजने और व्यवहार्य विकल्प के रूप में नए मॉडल गढ़ना, जो व्यापक स्तर पर काम कर सकें, उतना ही महत्वपूर्ण है। महात्मा गाँधी से लेकर आज तक अनेक नेता स्वच्छता और स्कैवेंजरों की बातें करते रहे हैं, परन्तु धरातल पर गोष्ठियों एवं समितियों की स्थापना और अव्यवस्थित विचारों पर प्रयत्न करने से अधिक कुछ भी नहीं किया जा सका।


सुलभ आन्दोलन के संस्थापक डॉक्टर बिन्देश्वर पाठक जानते थे कि शौचालय-प्रयोग या खुले में शौच एवं सामाजिक प्रथाएँ, जैसे अस्पृश्यता, इन्हें केवल सामाजिक आन्दोलन से बदला जा सकता है, न कि कानून-द्वारा। संयुक्त राज्य अमेरिका में दास-प्रथा का उन्मूलन सन 1864 के गृहयुद्ध के पश्चात हुआ, परन्तु इन बदलावों को सामाजिक तौर पर स्वीकार तब किया गया, जब सन 1962 में जॉर्ज बुश ने अश्वेत नागरिकों को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए सामाजिक पहल किया, जिसके पश्चात लगभग 100 वर्षों बाद बराक ओबामा राष्ट्रपति बने।


इनसब से अवगत श्री मोदी यह जानते थे, जब उन्होंने कहा कि वह स्वच्छता को सामाजिक आन्दोलन का रूप देंगे और 2 अक्टूबर को इसका शुभारम्भ करेंगे, ताकि सन 2019 में महात्मा गाँधी की 150वीं सालगिरह के अवसर पर ‘सबके लिए शौचालय’ अभियान को पूरा किया जा सके। गाँधी जी के लिए, आजादी की लड़ाई स्वतन्त्रता से अधिक सामाजिक सुधार को लेकर थी। उन्होंने कहा था, ‘स्वतन्त्रता प्रतीक्षा कर सकती है, परन्तु स्वच्छता नहीं।’ श्री मोदी अपने ‘काम-धाम से गाँधीवादी’ हैं, जिन्हें इस बात की जानकारी है कि अच्छी सरकार अमूर्त विचारों में नहीं, अपितु अच्छे प्रदर्शन पर आधारित रहती है।


समानता और स्वाधीनता-जैसे अमूर्त विचारों पर चर्चा करना अच्छा लगता है, परन्तु जब-तक इनपर अमल नहीं किया जाए, तब-तक कोई लाभ नहीं।


शौचालय अव्यावहारिक विचार नहीं है; यह वास्तविकता है


शौचालय कोई अमूर्त विचार नहीं है, बल्कि यह प्राकृतिक आवश्यकता है, जिसके लिए श्री नरेन्द्र मोदी ने पर्याप्त धन, सामाजिक साधन एवं दक्षता उपलब्ध कराई है।


आज फिर स्वच्छता हमारे सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन का अन्ग बनती जा रही है। विद्यालयों एवं सार्वजनिक स्थानों पर शौचालयों की अनिवार्यता के अलावा स्वच्छता-साधनों की मांग हर क्षेत्र में बढ़ती जा रही है, जैसे लड़कियां अब उस घर में विवाह नहीं करना चाहतीं, जहाँ शौचालय नहीं है। राजस्थान-सरकार ने निर्णय लिया है कि सरकारी क्षेत्र में उन्हीं को नौकरी दी जाएगी, जिनके घरों में शौचालय है। स्वच्छता को एक बड़े अभियान के रूप में चलाने के लिए अनेक सामाजिक एवं कानूनी उपाय अपनाए जा रहे हैं।


महात्मा गाँधी का रास्ता


स्कैवेंजर-वर्ग को सम्मान देने के लिए गाँधी जी ने कई सामाजिक कार्य किए जैसे-स्कैवेंजरों की बस्ती में रहना, अपने आश्रम की देख-रेख की जिम्मेदारी ऊका, जो एक स्कैवेंजर महिला थी, को देना तथा यह कहना कि एक स्कैवेंजर महिला को आजाद भारत का प्रथम गवर्नर जनरल बनना चाहिए। यह सत्य है कि यह सब प्रतीकात्मक था, किन्तु इनसब से जनता में जागरूकता जरूर आई। डॉक्टर  पाठक गाँधी जी के सन्देश को जमीनी हकीकत में बदलना चाहा और इसके लिए उन्होंने सन 1969 में सुलभ-आंदोलन की शुरुआत की। उस वक्त (सन 1968 में) ये पटना में बिहार-गाँधी-जन्म-शताब्दी-समारोह समिति से सम्बद्ध थे। इन्होंने एक अल्पव्ययी स्कैवेंजिंग-मुक्त दो गड्ढों वाले शौचालय की तकनीक विकसित की, स्कैवेंजरों को शिक्षा एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर इन्हें अन्य व्यवसायों तथा कार्यों में पुनर्वासित किया। इसके अलावा इन्होंने स्वच्छता-आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए कई और स्वीकारात्मक कदम उठाए। ये कदम-दर-कदम आगे बढ़े हैं और इन्होंने विभिन्न विकल्पों का प्रयोग किया है, जिससे स्वच्छता एक वृहत आन्दोलन का रूप ले सके, जो कि अब यह बन भी गई है।


यह सत्य है कि बहुत थोड़े विकल्प उचित नहीं होते हैं, किन्तु बहुत अधिक विकल्प भी कठिनाई पैदा कर देते हैं क्योंकि इसमें बहुत से लोग आकर्षक जीवन के विकल्पों के कारण खिंचे चले आते हैं, फिर भी स्वयं को प्रसन्न नहीं कर पाते हैं। विकल्पों का विरोधाभास एक कहानी के द्वारा समझा जा सकता है-बरीदान का गधा। चौहदवीं सदी के दार्शनिक जीन बरीदान ने विकल्पों के चुनाव में आजादी पर लिखा एवं कहा कि जहाँ अनेक विकल्प होते हैं, वहाँ चुनाव करना कठिन होता है। एक कहानी का उद्धरण देते हुए वे लिखते हैं कि घास के एक समान दो खूबसूरत गट्ठरों के मध्य खड़ा गधा चुनाव नहीं कर पाता कि वह किसे खाए और अन्त में भूखा मर जाता है। तकनीक में परिवर्तन, जैसा कि हम स्मार्टफोन और टैबलेट में देखते हैं, हमारे विकल्पों की भरमार को बढ़ाते हैं। इनमें से अधिकांश झूठे होते हैं।


अत: हमें अपूर्ण जानकारियों के आधार पर भी निर्णय लेने आने चाहिए। उपलब्ध विकल्पों में से चुनाव करने से पूर्व अपने लिए उपयुक्त मापदण्ड स्थापित करने चाहिए। हम लोग भावनात्मक रूप से कमजोर जीव हैं और जीवन सन्दिग्धता तथा विरोधाभास से भरा है। इसलिए यह आवश्यक है कि ऐसे निर्णय लिए जाएं जिन्हें आप कार्यान्वित कर सकें। अन्य लोगों के विचारों के शोर में नहीं फँसना चाहिए, अपनी दृढ़ता को बनाए रखना और उसपर चलना चाहिए। स्वयं को आगे बढ़ाने के लिए मार्गदर्शक सिद्धांतों की रचना करेें एवं अपनी राह स्वयं बनाएँ। महान कार्य करने की यह वैज्ञानिक विधि है। डॉक्टर पाठक ने सुलभ को वैश्विक आंदोलन बनाने के लिए यही किया।


डॉक्टर पाठक ने जब यह आन्दोलन आरम्भ किया, तब बिहार सरकार ने उनपर विश्वास करते हुए 500 रुपए दिए, जो उन्हें आरा में एक सुलभ सार्वजनिक शौचालय के निर्माण के लिए चाहिए थे। स्कैवेंजरों को मुक्त करने के लिए उनके  इस प्रयास में किसी ने उनका साथ नहीं दिया। उस वक्त इनकी स्थिति घूमते हुए फकीर सी थी, जिसके पास कुछ नहीं था, सिवा एक दर्शन के, जो भारत को स्वच्छ और स्कैवेंजिंग मुक्त बना सकता था। और उनके दर्शन ने यह कार्य किया। इससे पूर्व भी बड़े सामाजिक आन्दोलनों की शुरुआत हुई थी, किन्तु वे बहुत दूर नहीं जा सके। समय के साथ आर्य समाज ब्राह्मण समाज भूदान एवं अन्य आन्दोलन भी समाप्त हो गए।

गाँधी आंदोलन का बड़ा सामाजिक प्रभाव था किन्तु अन्त में, वह राजनीतिक ही रहा स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद सन 1948 में गाँधीजी की हत्या के बाद, कांग्रेस, जिसकी स्थापना एक ब्रिटिश नागरिक श्री ए.ओ. ह्यूम ने सन 1885 में एक सामाजिक सुधार पार्टी के तौर पर की थी, शक्ति का केन्द्र बनकर सामने आई।


यदि सत्य कहा जाए तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी कि सुलभ आन्दोलन जैसा अभियान पहले कभी नहीं आया। यह पहला लोगों का आंदोलन है जो लोगों के सामाजिक परिवर्तन के विषय के इर्द-गिर्द कार्य करता है, जिसकी चर्चा सार्वजनिक रूप से नहीं की जाती थी। सुलभ ने इस सन्दर्भ में उदाहरण पेश किया है, क्योंकि यह तकनीक मानवीय मूल्यों पर आधारित है, मौलिक है तथा वैश्विक है।


डॉक्टर पाठक के अच्छे कार्य उन्हें संत की उपाधि तो नहीं दे देंगे, किन्तु आम नागरिक यही चाहते हैं, एक स्वच्छ एवं स्वस्थ समाज, जो सामाजिक जवाबदेही तथा सामाजिक समानता के साथ आगे बढ़ रहा हो। उनमें प्रसिद्ध लेखक ऑस्कर वाइल्ड (1854-1900) की कुछ झलक दिखती है। एक बार वाइल्ड ने कहा था, ‘हम सभी धूल में पड़े हैं, किन्तु हम में से कुछ लोग सितारों की ओर देख रहे हैं।’ डॉक्टर पाठक भी सितारों की ओर देख रहे हैं, भविष्य की ओर, जहां माननीय प्रधानमन्त्री श्री मोदी स्वच्छता के आन्दोलन की अन्तिम सीढ़ी की ओर भारत को ले जाना चाहते हैं, जहाँ स्कैवेंजिंग की प्रथा समाप्त होगी, भारत पूर्णता: स्वच्छ होगा, उत्पादक राष्ट्र होगा और जहां लागरिक का विकास होगा। इस कार्य के लिए भविष्य दूर भविष्य में भी उन्हें सदा स्मरण किया जाएगा एवं सम्मान दिया जाएगा।


रोम का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ


आज तक कोई भी आन्दोलन अतीत से पूर्णत: अलग नहीं रहा है और ना ही पुरानी प्रथाएं पूर्णत: समाप्त हुई हैं। लोगों के पास परम्पराओं एवं प्रथाओं की यादें रहती हैं। रोम का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ था और फिर जब उसे दोबारा बनाया गया तो रोम वासियों को बहुत से पुराने सामानों का भी प्रयोग करना पड़ा। हिंसा के खतरे को छोड़कर मानवीय सभ्यता में ऐसा कोई तत्व नहीं है, जो इतनी तेजी से पूरी व्यवस्था को तबाह कर दे, जैसा कि समाज की इस बुराई के साथ हुआ है- अस्पृश्यता। सत्य कहा जाए तो परम्परा की बेड़ियों से स्वतन्त्रता की ओर आने वाले इस झूले को आसानी से झुलाने में खतरे बहुत हैं। यदि हमें किसी पहाड़ के एक ओर से दूसरी ओर जाना हा तो हम सीढ़ीदार पत्थरों की खोज करते हैं। सुलभ-आन्दोलन एक ऐसा आन्दोलन है, जो परिवर्तन के खतरों को स्वयं झेलता है तथा सामाजिक परिवर्तन इस विधि से लाता है, जिसमें किसी पक्ष को कोई तकलीफ नहीं हो।


साभार : सुलभ इंडिया अक्टूबर 2014

Post By: iwpsuperadmin
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